मन सदा ही कुछ नया चाहता है, स्वयं को अपने स्वरूप से भिन्न रंगना चाहता है। मन को रंगने का उपक्रम मनोरंजन कहलाता है। मनोरंजन मन को सुख देता है, सुख राग उत्पन्न करता है, राग आकर्षण का हेतु है। टीवी के कार्यक्रम आपके अन्दर के मनोरंजन की थाह मापने लगे। प्रचार माध्यम उस आकर्षण को भुनाने लगे, विज्ञापन आपकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने के उद्देश्य से उन कार्यक्रमों के बीच उपस्थित हो जाते जिन पर आपका मन लगा होता है। विज्ञापन मनोरंजन को प्रायोजित करने लगे, मनोहरण करने के लिये। फिल्में, चित्रहार, कथाश्रृंखलायें आदि मनोरंजन के साथ साथ दूरदर्शन की आय का साधन बनने लगीं। सप्ताह में एक के स्थान पर तीन फिल्में और दो चित्रहार हो गये।
बाहर की फिल्म देखने के असफल प्रयासों के प्रकरणों में दबे और क्षुब्ध छात्रावासी हृदयों को दूरदर्शन का यह विस्तार बड़ा ही आनन्द और उत्साह देने वाला था। सहज आशा के प्रवाह में पर शंकाओं की बाधायें खड़ी थी। एक चित्रहार, एक फिल्म और रविवार पूर्वाह्न के कार्यक्रम लगभग स्थिर हो चुके थे। जहाँ शुक्रवार देर रात को आने वाली फिल्म अपनी अनुमानित और अतिरंजित विषयवस्तु के कारण निषिद्ध थी, शनिवार की फिल्म आशा किरण की बनी हुयी थी। जब छात्रावास अधीक्षक का स्पष्ट निर्णय सुना कि एक सप्ताह में एक ही फिल्म देखने की अनुमति मिलेगी तो दुख भी हुआ और संतोष भी। दुख इस बात का दूरदर्शन के द्वारा प्रदत्त आधा मनोरंजन बिना सुख दिये ही व्यर्थ चला जायेगा। संतोष इस बात का था कि कम से कम एक फिल्म तो देखने को मिलेगी। पहले इस बात की संभावना भी रहती थी कि रविवार को कहीं ऐसी फिल्म न आ जाये जिसके लिये अनुमति न मिले। अब लगता था कि दो में कम से कम एक तो अनुमति योग्य होगी ही।
दैवयोग से यह एक ऐसी परिस्थिति थी जिसमें दोनों ही पक्षों को लगता था कि उनकी जीत हुयी थी। एक ही फिल्म होने से उसकी अनुमति मिलने से हमारी विजय, न मिलने से हमारी हार होती थी। यहाँ तीन फिल्में थी, एक प्रतिबन्धित, एक की अनुमति और एक की अनुमति नहीं। इस प्रकार सबके भाग में कुछ न कुछ था। कभी कभी संसाधन बढ़ा देने से दोनों पक्षों को ही विजय की अनुभूति होने लगती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दोनों पक्षों के हाथ में कुछ न कुछ रहने से निष्कर्ष आनन्दमयी और दीर्घकालिक रहते हैं। जब कभी भी किसी विषय पर प्रतिपक्ष से समझौता वार्ता होती है तो आदान प्रदान की स्थितियाँ बनती हैं। आधार सिमटा होने पर या एक ही निश्चित विषय पर कई बार वार्तायें टूट जाने का भय रहता है। जो वस्तु या माँग पानी है, उसके साथ कई और वस्तुओं या माँगों को जोड़ देने से यह संभावना बनी रहती है कि कम से कम मूल माँग तो पूरी हो ही जायेगी। दोनों पक्ष अपनी माँगों पर पीछे जाते हैं, दोनों को एक जीत का भाव रहता है और दोनों को ही संतोष रहता है। आधुनिक प्रबन्धन में वार्तातन्त्र का विकास और क्रियान्वयन एक विशिष्ट विषय है।
समस्या विकल्पों में होती है। विकल्प भ्रमित करते हैं। प्रकृति की जटिलता भी ऐसी है कि हर विकल्प कुछ गुण तो कुछ दोष लिये रहता है। संसाधन इतने नहीं रहते हैं कि सारे विकल्प प्राप्त किये जा सकें। हमारे लिये जब एक ही फिल्म देखने की अनुमति रहती थी तो प्रश्न इस बात का उठता था कि कौन सी फिल्म देखी जाये, शनिवार की या रविवार की? तुलना बड़ी घातक होती है, एक को दूसरे से लड़ाती है। सप्ताहान्त में आने वाली दो फिल्मों ने कभी नहीं सोचा होगा कि छात्रावासी बैठकर उनके गुणदोषों का निर्धारण करेंगे कि कौन सी देखी जाये, कौन सी नहीं? तब कई स्वर बौद्धिक उठते हैं, कई अपने अनुभव से बात करते हैं, कई केवल अभिनेता या अभिनेत्री के नाम पर मुग्ध रहते हैं। कुल मिलाकर एक कार्य मिल जाता है कि क्या देखें और क्या नहीं? कुछ कहते हैं कि शनिवार की ही देख लो, पता नहीं रविवार को बिजली आये न आये? देखा जाये तो यह भी अत्यन्त व्यवहारिक दृष्टिकोण है कि जो हाथ में है, उसे भोग लो।
कभी कभी बच्चे किसी खिलौने आदि की माँग करते हैं तो बुद्धिमान अभिभावक उन्हें दो तीन और विकल्प बताकर चिन्तन में ठेल देते हैं। बच्चों को भी लगता होगा कि उनके अभिभावक उनके बारे में इतना अधिक सोचते हैं। इस प्रकार के भ्रम उत्पन्न कर कभी कभी बच्चों से विकल्पों का खेल खेला जाता है। “पर शर्माजी के बच्चे टिंकू का यही खिलौना तो दो दिन में टूट गया था”, एक और गुगली और निर्णय प्रक्रिया में बच्चा जूझता रहता है। हमें कभी कभी लगता था कि एक फिल्म का विकल्प देकर हमारी सम्मिलित निर्णय प्रक्रिया में विभ्रम उत्पन्न करने का प्रयास किया जा रहा था।
समस्या तब आती है जब आपने विकल्प ठीक से नहीं चुना। प्रश्नपत्र में यदि विकल्प वाले प्रश्न में दुर्भाग्यवश अंक नहीं मिले तो दुख के साथ क्रोध इस बात पर आता है कि दूसरा प्रश्न हल कर लेना चाहिये था। परीक्षाओं में विकल्प को भी एक प्रश्न के रूप में लेना चाहिये। ८ में से ५ प्रश्न करना, यह सुविधा कम, दुविधा अधिक होती है। या तो ३ प्रश्न अत्यन्त कठिन हों तो शेष ५ प्रश्न सरलता से चुने जा सकते हैं। यदि सारे प्रश्न एक ही स्तर के हों तो विकल्प दुविधा बढ़ा जाते हैं। बहुधा ऐसे ५ प्रश्न चुन लिये जाते हैं जो कि अन्ततः हानिप्रद होते हैं।
एक फिल्म चुनने के प्रयास में हमारे साथ कई बार ऐसा हुआ। जिसे अच्छी फिल्म विचार कर देखा उसमें निराशा हुयी। देखा जाये तो यह निराशा भी मायावी थी, मानसिक थी। जब तक दोनों फिल्म नहीं देखी जायें तब तक इस बात का निर्णय कैसे होगा कि कौन सी फिल्म अच्छी है? जिस प्रकार लोग किसी और के सुखों कर देखकर व्यर्थ ही दुखी होते रहते हैं उसी प्रकार हम लोग भी न देखी हुयी फिल्म को देखी हुयी फिल्म से अच्छा मानकर दुखी हो लेते थे।
फिर भी अनपाये को पाने का प्रयास कुछ छात्रावासियों न कभी छोड़ा ही नहीं। कुछ अनुमति वाली फिल्म तो देखते ही थे। साथ ही साथ जिसकी अनुमति नहीं मिलती थी उसे भी निपटा आते थे। कई बार जब शुक्रवार की फिल्म देखने के प्रयास हुये तब जाकर लगा कि हम सबके अन्दर फिल्म का आनन्द उठाने की इच्छा अदम्य है।
प्रयासों की न समाप्त होने वाली यही उर्ध्वाग्नि अगले ब्लाग में।
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