शुक्रवार की देर रात की फिल्म का अध्याय असमय अवसान पा चुका था। यह भेद छात्रावास अधीक्षक तक कैसे पहुँचा उसका पता अभी तक नहीं चला। मन की ऊर्जा कार्यविशेष की राह नहीं तकती है, उसे तो जो भी दिशा मिल जाये, जो भी समक्ष राह दिख जाये, वह उसी में बढ़ी चलती है। हमारा पंथ भी इसी सिद्धान्त से प्रेरित था।
व्यक्तियों, वस्तुओं की तरह ही विचारों का अपना कालखण्ड होता है जिसमें वे उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, विकसित होते हैं और अन्ततः अवसान पा जाते हैं। तब उनका स्थान कोई अन्य विचार ले लेता है। अपने प्राधान्य का उछाह और साम्राज्य विचारों ने बहुत देखा है। जिस समय विचार अपने चरम पर होता है उसके चारों ओर संरचनाओं के ताने बाने इस प्रकार बुने जाते हैं मानो वह सदा ही रहने वाला है। जैसे ही वह अस्त होता है उस पर आधारित सारे स्वप्न अवसाद में डूब जाते हैं। हमारा युवा मन संभवतः इस शाश्वत तथ्य को समझता था। हमारी ऊर्जा का कालखण्ड हमारे अस्त हुये विचारों और प्रयोगों से कहीं बड़ा था।
तकनीक का क्षेत्र ऐसा है जिसमें परिवर्तन की गति अधिक है। एक विचार आता है, पल्लवित होता है और प्रयाण कर जाता है। इस शताब्दी में जन्में युवाओं को यदि बताया जाये कि हम लोग वीसीआर में फिल्में देखते थे तो उन्हें साथ में यह भी बताना पड़ेगा कि वीसीआर होता क्या था? यद्यपि आजकल गूगल महाराज पुराने ज्ञान को संजो कर रखे रहते हैं नहीं तो इसकी स्वतः कल्पना करना कठिन होता। इसी प्रकार टीवी आने के समय किसी ने कहाँ सोचा था कि वीसीआर जैसा कोई यन्त्र आयेगा और उसमें फिल्में देखी जा सकेंगी। जिन्होने वह कालखण्ड जिया है वही इसकी रोचकता को समझ सकते हैं और व्यक्त कर सकते हैं।
हमें भी याद है रात रात भर जग कर तीन फिल्में एक के बाद एक देखना। दृश्य, गीत, संवाद और कहानी इस प्रकार मस्तिष्क में गुत्थमगुत्था हो जाते थे कि एक फिल्म के प्रकरण में दूसरी फिल्म कब घुस जाती थी पता ही नहीं चलता था। स्पष्ट याद है उन तीन फिल्मों को चयनित करने में लगे समय, बुद्धि, ऊर्जा और वे विवाद भी जब कोई एक निर्णय नहीं हो पाता था। याद है थकान से पथरायी आँखों में संतुष्टि की रेखायें। साथ ही याद है बड़ी माचिस के आकार के डब्बों में बन्द जीवन्त और रोमांचक कहानियाँ।
हम छात्रावासियों की स्मृति में वीसीआर को लेकर एक और अध्याय जुड़ा था। शुक्रवार के प्रकरण के बाद कुछ ऐसा करना आवश्यक था जिस पर आगामी समय को और आगामी पीढ़ी को अपनी क्षमताओं पर क्षोभ न हो। इतिहास रचने का दायित्वबोध हमें नित नये काण्ड करने की प्रेरणा देता था। वीसीआर जैसे यन्त्र ने अतृप्त साहस को पुनर्जीवित कर दिया।
छात्रावास में वीसीआर मँगाने की योजना बनी। उद्योग करने वाले कुछ न कुछ सीखते रहते हैं, चाहे सफलता मिले या असफलता। वीसीआर लगाने वाले एक बड़े से घनाकार डब्बे में टीवी लाते थे और साथ में एक ब्रीफकेस जिसमें वीसीआर रहता था। बहुधा एक रिक्शे में सारा सामान आता था। रिक्शे को छात्रावास में पूरे उपकरणों के साथ लाना संदेह उत्पन्न कर सकता था। यह निश्चित किया गया कि केवल वीसीआर लाया जायेगा, टीवी स्थानीय ही लगेगा। बाहर के व्यक्ति का छात्रावास परिसर में टहलना भी योजना के लिये ठीक नहीं था अतः उसे लाने और लगाने की सारी व्यवस्थाओं को भी स्थानीय प्रकार से सम्पन्न करना पड़ा। छात्रावास के टीवी में उसे लगाना अनुपयुक्त था अतः छात्रावास सहायक के घर लगा कर देखना निश्चित हुआ।
यह बताना ठीक न रहेगा कि इस प्रकार कुल कितनी फिल्में देखी गयी। इससे व्यर्थ ही आकड़ा विचार से अधिक महत्व पा जाता है। जैसे हर विचार का कालखण्ड होता है, इसका भी पटाक्षेप एक फिल्म विशेष के साथ हो गया। अनुराग बताते हैं कि फिल्म थी देवानन्द की “जानी मेरा नाम” और उस समय गाना चल रहा था, “पल भर के लिये कोई हमें प्यार कर ले”। देवानन्द सारी खिड़कियों और कपाट में झाँक झाँक कर मुख दिखाते हैं और अभिनेत्री सारी खिड़कियाँ और कपाट एक एक कर बन्द करती है। उसी क्रम में सहसा हम देखते हैं कि फिल्म के बाहर उस कक्ष के कपाट में एक दाढ़ी वाले अभिनेता खड़े थे। उनके हाथ में एक सोंटा था। यद्यपि उसी गीत की पंक्तियाँ टीवी में गूँज रही थी पर लग रहा था कि आचार्यजी बोल रहे हों। पंक्तियाँ थी “हमने बहुत तुम्हें छिप छिप कर देखा”।
आगे का वर्णन स्वतः समझने योग्य है। इससे अधिक नाटकीयता से इस प्रकरण का अन्त नहीं हो सकता था। पर क्या करें, हर प्रयोग का एक कालखण्ड होता है, इसका भी था।
इस प्रकार बार बार पकड़ा जाना मन को बहुत खटक रहा था। जानेगें उनके कारकों को भी, अगले ब्लाग में।
ये कर्म अकर्म कुकर्म हम नहीं कर पाए. तब टीवी भी पूरे कैम्पस में एक दो थे और वीसीआर युग परवान नहीं चढ़ पाया था....
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