अनवरत रत, पथ चली शत,
जीवनी रुक गयी मानो।
प्रबल कल कल, सकल उद्धत,
ऊर्जा चुक गयी मानो।
विषय अनगिन किन्तु मन का,
सिकुड़ता विस्तार सहसा।
प्राप्त सब जो प्राप्य लगता,
अकर्मक आधार सहसा।
क्या प्रयोजन, क्यों अकारण,
कौन से संकेत भ्रमवत।
क्यों नहीं स्पष्ट धारण,
काल के आदेश भ्रमवत।
समय के रुक गये जल की,
गंध रह रह सताती है ।
विकल गति छटपटाती है ।
सुप्त होकर अनमनी सी,
समय यूँ ही बिताती है ।।
रुके जल को धार दे दो,
प्रगति का आसार दे दो ।
निराशा से रुग्ण मन को,
मुक्ति का उपहार दे दो ।।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteवाह !!! अति सुंदर भाव !!!
ReplyDeleteक्या प्रयोजन, क्यों अकारण,
ReplyDeleteकौन से संकेत भ्रमवत।
क्यों नहीं स्पष्ट धारण,
काल के आदेश भ्रमवत।
भ्रम के झंझावातों में उलझा मन मुक्ति को आतुर
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब सृजन।
बहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteआधुनिक हिंदी की छाप
और आज के दौर का यथार्थ चित्रण