भेदी होने के कारण ढूढ़ने बैठा तो एक के बाद एक कई कारण मिलते गये। जैसा कि पिछले ब्लाग में चर्चा की थी कि कोई भी कारण दीर्घकाल में उपयोगी सिद्ध नहीं पाया गया। यदि किसी में संबंधों का दोष था तो किसी में विश्वास का, किसी में स्वामी से मान न मिलने की आशंका थी तो किसी में अलग थलग पड़ जाने भय, किसी में अपमान था तो किसी में स्वयं छले जाने का दोष। फिर भी अल्पकालिक कारणों की चर्चा आवश्यक है क्योंकि बहुधा भेदी अपनी बुद्धि को समुचित प्रयुक्त नहीं कर पाता है, अल्पकालिक लाभ के लिये दीर्घकालिक हानि कर बैठता है।
कहा जा सकता है कि नैतिक कारणों से भेदी अपने कर्मों में बाध्य होता है। सच है, नैतिकता स्थापित करने की बाध्यता किसी से क्या कर्म न करा दे? नियमों का पालन हो यदि यह नैतिकता की परिधि में आता हो तो इसके सुनिश्चित करने की प्रक्रिया भी नैतिकता और नियमों से आबद्ध होनी चाहिये। इस परिप्रेक्ष्य में नैतिकता तो यह कहती है कि सामने वाले को इस बारे में बताया जाये, संकेत दिया जाये या चेतावनी दी जाये जिससे उसे सुधरने का अवसर मिल सके। नियमों के उल्लंघन में नैतिकता के प्रयोग का उद्देश्य तो उसका पालन ही होना चाहिये। सीधे दण्ड व्यवस्था को लागू करवा देना कुछ भी हो सकता है, नैतिकता नहीं।
भेदियों के समर्थक कह सकते हैं कि भेदियों का उद्देश्य तो नैतिकता से प्रेरित था पर उनके अन्दर भय था कि कहीं प्रत्यक्ष कह देने से विवाद न बढ़े, परिणाम अशोभनीय न हो जायें। या नियमों के उल्लंघनकर्ता नैतिकता के वाहकों का अहित न कर बैठें। इस संभावना को एक बार स्वीकार भी किया जाता है क्योंकि आजकल के वातावरण इस प्रकार की कई घटनायें सुनने में आती हैं जब किसी अपराध के साक्षीजनों को क्षति पहुँचायी जाती है। अतः इस दुष्परिणाम को संभावना को ही न आने के उद्देश्य से सीधे भेद बताना श्रेयस्कर है। यह तर्क उस समाज के लिये तो ठीक है जहाँ पर शक्ति असंतुलन अधिक है या अराजकता अधिक है। पर छात्रावास के परिवेश में जहाँ हम सब लगभग एक समान हैं और हम सबके ऊपर एक सशक्त ढण्डकर्ता या विधानकर्ता बैठा है, नैतिकता के निर्वहन में भय का तर्क शिथिल प्रतीत होता है।
भेदियों के हृदय में नैतिक कारण तो कभी नहीं रहता होगा क्योंकि उनके कर्मों में परमार्थ के कोई लक्षण नहीं थे। जिस कारण से भी हों पर समाजसुधार की प्रेरणा से उनके कर्म प्रेरित नहीं थे।
दूसरा कारण, हो सकता था कि ईर्ष्या का हो। ईर्ष्या इस बात की कि हम सब नियम तोड़ कर सुख प्राप्त कर रहे हैं और उनके सुख संचय में शुष्कता है। वैसे तो सुखी को देखकर उससे मित्रता का भाव उत्पन्न होना चाहिये। मित्रता इसलिये कि सीखा जा सके कि कैसे सुख प्राप्त किया जाता है, कैसे उद्योगरत रहा जाता है, कैसे उद्यम किया जाता है और कैसे बु्द्धि का समुचित प्रयोग कर योजना बनायी जाती हैं और आगामी बाधायें पार की जाती हैं। यदि यह सब सीख लिया जाये तो सुख वैसे ही प्राप्त हो जायेगा। इसके स्थान पर ईर्ष्या का भाव मात्र तुलना के कारण आता है, वह प्रसन्न है पर मैं नहीं। तो किस प्रकार से उसकी प्रसन्नता को कम किया जाये? ऐसा नहीं है कि ईर्ष्या में कार्य कम करना पड़ता है या ऊर्जा कम लगती है। ध्यान से देखा जाये तो ईर्ष्या में आप मित्रता से कहीं अधिक कार्य करते हैं। मित्रता तो सरलतम है, बिना अधिक प्रयास के आपका सुख बढ़ जाता है। वहीं दूसरी ओर ईर्ष्या में समय, बुद्धि और ऊर्जा कहीं अधिक लगती है, बस दूसरों का सुख कम करने के लिये।
ईर्ष्या बड़ी बलवती है, आवश्यक न भी हो तब भी आप प्रतियोगिता में खड़े हो जाते हैं। प्रतियोगिता कि सामने वाला अधिक प्रसन्न कैसे है? प्रतियोगिता उस समय तो ठीक होती है जब प्राप्य वस्तु एक ही हो। यहाँ तो हाट खाने की वस्तुओं से भरे पड़े हैं, टाकीजें फिल्मों से पटी पड़ी है, सबके पास व्यय करने के लिये पर्याप्त धन है तो प्रतियोगिता का भाव कैसा? जगत में सुख की भी कमी नहीं है, आप ईर्ष्यावश प्रतियोगिता करेंगे और भेद जाकर अपने स्वामी को बता देंगे तो वह सुख विशेष नहीं रहेगा, कोई दूसरा सुख आ जायेगा। इस तरह के कई प्रकरण छात्रावास में हुये हैं जब भेदियों के कारण एक सुख का मार्ग बन्द कर दिया गया तो हम लोगों ने कोई और लक्ष्य और साधन ढूढ़ लिया।
तीसरा कारण है, कष्ट देने का स्वभाव। यदि कोई स्वभावतः दुष्ट है तो उसका सारा ध्यान इसी बात पर लगा रहेगा कि सामने वाले को कैसे कष्ट दिया जाये। तब उसकी परिधि में मात्र आप ही नहीं आते हो, वे सब आते हैं जो भी उसके संपर्क में रहते हैं। आपके लिये भेद के द्वारा कष्ट उत्पन्न करेगा तो औरों के लिये किसी और कारण से कष्ट पहुँचायेगा। ऐसे लोगों को सुख दुख के बीच का अन्तर ज्ञात नहीं होता है। यह संग “बेर केर को संग” जैसा होता है, “वा डोलत रस आपने, वाके फाटत अंग”। इस तरह के दुष्ट सबके लिये घातक होते हैं, विशेषकर उस स्वामी के लिये भी जिनकी ये सेवा करते हुये प्रतीत होते हैं।
भेदियों के शेष कारण अगले ब्लाग में।
भेदियों के हृदय में नैतिक कारण तो कभी नहीं रहता होगा क्योंकि उनके कर्मों में परमार्थ के कोई लक्षण नहीं थे। जिस कारण से भी हों पर समाजसुधार की प्रेरणा से उनके कर्म प्रेरित नहीं थे।.....वाह.. प्रवीण जी कितना गहन चिंतन किया आपने इस विषय पर । ऐसी कई कहानी हम चाय पर चर्चा के वक्त करते हैं,पर गंभीर नहीं होते ये रोचकता के साथ साथ,समाज के लिए एक चिंतन का विषय है ।
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