अन्दर से उठता हुआ धूम्र, घुटता मन, बढ़ती शेष आस,
नवशमित भ्रमितवत अर्धचित्त, अन्तरमन की उन्मुक्त प्यास ।
इंगित करती जीवन रेखा, क्रमरहित, रुद्ध, हत वाणी को,
कुंठित मन से अभिशप्त रहे जीवन की करुण कहानी को ।।१।।
मनतंतु तभी से व्यथित हुये, जब आदर्शों की मार हुयी,
एक शांत मंद स्थिर मन में, संयम वीणा झंकार हुयी ।
पाने अपनाने नवजीवन, सारा संचितक्रम टूट गया,
इन नदियों में बहते बहते, जीवन मुझसे ही छूट गया ।।२।।
दो पक्ष बना अपने मन में, शंकाओं से संग्राम किया,
अपने तर्कों से लड़ लड़कर, अपना जीवन क्षयमान किया ।
दिनकर सी दिव्य ज्योति चाही, पर प्राप्त रहा एक हृदय दग्ध,
था अभिलासित नभ का विचरण, बैठा शापित बन विहग बद्ध ।।३।।
स्वयं का चिंतन मनन । भावनाओं लयबद्ध संप्रेषण ।बहुत सुंदर सार्थक रचना ।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका।
Deleteदग्ध हृदय की पीड़ा बखूबी उकेरी है!!सुन्दर रचना!!
ReplyDeleteजी, आभार अनुपमाजी।
Deleteबहुत बढियां सृजन, दर्शन से ओतप्रोत
ReplyDeleteआभार भारतीजी।
Deleteदो पक्ष बना अपने मन में, शंकाओं से संग्राम किया,
ReplyDeleteअपने तर्कों से लड़ लड़कर, अपना जीवन क्षयमान किया ।
पूरी रचना बहुत खूबसूरत । बेहद शालीन ।
जी बहुत आभार आपका, उत्साहवर्धन के लिये।
Deleteमहाजीवन द्वंद्वों के पर जाकर मिलता है, दो पक्ष बनाकर तो स्वयं ही स्वयं को घायल करता है मन, मन के पार जाना ही साधना का लक्ष्य है
ReplyDeleteजी सच कहा आपने, अपने और अपनों से ही लड़ने में जीवन बीत जाता है।
Deleteआपकी लिखी पुरानी रचना सोमवार. 20 सितंबर 2021 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत आभार आपका संगीताजी।
Deleteअति सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteआभार आपका अमृताजी।
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