जब छूट गया, सब टूट गया,
विधि हर प्रकार से रूठ गया,
मन पृथक, बद्ध, निश्चेष्ट दशा,
सब रुका हुआ हो, तब सहसा,
वह उठता है, बढ़ जाता है,
जीवन जीने चढ़ आता है।
जब घोर अन्ध तम आच्छादित,
सिमटे समस्त उपक्रम बाधित,
जब आगत पंथ विरक्त हुये,
आश्रय अवगुंठ, विभक्त हुये,
तब विकल प्रबल बन जाता है,
जीवन जीने चढ़ आता है।
जब लगता अर्थ विलीन हुये,
जब स्पंदन सब क्षीण हुये,
सब साधे जो, प्रत्यंग विहत,
तब नाभि धरे अमरत्व अनत,
अद्भुत समर्थ, जग जाता है।
जीवन जीने चढ़ आता है।
क्या जानो, कितना है गहरा,
कितना गतिमय, कितना ठहरा,
कब उगता, चढ़ता और अस्त,
कब शिथिल और कब अथक व्यस्त,
बस, साथ नहीं तज पाता है,
जीवन जीने चढ़ आता है।
कितने सुंदर भाव .... हर बार टूट-बिखरकर फ़िर जुड़ जाता जीवन और जीने की जिजीविषा
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बेहतरीन
ReplyDeleteअद्भुत…..
ReplyDeleteबहुत ही यथार्थ पंक्तियाँ, सर।
ReplyDeleteJust amazing. अद्भुत, अकल्पनीय
ReplyDeleteLekin mujhe abhi bhi nahi
ReplyDeleteमेरे लिए अभी की परिस्थितियों के लिए एकदम प्रासंगिक
ReplyDeleteमहेन्द्र जैन
कोयंबटूर
९३६२०९३७४०
अदभुत सदैव के समान सर🙏
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteसही बात ...... जीवन तो चलता ही रहता है ।
ReplyDeleteपूर्ण प्रासंगिक व अद्भूत लयबद्ध।
ReplyDeleteसम सामयिक
ReplyDeleteसुंदर क्या बात है भैया
ReplyDeleteबहुत अच्छा
ReplyDelete🙏बहुत सुंदर हमेशा की तरह👌👌
ReplyDeleteसाधो साधो
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता
ReplyDeleteअर्थपूर्ण रचना !!चलते ही रहना है !!
ReplyDeleteअत्यंत अत्यंत सुंदर!!!!
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