25.9.21

जय कोटि जनों की अभिलाषा


(जब जब जनाधिकारों का हनन होता है, मन चीत्कार कर उठता है। आज पड़ोस में पुनः वही हो रहा है जो ३२ वर्ष पूर्व चीन के थियानमेन चौक पर हुआ था। तब के व्यक्त युवामन के उद्गार आज भी प्रासंगिक हैं।)

 

भड़काओ लोकतन्त्र ज्वाला, यह सारा राज्य तुम्हारा है ।

यह धरती क्या, यह अम्बर क्या, सारा ब्रम्हाण्ड तुम्हारा है ।।१।।

बस एक अकेले माओ के, तुम दास न यारों अब होना ।

अपने सिद्धान्त बना डालो, तुम अपनी नैया खुद खेना ।।२।।

 

युग परिवर्तित, जग परिवर्तित, ये नीति क्यों स्थिर रह जायें ।

आओ सूखा सा वृक्ष गिरा, एक उत्तम पौध लगा जायें ।।३।।

सरिता बहती, बहता समीर, चलना युग शाश्वत धर्म सदा ।

स्थिर तडाग में, रुकी वायु में नहीं जीवनी शक्ति सदा ।।४।।

 

है परिवर्तन जीवन लक्षण, सिद्धान्त काल से सत्यापित ।

फिर नीति क्यों शाश्वत माने हम, जिस पर है जीवन आधारित ।।५।।

भेड़चाल में नहीं चलो, तुम अपनी राह स्वयं खोजो ।

मस्तिष्क तुम्हारे साथ सदा, अपने सिद्धान्त स्वयं सोचो ।।६।।

 

हो मानवता से परिपूर्णित, स्वछन्द रूप से कार्य करो ।

जिसमें तेरे ही भाव जगें, एक ऐसा गढ़ तैयार करो ।।७।।

शासक का जीना प्रजा हेतु, यह राजधर्म की परिभाषा ।

उस पर निर्भर सारा समाज, जय कोटि जनों की अभिलाषा ।।८।।

 

रे चीन देश के राजाओं, निज देश दमन क्यों कर डाला ।

राजधर्म की सत्यनिष्ठता को तुमने झुठला डाला  ।।९।।

सारा समाज विपरीत खड़ा, जब लोकतन्त्र को पाने में ।

लेकिन तुमने कुछ सुनी नहीं, बस अपना रौब जमाने में ।।१०।।

 

तुमने आवाज सुनी होती, इन मानवता के कानों से ।

माओ का चश्मा आँख लगा पर तूने की मनमाने से ।११।। 

पराधीन हो मन से भी, यह तुमने आज दिखा डाला ।

वर्षों की मेहनत का रूपक, निज जीवन वृक्ष सुखा डाला ।।१२।।

 

तुमने चलवाये टैंक तोप, जनता बिल्कुल असहाय खड़ी ।

तुमने मरवाये मानव क्यों, करवायी भूल नितान्त बड़ी ।।१३।।

जिसको तुम दाबोगे जितना, वह द्विगुण वेग से फूटेगा ।

जो आज बनी है चिन्गारी, वह ज्वाला बनकर फूटेगा ।।१४।।

 

अत्युत्तम आज यही होगा, फूँको नवजीवन नातों में ।

तज देश ग्रहण सन्यास करो, अब लोकतन्त्र के हाथों में ।।१५।।

जीवन की खोयी निष्ठा को, तुम फिर से आज जिला डालो ।

तुम राष्ट्र बगीचे में सुन्दर से, मानव पुष्प खिला डालो ।।१६।।


12 comments:

  1. आन्दोलित करता आह्वान गीत।

    ReplyDelete
  2. भेड़चाल में नहीं चलो, तुम अपनी राह स्वयं खोजो ।
    मस्तिष्क तुम्हारे साथ सदा, अपने सिद्धान्त स्वयं सोचो
    समसामयिक प्रासंगिक सुंदर कविता !!

    ReplyDelete
  3. इसे गाइए अब।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी दीदी, शीघ्र ही गायेंगे। क्रम टूट गया है।

      Delete
  4. सही दिशा दिखाते प्रेरक स्वर,कितना अच्छा हो मुखर हो कर गूँजने लगें!

    ReplyDelete

  5. भड़काओ लोकतन्त्र ज्वाला, यह सारा राज्य तुम्हारा है ।

    यह धरती क्या, यह अम्बर क्या, सारा ब्रम्हाण्ड तुम्हारा है ।।.. लोकतंत्र का सुंदर जयघोष करती समसामयिक रचना ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका जिज्ञासाजी।

      Delete