भेदियों की कारण-श्रृंखला में एक प्रमुख कारण कृपापात्र बनने का आया। कृपापात्र बनने का प्रयास आगामी लाभ पाने के लिये या हानि से बचने के लिये किया जाता है। वैसे कृपापात्र शब्द का अर्थ अत्यन्त उत्कर्ष लिये हुये है और बहुधा अध्यात्म में ईश्वरीय कृपा के लिये प्रयुक्त होता है। आधुनिक संदर्भों में यह सत्ता के निकट मँडराने वालों का प्रतीक बन गया है।
कृपापात्र बनने में समस्या अनुपात की आती है। आप जितना निवेश करते हैं उससे कहीं अधिक पाने की चाह रखते हैं। ऐसा पर सदैव होता नहीं है। कभी आप यह कहते हुये निराश हो जाते हो या प्रयास छोड़ देते हो या विद्रोही बन जाते हो कि मैंने क्या तक नहीं किया और मुझे मिला क्या? यदि स्वामी के पास देने के लिये पर्याप्त है तो प्रतियोगिता कम होती है नहीं तो कृपापात्रों के द्वारा कुछ भी अर्पण कर देने की स्थिति सी बन जाती है। यह प्रतियोगितायें अत्यन्त रोचक और पूर्ण मनोरंजन के तत्व लिये होती हैं।
कृपापात्र बनने की राह और प्रियतम पाने की राह एक सी हैं। दोनों में ही अपना सर्वस्व तज कर अपने लक्ष्य की रुचियाँ, अभिरुचियाँ, संरुचियाँ आदि समझनी और जीनी पड़ती हैं। भोजन, वेश, शब्द और न जाने कितने तत्व हैं जिससे अपने अभीष्ट का भोग लगाना पड़ता है। वह भी बिना किसी देरी के, “राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था।” ईश्वर का भक्त बनना कठिन है, सतत साधना का मार्ग अपनाना पड़ता है। किन्तु उससे भी अधिक कठिन है आधुनिक संदर्भों में कृपापात्र बनना। यह सबके बस की बात नहीं है क्योंकि भक्ति में ईश्वर को भजने के लिये गुण अधिरोपित करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर गुणों से परिपूर्ण है और उन्हीं गुणों को हम प्राप्त करने के लिये हम उसे भजते हैं। कृपापात्र बनने में पहले स्वामी में गुण ढूढ़ने पड़ते हैं, उनको समाज में प्रचारित और प्रसारित करना पड़ता है और तब गुण को गुणी से मिलाने हेतु स्तुति की जाती है।
कई बार तो स्वामी को यह प्रतीत होना चाहिये कि आपने वह गुण उनके अन्दर खोजा है। उसके पहले तो स्वामी को ज्ञात ही नहीं था कि वह तत्गुणसम्पन्न हैं। भक्ति से दूसरा अन्तर यह आता है कि कृपापात्र अपने स्वामी की स्तुति कुछ और करता है और चाहता कुछ और है। इस कृत्रिमता में जीना तपस्या नहीं तो और क्या है। सामान्यजन और ईर्ष्यालु जिसे नित नित घुटना कहते हैं, कृपापात्री के लिये वह साधना का पथ है। इस विषय का विस्तार और उसका समुचित निस्तार कई अध्यायों में भी नहीं समा पायेगा पर भेदियों के कारण के रूप में इतना ही जानना पर्याप्त है कि छात्रावास के चिंतन में इसे बहुत आदर के भाव में नहीं लिया जाता था वरन एक मानसिक दुर्बलता का प्रतीक माना जाता था। युवा को अपने कर्म पर पूर्ण विश्वास होना चाहिये और जब वह अपनी क्षमता के चरम पर स्वयं पहुँचता है तो उसे हाथ देने वाले लोग मिल ही जाते हैं।
भेदियों के विषय में आलोक के विचार सबसे अलग थे, उन्होंने भेदिये बनने से अधिक भेदिये बनाने की प्रक्रिया को समझाया। उनके शब्दों में “पुलिस जिस तरह भेदियों के साथ कठोरता और प्रलोभन से कार्य करती है, छात्रावास में भेदिये बनाना उसी कला का अंग था। बार बार बुलाकर महत्वपूर्ण और अनुशासित होने का भाव दिलाना, बुराई पर विजय के लिये सच्चाई का साथ देने के लिये प्रेरित करना, मित्रों के साथ किये छल को परम कर्तव्य की संज्ञा देना, इन भावों को बार बार बाल मन पर चढ़ाते रहना, इसी प्रकार की तकनीक प्रयोग में लायी जाती थी और बहुधा सफल भी होती थी।”
देखा जाये तो अनुशासन को लागू करने में कारक बनने का मान दिया जाता था भेदियों को। अनुशासन स्थापित करने के बड़े कार्य में सम्मिलित होने का भाव भेदिये तैयार करता रहा। यह एक ऐसा काम है कि जिसमें मना करना या उत्साह न दिखाना स्वयं में ही अनुशासनहीनता समझी जा सकती थी।
प्राचार्यजी को काण्डों की सूचना तो निश्चित रूप से भेदियों से ही मिलती थी पर छात्रावास अधीक्षक आचार्यजी का एक स्वयं का तन्त्र था। कई बार ढेरों ऐसे काण्ड जो अत्यन्त सावधानी से किये गये, जिनमें किंचित मात्र संशय नहीं रखा गया, जिनकी योजना और क्रियान्वयन में किसी और को भी सम्मिलित नहीं किया गया, उन सबमें भी जब हम लोग पकड़े जाने लगे तो लगने लगा कि छात्रावास के भीतर से कहीं बड़ा तन्त्र बाहर में है। तब मोबाइल और व्हाट्सएप का समय नहीं था कि जिसके माध्यम से उनको सूचना दी जाती। फिर उनको निश्चित रूप से सब कैसे पता चल जाता था, यह आज तक रहस्य है।
जो भी हो, भेदियों ने हमारे कार्य को कठिन और प्रयत्नों को अधिक व्यापक बना दिया था पर साथ ही रोचकता इतनी बढ़ा दी थी कि काण्ड करने में मन लगा ही रहा। आज भी किसी कार्य के सारे संभावित निष्कर्षों की योजना में कल्पना कर लेना और उसके अनुसार योजना में सुधार लाना संभवतः छात्रावास की ही देन है। योजना और क्रियान्वयन में पैनापन भी नहीं आता यदि हम पकड़े नहीं जाते। तब निरन्तर सुधार और विकल्पों जैसे शब्दों को हम समझ भी न पाते। इन सबका श्रेय भेदियों को जाता है। अतः तुलसीदासजी की परम्परा का निर्वाह करते हुये प्रारम्भ में न सही पर अन्त में ही, मैं उन स्वनामधन्य दुष्टमना भेदियों की वन्दना करता हूँ।