वही प्रश्न हैं और उत्तर वही हैं,
नहीं ज्ञात यह भी, सही या नहीं हैं,
समस्या भ्रमित, हर दिशा अग्रसर है,
नहीं प्रश्न निश्चित, समुत्तर इतर है,
बहे काल कल कल, रहे चित्त चंचल,
चले आ रहे हैं, विचारों के श्रृंखल,
चुने कौन समुचित, उहा में पड़े हैं,
जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
संशय, विकल्पों, सतत उलझनों में,
अदृष्टा विनिर्मित घने जंगलों में,
ठिठकते हैं, रुकते हैं, क्रम तोड़ते हैं,
तनिक जोड़ लेते, तनिक छोड़ते हैं,
आगत समय, गत समय में विलीनन,
बहा जा रहा अनमना एक जीवन,
न रण छोड़ पाये, न रण में लड़े हैं,
जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
उमड़ते थे सपने, रहे आज तक वे,
उभरते रहे नित, नहीं पर छलकते,
सतत आत्म प्रेरण अकारण नहीं है,
नहीं दीखता हल, निवारण नहीं है,
घुमड़ प्रश्न रह रह, नहीं किन्तु उत्तर,
सतत हूक उठती, मनन में निरन्तर,
तर्कों में घुटते, विषम हो पड़े हैं,
जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
विशेषों के घेरे, नहीं शेष कुछ था,
सहस्रों स्वरों में, नहीं कोई चुप था,
सकल मर्म जाने, सकल अर्थ समझे,
रहे किन्तु फिर भी विरत आकलन से,
प्रज्ञा पुलकती, समझ तंतु विकसित,
जगतदृष्टि सारी, अहं से सकल सित,
नया पंथ, जाने की हठ में अड़े हैं,
जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
उत्तम स्तर को प्राप्त करती सुन्दर कविता।
ReplyDeleteअन्तरमन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति।🙏🙏🙏🌼
काया हीलअता,बाया रोअता।
अति सुंदर रचना। जीवन, जन्म से मृत्यु तक शून्य से शून्य तक की यात्रा है।यात्रा कितनी संतुष्टिदायक है यह महत्वपूर्ण है।
ReplyDeleteप्रणाम सर
ReplyDeleteसर आपकी लेखन शैली की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है।
सर इन सब लेखनी का एकल संग्रह मिले तो पढ़ने में मज़ा आए।
बहुत सुंदर और भवपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteगुन गुन गाते गीत ,कल कल बहता नीर, मध्यम मध्यम चलती पुरवाई,जैसा ही "गीत में रस है ''
ReplyDelete🌻
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति/रचना सर
ReplyDeleteवर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल आत्मपरीक्षण करती हुई, आत्ममुग्धता से विपरीत यथार्थ वादी रचना,धन्यवाद बीन भैया।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवार 01 अगस्त 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
संंगीताजी, बहुत आभार आपका, इस कविता को अपने ब्लाग में स्थान देने के लिये।
Deleteजहां से चले थे वहीं पे खड़े हैं..जीवन संदर्भों का चिंतन मनन करती सुंदर कविता ।
ReplyDeleteन रण छोड़ पाये, न रण में लड़े हैं,
ReplyDeleteजहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
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जीवन के उद्देश्य की उलझनों को सुलझाने में लगा मन नित नयी पहेलियों की खोज करता रहता है।
दार्शनिक भाव समेटे सुंदर सृजन सर।
सादर।
बहुत खूब
ReplyDeleteउहापोह ,असमंजस और नव पंथ की तलाश में कवि हृदय !!सुंदर भाव सम्प्रेषण !!
ReplyDelete'नया पंथ, जाने की हट में अड़े हैं'! वाह..बहुत खूब! प्रवीण जी..इस शानदार सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। सादर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteविशेषों के घेरे, नहीं शेष कुछ था,
सहस्रों स्वरों में, नहीं कोई चुप था,
सकल मर्म जाने, सकल अर्थ समझे
रहे किन्तु फिर भी विरत आकलन से... निशब्द करता सृजन बहुत सुंदर।
सादर
वही प्रश्न हैं और उत्तर वही हैं,
ReplyDeleteनहीं ज्ञात यह भी, सही या नहीं हैं,
समस्या भ्रमित, हर दिशा अग्रसर है,
नहीं प्रश्न निश्चित, समुत्तर इतर है,
बहे काल कल कल, रहे चित्त चंचल,
चले आ रहे हैं, विचारों के श्रृंखल,
चुने कौन समुचित, उहा में पड़े हैं,
जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
बहुत ही लाजवाब, गहन चिंतनपरक उत्कृष्ट सृजन हेतु साधुवाद🙏🙏🙏
क्या बात है प्रवीण जी।एक सार्थक रचना जो चिंतनपरक है।🙏
ReplyDeleteवाह!
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