शब्द भाव-गाम्भीर्य समझने में होते असमर्थ,
व्यर्थ ही डूबा जाता अर्थ ।
कल्पना को चित्रित कर सके,
वाक्य में ऐसी अब सामर्थ्य कहाँ है ?
मनुज के भावों से रसहीन,
आज यह कविता सुख बेकार,
पुनः है काव्य खड़ा लाचार ।
अनुभवों को चित्रित कर सके,
आज रचना में ऐसी धार कहाँ है ?
न हो ज्यादा विस्तार,
सहज हो अनुपम हो सौन्दर्य,
स्वतः ही छलके जो तात्पर्य ।
प्रयत्नों को निष्फल कर सके,
प्रकृति में वह जीवित बल वेग कहाँ है ?
मन के रोगों का उपचार,
मनुज के जीवन का आधार,
जहाँ है काव्य शाख विस्तार ।
अब काव्य पिपासा त्याग सके,
मानव में वह अधिकार कहाँ है ?
कवि मन की पीड़ा और अभिव्यंजना करती सुंदर उत्कृष्ट रचना । प्रवीण जी आपको बहुत शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteकल्पना और यथार्थ के बीच झूलता कवि ह्रदय लाचार नहीं हो सकता कविता अपना मार्ग ढूंढ ही लेती है !! उत्कृष्ट सृजन !!
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