धर्मकेन्द्रित निर्णय प्रक्रिया राम के व्यक्तित्व का सशक्त हस्ताक्षर रही है। इस तथ्य को माँ कौशल्या भी जानती थी और लक्ष्मण भी। राम को धर्म की सीमित व्याख्या में उलझाना असम्भव था। राम तो धर्म के उदात्त परिप्रेक्ष्य और मौलिक सिद्धान्तों से अपने निर्णयों को बल प्रदान करते थे।
जैसे ही राम ने अपना अभिप्राय स्पष्ट किया, लक्ष्मण को यह समझ आ गया कि राम क्षात्रधर्म की सीमित व्याख्या को स्वीकार नहीं करेंगे। राज्य हस्तगत कर सुदृढ़ धर्म के द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन राम के विकल्पों में नहीं था। राम धर्म की “धारण करने वाली” परिभाषा पर अपना निर्णय आधारित कर रहे थे। किसी भी विषय में नियम, उपनियम, कर्तव्य, परम्परा आदि मूल सिद्धान्त से बड़े नहीं हो सकते। जहाँ दो कर्तव्यों में संशय हो, विकल्प हो वहाँ मूल सिद्धान्त का अनुप्रयोग ही निष्कर्ष देता है।
राम ने सत्य को धर्म के मूल सिद्धान्त के रूप में चुना था। सहजीवन का आधार ही सत्य है। बिना सत्य के वह आधार ही नहीं बनता है जिस पर जन एक दूसरे पर विश्वास कर सकें। तब नियमों, राजाज्ञाओं, आश्वासनों, घोषणाओं आदि का क्या मोल, जब उनके पालन का दृढ़ विश्वास ही न हो। जब व्यक्ति के वचनों का ही मोल न हो तब उस व्यक्ति का क्या मोल? अवसरवादिता यदि सर चढ़कर बोलेगी तो कौन निर्बल की रक्षा करेगा, कौन दुखी को आश्रय देगा, कौन समाज की उथल पुथल को स्थायित्व देगा?
लक्ष्मण अग्रज के भावों को जानते थे और यह भी जानते थे राम के निर्णय कभी भावनात्मक नहीं होते हैं। राम का पिता दशरथ से स्नेह है, उनके प्रति आदर है, पर यह निर्णय राम ने धर्म के मूल “सत्य” के सिद्धान्त पर लिया है।
कर्मफल में प्रदत्त परिस्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों का ही समावेश होता है। जिस परिस्थिति में कैकेयी का चिन्तन तमप्रेरित था और लक्ष्मण रजस मनोवृत्ति से सोच रहे थे उसी परिस्थिति में राम सात्विकता से विचार कर रहे थे। एक ही परिस्थिति में धर्म, अर्थ और काम की प्रवृत्तियाँ क्रमशः राम, लक्ष्मण और कैकेयी में दृष्टव्य थीं। निर्णय प्रक्रिया के विकल्पों के बारे में राम ने अपना मत स्पष्ट कर दिया था। यदि निर्णय के विकल्पों में धर्म का लेशमात्र भी उपस्थिति नहीं है तो वह राम के लिये त्याज्य है। निर्णयों के चयनित विकल्प वही हो सकते हैं जिसमें धर्म, अर्थ और काम, तीनों ही हों। उन शेष विकल्पों में राम अर्थकेन्द्रित और कामकेन्द्रित विकल्पों से अधिक महत्व धर्मकेन्द्रित विकल्पों को देते हैं। उस पर भी धर्म के विभिन्न स्तरों पर उनका आश्रय धर्म के मौलिक सिद्धान्तों पर रहता है। यहाँ सत्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।
लक्ष्मण राम का मन्तव्य जानते थे और यह भी जानते थे कि समाज की संरचना धर्म के इन्हीं सिद्धान्तों पर दृढ़ टिकी रह सकती है। राम ने धर्म, अर्थ और काम की इस समावेशी व्याख्या में भार्या का उदाहरण दिया था। भार्या धर्म, अर्थ, और काम, तीनों ही रूप में रहती है। अतिथि सत्कार, पोषण, पाचन आदि व्यवस्थाओं में वह अर्धांगिनी बन धर्म के पालन में सहायक होती है। माँ के रूप में परिवार के पालन और संचलन में वह अर्थ के पालन में कर्तव्य निभाती है। प्रेयसी रूप में वह पति के साथ परस्पर काम भी साधती है। अन्य दोनों का समावेश होने पर भी यह एक धर्मकेन्द्रित व्यवस्था है। अन्य मानवीय समाजों की कामकेन्द्रित और अर्थकेन्द्रित व्यवस्थाओं में कहाँ ऐसी समावेशी प्रवृत्ति देखी जाती है जो सबको जोड़कर चल सके, सबको धारण कर वढ़ सके, धर्म रूप में प्रस्तुत हो सके।
यद्यपि लक्ष्मण राम का अभिप्राय समझ गये थे पर उनका मूल प्रश्न अभी तक अनुत्तरित था। लक्ष्मण की आँखों में अभी तक प्रश्न थे। माँ कौशल्या निराशा में डूब विलाप कर रही थी पर लक्ष्मण अपना उत्तर पाने की प्रतीक्षा में स्थिर खड़े थे। उनके भाव राम के निर्णय को तो स्वीकार कर चुके थे पर दशरथ और कैकेयी के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
राम समझ जाते हैं कि लक्ष्मण संतुष्ट नहीं हैं। न चाह कर उन्हें उस विषय पर आना ही होगा। पर उसके पहले लक्ष्मण को सान्त्वना देनी होगी। राम के प्रति हो रहे अन्याय से लक्ष्मण एक विशेष अमर्ष से भरे हुये थे। क्रोध से उनके नेत्र और नाक फैल रहे थे। धर्म की व्याख्या करने पर भी और अपना अभिप्राय समझाने पर भी उन्हें यह निर्णय स्वीकार नहीं हो रहा था। राम आगे बढ़ते हैं, दोनों हाथों से लक्ष्मण के कन्धे पकड़ कर सस्नेह कहते हैं। अनुज, धैर्य धरो, मन के शोक और क्रोध को दूर करो, चित्त से अपमान के भावना को निकाल दो। कोई भी ऐसा कार्य मत करो जिससे मेरे वनगमन में बाधा उत्पन्न हो।
अनुज, मैं नहीं चाहता कि माँ कैकेयी के मन में कोई भी ऐसी शंका न रह जाये जिससे उनको शोक हो। पिताजी भी सदा सत्यवादी रहे हैं और परलोक के प्रति भयग्रस्त रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरे अयोध्या में अधिक समय रहने से उनकी सत्यप्रतिष्ठा में कोई आँच आये।
लक्ष्मण, तुम्हारा कथन सत्य है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी किसी माँ के प्रति या पिताजी के प्रति कोई छोटा सा भी अपराध किया हो। मुझे यह भी याद नहीं है कि आज तक पिताजी ने कभी भी मुझे प्रसन्न होकर न देखा हो। मेरी माँ कैकेयी का मेरे प्रति स्नेह सदा ही भरत से भी अधिक रहा है। उन्होंने तो हर बार बढ़कर अपने राम को मान दिया है, अपने राम के वचनों को मान दिया है।
आज सब भिन्न है लक्ष्मण। जो माँ कैकेयी सदा ही ऐश्वर्य में रही, उत्तम स्वभाव और श्रेष्ठ गुणों से युक्त उदारमना रही, आज वही एक साधारण स्त्री की भाँति अपने अधिकारों के लिये पिता को शोकसंतप्त कर रही है, कटुवचन बोलकर पिता का हृदय विदीर्ण कर रही है। जिसके ममत्व में मेरा मन आनन्दित होता था वही माँ मुझसे आज कुटिलता और कठोरता से बात कर रही है। पिताजी जो कभी मुझे देखकर बिना प्रसन्न हुये रह नहीं पाते थे और मेरे तनिक से दुख में विह्वल हो जाते थे, वह मुझसे बात तक नहीं कर रहे हैं। यही तो दैव है लक्ष्मण।
मेरे अनुसार माँ कैकेयी का यह विपरीत व्यवहार और मुझे वन भेजकर पीड़ा देने का विचार दैव का ही विधान है। जिसके विषय में कभी कुछ सोचा न गया हो, वही दैव का विधान है। प्राणियों और देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं है जो दैव के विधान को मिटा सके। अतः उसी की प्रेरणा से मेरे राज्याभिषेक और माँ कैकेयी की बुद्धि में यह विपरीत व्यवहार हुआ है।
दैव का पता तो कर्मफल प्राप्त होने पर ही चलता है, उससे अन्यत्र उसका पता ही नहीं चलता है। उस दैव से कौन युद्ध कर सकता है? जिसका कोई कारण समझ में न आये, समझो दैव के कारण है। उग्र तपस्वी ऋषि भी दैव के कारण अपने तीव्र नियमों को छोड़ देते हैं, काम क्रोध से विवश हो मर्यादा से भ्रष्ट हो जाते हैं। अतः प्रिय लक्ष्मण, इस तर्क पर मन स्थिर करो और दुखी न हो।
मेरे लिये शोक न करो। मेरे लिये राज्य और वनवास, दोनों ही समान है। अपितु विशेष विचार करने पर वनवास अधिक अभ्युदयकारी प्रतीत होता है। लक्ष्मण मेरे राज्याभिषेक में जो विघ्न आया है, उसमें न माँ कैकेयी कारण हैं और न ही पिताजी कारण हैं। तुम तो दैव और उसके अद्भुत प्रभाव को जानते ही हो, बस वही कारण है। यह कहकर राम शान्त हो गये।
लक्ष्मण अभी भी क्रोध में थे पर राम के संस्पर्श से सहज हो गये थे। राम का सहजता से माँ कैकेयी और पिता दशरथ को दोषमुक्त करने का भाव लक्ष्मण को और भी उद्वेलित कर रहा था। सबका अन्याय अपने ऊपर लेने के राम के यह भाव और उनकी अपार सहनशीलता लक्ष्मण को व्यथित कर देती थी। लक्ष्मण यह तथ्य जानते थे कि राम अद्भुत वीर है फिर भी उनका क्षत्रियोचित व्यवहार न करना लक्ष्मण को विचित्र लगता था।
लक्ष्मण का बात अभी समाप्त नहीं हुयी थी।
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (24-09-2021) को "तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?" (चर्चा अंक- 4197) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
मीनाजी, आपका बहुत आभार।
Deleteसूक्ष्म अध्ययन और सुंदर वर्णन !!संग्रहणीय आलेख !!
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत सुंदर विवेचना परम पुरुष भी दैव योग से नहीं बच पाये ।
ReplyDeleteया ये स्थापित करना भी मकसद रहा होगा कि जब को कर्मगति भोगनी हैती है।
जी, दैवयोग तो सबको ही सहना होता है।
Deleteमेरे अनुसार माँ कैकेयी का यह विपरीत व्यवहार और मुझे वन भेजकर पीड़ा देने का विचार दैव का ही विधान है।
ReplyDeleteऔर दैव विधान को टालकर स्वयं देव ने मनुष्यता निभाई...और उसी में सर्वहित समाहित को चरितार्थ किया।
लाजवाब विवेचना।
जी, कभी कभी स्वीकार करने में पीड़ा कम हो जाती है।
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