4.11.21

मित्र - ३९(भेदी और प्राप्ति)

भेदी बनने के कई तुच्छ कारण भी थे। तीन मुख्य कारण पिछले ब्लाग में समझे जा चुके हैं। कुछ और कारण जो पंकज, रवीन्द्र और आलोक ने बताये हैं, उन्हें यथारूप उन्हीं के शब्दों में व्यक्त करना उचित रहेगा।

पंकज कहते हैं कि जितने लोग प्राचार्यजी के सानिध्य में थे, उनमें से अधिकतर हरीराम नाई की भूमिका में रहते थे। संदर्भ बताते चले कि शोले फिल्म में जेलर साहब को सारी सूचनायें पहुँचाने का कार्य हरीराम नाई करते थे। इसका कोई विशेष प्रत्यक्ष कारण तो समझ नहीं आता है पर प्राचार्यजी को यह सब सूचनायें बताकर कोई लाभ लेने के मन्तव्य रहता होगा। संवेदनशील सूचनायें न भी हों, सामान्य सूचनायें भी बताकर विश्वासपात्रता पायी जा सकती है। जहाँ तक हम लोगों को ज्ञात है, प्राचार्यजी से किसी के द्वारा कोई भौतिक लाभ लेने का प्रश्न ही नहीं था। उनके सिद्धान्त अडिग थे और उनमें किसी भी व्युत्थान का किंचित भी स्थान नहीं था। आपके ऐसा करने से उनके मन में अधिकतम यही भाव जग सकते थे कि आप बड़े ही सुसंस्कृत छात्र है, आपके आदर्श बड़े ही उच्च कोटि के हैं और आपके अन्दर कर्मशिथिल और धर्मशिथिल समाज को सुधारने की उत्कट आकांक्षा है। इस छवि के अतिरिक्त यदि कोई किसी अन्य लाभ के लिये उनसे आशा करता था तो वह अत्यन्त मूर्ख था।


प्राचार्यजी के सानिध्य में रहने वालों के लिये सबसे अधिक कुछ लाभ था तो वह उनके सत्संग का लाभ था। पर इसके लिये भेदिये बनने की आवश्यकता नहीं थी, अपने साथियों का अहित करने की आवश्यकता नहीं थी। सत्संग का लाभ तो बिना किसी प्रत्याशा के भी लिया जा सकता था। प्राचार्यजी को रामचरितमानस, गीता, भारतीय संस्कृति, सनातन शास्त्र आदि विषयों में सिद्धहस्तता थी। यद्यपि विशालकक्ष के प्रवचनों में उनकी आशाओं का स्तर अत्यन्त ऊँचा पाकर बहुधा हीनभावना आती थी। बहुधा यह भी लगता था कि जैसे पूरा प्रवचन आपको ही लक्षित कर के कहा जा रहा है, उस समय अटपटा भी लगता था, क्षोभ भी होता था और कदाचित क्रोध भी आता था। जिस समय मन इस उद्वेलित अवस्था में हो तो प्रवचन का सार तत्व आपके हृदय तक पहुँचने से रह जाता है। आप उस निधि का सही अवमूल्यन नहीं कर सकते हैं। अब वही तत्व जब स्वाध्याय के माध्यम से पा रहा हूँ तब उनकी महत्ता समझ आ रही है।


मुझे लगता है कि पूर्वोक्त दोनों ही विचार प्राचार्यजी के सानिध्य में रहने वालों के मन में नहीं होगे। उन्हें न कोई लाभ लेना होगा और न ही कोई सत्संग से जीवन सवाँरना होगा। क्योंकि उनसे लाभ लेना संभव नहीं था और सत्संग सबके लिये समान उपलब्ध था। अपने को छात्रावास की शक्ति संरचना में श्रेष्ठ दिखने का प्रयास ही एक ऐसा कारण दिखता है जो अत्यन्त व्यवहारिक भी है और प्रासंगिक भी। व्यवहारिक इसलिये कि इसमें अधिक श्रम नहीं लगता है, दिन में एक दो बार जाकर सत्ता से अपनी निकटता प्रसारित की जा सकती है। प्रासंगिक इसलिये क्योंकि आजकल सत्ता अपना उतना भौकाल नहीं चमका पाती है जितना उससे अपनी निकटता दिखाने और बताने वाले चमका लेते हैं।


यद्यपि छात्रावास की शक्ति संचरना में ऐसा कुछ था नहीं जिसके लिये इतना भी श्रम करना पड़े। सारी प्रक्रियायें नियमबद्ध थीं, अनुशासन में ढील मिलने का प्रश्न नहीं था और भोजनालय आदि में भी शक्तिसम्पन्नजनों के लिये अतिरिक्त पकवान जैसी भी व्यवस्था नहीं थी। हाँ, बस आपकी सत्ता से निकटता जानकर कोई अन्यथा ही आपसे उलझने का प्रयास नहीं करेगा। कभी कभी आपसे न उलझने का यह भाव उपेक्षा में बदल जाता है। समाज ऐसे शक्ति सम्पन्नों के नखड़े नहीं झेल पाता है। जो भी लोग उनके पास जाते हैं, अपने कार्य हेतु ही जाते हैं। शक्ति के साथ यदि समाज की सेवा का भाव न आया तो वह शक्ति निष्फल है, वह व्यक्ति ठूँठ है। मुझे तो यही लगता है कि जब शक्ति का भाव रक्षा में हो, सहायता में हो तो उसको पाने के लिये भेदी बनने की क्या आवश्यकता क्योंकि उससे अन्ततः वैमनस्य और अपमान ही मिलता है।


रवीन्द्र के शब्दों में, “छात्रावास अधीक्षक आचार्य जी का गुप्तचरतंत्र आज की सीबीआई से भी ज्यादा सुदृढ़ था क्योंकि भेदी बहुत आसानी से मिल जाते थे। जन्म से कोई भेदी नहीं था या मित्रो को दंड दिलवाने में उत्सुक नहीं था लेकिन आचार्य जी के निकटतम आना या कुछ तथाकथित मित्रों की तरह बड़े दम्भ के साथ आचार्य जी के नीले स्कूटर की पीछे वाली सीट पर सहपाठियों को तिरछी नज़र से देखते हुए धूमने जाना शामिल था। चूंकि ये अवसर कुछ ही लोगो को प्राप्त था अतः बाकी किसी का भी भेदी बनना अचंभित करने बाला नही था।”


रवीन्द्र का यह विश्लेषण भेदियों के प्रयत्नों को अपने समाज में एक विशिष्ट स्थान पाने के लिये और उस स्थान का सार्वजिनक आनन्द उठाने के लिये था। यह भेदियों के चरित्र और कृतित्व को विनोद से प्रेरित मानते हैं। यह तो रवीन्द्र के हृदय की विशालता ही कही जायेगी क्योंकि भेदियों के द्वारा पकड़ाये जाने पर रवीन्द्र की व्यक्तिगत रूप से बड़ी हानि हुयी है। कई बार इनके घर पत्र तक लिखे गये हैं।


शेष कारण और आलोक का मत अगले ब्लाग में।

2 comments:

  1. क्या बात है ? प्रवीण जी । हमारे घर में भी कई लोग इस विषय पर परिचर्चा करते हुए दिखते हैं और बहुत ही आनन्द उठाते हैं, पर आपका वर्णन वो भी शुद्ध साहित्यिक भाषा में । अति आनंदम ।

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