31.7.22

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं


वही प्रश्न हैं और उत्तर वही हैं,

नहीं ज्ञात यह भी, सही या नहीं हैं,

समस्या भ्रमित, हर दिशा अग्रसर है,

नहीं प्रश्न निश्चित, समुत्तर इतर है,

बहे काल कल कल, रहे चित्त चंचल,

चले रहे हैं, विचारों के श्रृंखल,

चुने कौन समुचित, उहा में पड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


संशय, विकल्पों, सतत उलझनों में,

अदृष्टा विनिर्मित घने जंगलों में,

ठिठकते हैं, रुकते हैं, क्रम तोड़ते हैं,

तनिक जोड़ लेते, तनिक छोड़ते हैं,

आगत समय, गत समय में विलीनन,

बहा जा रहा अनमना एक जीवन,

रण छोड़ पाये, रण में लड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


उमड़ते थे सपने, रहे आज तक वे,

उभरते रहे नित, नहीं पर छलकते,

सतत आत्म प्रेरण अकारण नहीं है,

नहीं दीखता हल, निवारण नहीं है,

घुमड़ प्रश्न रह रह, नहीं किन्तु उत्तर,

सतत हूक उठती, मनन में निरन्तर,

तर्कों में घुटते, विषम हो पड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।


विशेषों के घेरे, नहीं शेष कुछ था,

सहस्रों स्वरों में, नहीं कोई चुप था,

सकल मर्म जाने, सकल अर्थ समझे,

रहे किन्तु फिर भी विरत आकलन से,

प्रज्ञा पुलकती, समझ तंतु विकसित,

जगतदृष्टि सारी, अहं से सकल सित,

नया पंथ, जाने की हठ में अड़े हैं,

जहाँ से चले थे, वहीं पर खड़े हैं।

24.7.22

वयं राष्ट्रे जागृयाम


नाद निनाद, सतत उत्थान,

वयं राष्ट्रे जागृयाम।


गति में शक्ति, शक्ति में मति हो,

आवश्यक जो, लब्ध प्रगति हो,

रेल हेतु हो, राष्ट्रोन्नति हो,

नित नित छूने हैं आयाम,

वयं राष्ट्रे जागृयाम।


सहज समेटे, जन मन जोड़े,

भाषा, भूषा अन्तर तोड़े,

अथक अनवरत हर क्षण दौड़े,

रेल राष्ट्र का है अभिमान,

वयं राष्ट्रे जागृयाम।


रेख उकेरे, लौह-गंग सी,

चहुँ दिश बहती, जल तरंग सी,

आह्लादित, कूकी उमंग की,

रेल राष्ट्र का नवल विहान,

वयं राष्ट्रे जागृयाम।


महाकाय, घन, किन्तु व्यवस्थित,

अपनी सीमाओं में प्रस्थित,

चलती रहती सर्व समन्वित

संयत अनुशासित उपमान,

वयं राष्ट्रे जागृयाम।



(यजुर्वेद से उद्धृत "वयं राष्ट्रे जागृयाम" हमारे रेल संस्थान का ध्येय वाक्य है। रचना के बाद उसे संगीतबद्ध और छायांकित करने में संस्थान के प्रशिक्षु अधिकारियों का अद्भुत योगदान रहा है। मनन से प्रकटन तक के प्रकल्प की प्रेरणा संस्थान की महानिदेशिका श्रीमती चन्द्रलेखा मुखर्जी जी से प्राप्त हुयी है)


17.7.22

जीवन जीने चढ़ आता है


जब छूट गया, सब टूट गया,

विधि हर प्रकार से रूठ गया,

मन पृथक, बद्ध, निश्चेष्ट दशा,

सब रुका हुआ हो, तब सहसा,

वह उठता है, बढ़ जाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।


जब घोर अन्ध तम आच्छादित,

सिमटे समस्त उपक्रम बाधित,

जब आगत पंथ विरक्त हुये,

आश्रय अवगुंठ, विभक्त हुये,

तब विकल प्रबल बन जाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।


जब लगता अर्थ विलीन हुये,

जब स्पंदन सब क्षीण हुये,

सब साधे जो, प्रत्यंग विहत,

तब नाभि धरे अमरत्व अनत,

अद्भुत समर्थ, जग जाता है।

जीवन जीने चढ़ आता है।


क्या जानो, कितना है गहरा,

कितना गतिमय, कितना ठहरा,

कब उगता, चढ़ता और अस्त,

कब शिथिल और कब अथक व्यस्त,

बस, साथ नहीं तज पाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।