31.7.22

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं


वही प्रश्न हैं और उत्तर वही हैं,

नहीं ज्ञात यह भी, सही या नहीं हैं,

समस्या भ्रमित, हर दिशा अग्रसर है,

नहीं प्रश्न निश्चित, समुत्तर इतर है,

बहे काल कल कल, रहे चित्त चंचल,

चले रहे हैं, विचारों के श्रृंखल,

चुने कौन समुचित, उहा में पड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


संशय, विकल्पों, सतत उलझनों में,

अदृष्टा विनिर्मित घने जंगलों में,

ठिठकते हैं, रुकते हैं, क्रम तोड़ते हैं,

तनिक जोड़ लेते, तनिक छोड़ते हैं,

आगत समय, गत समय में विलीनन,

बहा जा रहा अनमना एक जीवन,

रण छोड़ पाये, रण में लड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


उमड़ते थे सपने, रहे आज तक वे,

उभरते रहे नित, नहीं पर छलकते,

सतत आत्म प्रेरण अकारण नहीं है,

नहीं दीखता हल, निवारण नहीं है,

घुमड़ प्रश्न रह रह, नहीं किन्तु उत्तर,

सतत हूक उठती, मनन में निरन्तर,

तर्कों में घुटते, विषम हो पड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


विशेषों के घेरे, नहीं शेष कुछ था,

सहस्रों स्वरों में, नहीं कोई चुप था,

सकल मर्म जाने, सकल अर्थ समझे,

रहे किन्तु फिर भी विरत आकलन से,

प्रज्ञा पुलकती, समझ तंतु विकसित,

जगतदृष्टि सारी, अहं से सकल सित,

नया पंथ, जाने की हठ में अड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।

19 comments:

  1. Anonymous31/7/22 07:48

    उत्तम स्तर को प्राप्त करती सुन्दर कविता।
    अन्तरमन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति।🙏🙏🙏🌼
    काया हीलअता,बाया रोअता।

    ReplyDelete
  2. Anonymous31/7/22 09:58

    अति सुंदर रचना। जीवन, जन्म से मृत्यु तक शून्य से शून्य तक की यात्रा है।यात्रा कितनी संतुष्टिदायक है यह महत्वपूर्ण है।

    ReplyDelete
  3. Anonymous31/7/22 10:46

    प्रणाम सर
    सर आपकी लेखन शैली की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है।
    सर इन सब लेखनी का एकल संग्रह मिले तो पढ़ने में मज़ा आए।

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर और भवपूर्ण रचना ।

    ReplyDelete
  5. Anonymous31/7/22 12:55

    वाह

    ReplyDelete
  6. Anonymous31/7/22 13:32

    गुन गुन गाते गीत ,कल कल बहता नीर, मध्यम मध्यम चलती पुरवाई,जैसा ही "गीत में रस है ''
    🌻

    ReplyDelete
  7. Anonymous31/7/22 13:44

    बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति/रचना सर

    ReplyDelete
  8. Anonymous31/7/22 15:59

    वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल आत्मपरीक्षण करती हुई, आत्ममुग्धता से विपरीत यथार्थ वादी रचना,धन्यवाद बीन भैया।

    ReplyDelete
  9. आपकी लिखी रचना सोमवार 01 अगस्त 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    ReplyDelete
    Replies
    1. संंगीताजी, बहुत आभार आपका, इस कविता को अपने ब्लाग में स्थान देने के लिये।

      Delete
  10. जहां से चले थे वहीं पे खड़े हैं..जीवन संदर्भों का चिंतन मनन करती सुंदर कविता ।

    ReplyDelete
  11. न रण छोड़ पाये, न रण में लड़े हैं,
    जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।
    ----
    जीवन के उद्देश्य की उलझनों को सुलझाने में लगा मन नित नयी पहेलियों की खोज करता रहता है।
    दार्शनिक भाव समेटे सुंदर सृजन सर।
    सादर।

    ReplyDelete
  12. Anonymous1/8/22 11:42

    बहुत खूब

    ReplyDelete
  13. उहापोह ,असमंजस और नव पंथ की तलाश में कवि हृदय !!सुंदर भाव सम्प्रेषण !!

    ReplyDelete
  14. 'नया पंथ, जाने की हट में अड़े हैं'! वाह..बहुत खूब! प्रवीण जी..इस शानदार सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। सादर।

    ReplyDelete
  15. बहुत सुंदर सृजन।

    विशेषों के घेरे, नहीं शेष कुछ था,
    सहस्रों स्वरों में, नहीं कोई चुप था,
    सकल मर्म जाने, सकल अर्थ समझे
    रहे किन्तु फिर भी विरत आकलन से... निशब्द करता सृजन बहुत सुंदर।
    सादर

    ReplyDelete
  16. वही प्रश्न हैं और उत्तर वही हैं,

    नहीं ज्ञात यह भी, सही या नहीं हैं,

    समस्या भ्रमित, हर दिशा अग्रसर है,

    नहीं प्रश्न निश्चित, समुत्तर इतर है,

    बहे काल कल कल, रहे चित्त चंचल,

    चले आ रहे हैं, विचारों के श्रृंखल,

    चुने कौन समुचित, उहा में पड़े हैं,

    जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।

    बहुत ही लाजवाब, गहन चिंतनपरक उत्कृष्ट सृजन हेतु साधुवाद🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  17. क्या बात है प्रवीण जी।एक सार्थक रचना जो चिंतनपरक है।🙏

    ReplyDelete