माँ कौशल्या को लक्ष्य कर दिये गये तर्कों से लक्ष्मण ने धर्म और कुल के रक्षक के रूप में दशरथ पर प्रश्न उठा दिया था। लक्ष्मण के लिये पिता की न्यायप्रियता संशयात्मक सिद्ध कर अब उसका कारण देना आवश्यक हो गया था। दशरथ सदा ही धर्म और कुल की प्रतिष्ठा के वाहक रहे हैं और उन्होंने कभी भी जन सामान्य को इसका अवसर नहीं दिया है कि उनके लिये हुये निर्णयों में कोई न्यूनता दिखा सके। सभा में आये किसी प्रश्न पर सबकी मन्त्रणा सुनकर और अन्त में गुरु वशिष्ठ से धर्म की गूढ़ व्याख्या समाहित कर निर्णय लेने के क्रम ने दशरथ की छवि एक सुदृढ़ धर्मपालक के रूप में स्थापित कर दी थी। संभवतः प्रक्रिया का प्रभाव था कि धर्मशास्त्रों में वर्णित समस्त पक्ष निर्णय लेने में विश्लेषित किये जाते थे। राम को युवराज बनाने का निर्णय भी दशरथ ने इसी प्रकार लिया था, सभा के सभी मन्त्रियों ने और और गुरु वशिष्ठ ने उसका समर्थन किया था।
राजा बद्ध होता है उन आधारों पर जिन पर आधारित प्रशासन व्यवस्था की सहमति उसने अपनी प्रजा से की होती है। राज्य के संचलन और राजधर्म के निर्वहन का आधार उदात्त वैदिक सिद्धान्त रहे हैं जिसमें सबको समाहित कर लेने की मन्त्र सर्वत्र विद्यमान हैं। जन, पशु, वनस्पति, सबके प्रति तो न्याय के सूत्र संकलित हैं शास्त्रों में। इस बारे में बहुधा संशय नहीं रहता है यदि फिर भी कोई विषम परिस्थिति सामने आती थी तो पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा लिये गये निर्णय एक संदर्भ के रूप में कार्य करते थे। सहत्रों वर्षों से प्रशासनिक और सामाजिक स्मृति में सतत संचित उन्हीं निर्णयों को कुल परम्परा का नाम दिया गया है। कुल परम्परा राज्य के लिये थी, परिवारों के लिये थी, गुरुकुलों के लिये थी। कुल परम्परा एक बौद्धिक धरोहर थी जो जीवन के मानदण्डों को तनिक भी गिरने नहीं देती थी।
लक्ष्मण को ज्ञात था कि व्यक्ति से बड़ा समाज, समाज से बड़ा राज्य होता है। व्यक्ति के रूप में लिये निर्णय यदि राज्य को प्रभावित करें तो वह दिशा और दशा अनर्थकारी हो जायेगी। राजा के रूप में लिये निर्णय यदि धर्म और कुल दोनों का ही अहित करें तो उनका औचित्य प्रश्न आमन्त्रित करता है। राम को युवराज बनाने का निर्णय प्रशासनिक प्रक्रिया से लिया गया था, उसमें सारे संबद्ध पक्षों से चर्चा की गयी थी। वहीं दूसरी ओर राम को वन भेजने का निर्णय पूर्णतया व्यक्तिगत था, वहाँ राजा दशरथ ने किसी से विमर्श क्यों नहीं किया?
लक्ष्मण कैकेयी के वरों के प्रति दशरथ के मौन समर्थन को एक व्यक्ति के रूप में लिया हुआ निर्णय मान रहे थे। इस परिप्रेक्ष्य में राजा दशरथ की विवशता और बाध्यता सर्वविदित थी। कोई उस अप्रिय सत्य को व्यक्त कर राजपरिवार का वातावरण भारी नहीं करना चाहता था। सब यही चाहते थे कि राजा की मानसिक विवशताओं का दुष्प्रभाव सीमित रहे। आज सहसा वह मानसिक दुर्बलता अपनी मर्यादा लाँघ कर राम पर, राज्य पर, धर्म पर और कुल के मान पर चढ़ी आ रही है। अब यह आवश्यक हो गया है कि उस सत्य को कहा जाये।
आज तो सत्य का दिन ही कहा जायेगा, कैकेयी का सत्य प्रकट हुआ, दशरथ की विवशता का सत्य प्रकट हुआ और अभी कुछ क्षण पहले माँ कौशल्या ने भी राजपरिवार में चली आ रही प्रतिस्पर्धात्मक वेदनीय स्थितियों का सत्य प्रकट हुआ। यद्यपि बड़ी माँ ने इस बारे में अधिक कुछ नहीं कहा पर सत्य तो प्रकट हो ही गया आज, कहाँ छिप सका। प्रबल वेदना के क्षणों में यह विशेष सामर्थ्य होती है कि वे सत्य को पिघला कर सामने ला देते हैं। लक्ष्मण ने भी मन में वर्षों से रखे सत्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने का निश्चय किया। लक्ष्मण जानते थे उनके द्वारा व्यक्त सत्य माँ कौशल्या के प्रति भी संवेदना प्रकट करेगा। भैया राम से पिता की निंदा या दोष-कथन करना अमर्यादित होगा। माँ से ही पिता के दोषों को कहा जा सकता है। यह विचार कर और बड़ी माँ को ही लक्ष्य कर लक्ष्मण ने पुनः कहना प्रारम्भ किया।
बड़ी माँ, एक राजा के रूप में न सही पर एक पिता के रूप में पुत्र की रक्षा का दायित्व भी तो महाराज का है। पुत्र के साथ अन्याय हो और पिता उसका प्रतिकार न कर पाये, यह व्यक्तित्व की विवशता को दिखाता है। कौन सी ऐसी महत्वपूर्ण बात है जिसके कारण पिता अपने पुत्र को योगक्षेम सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं। पुत्र जो उनका प्रिय है, आज्ञाकारी है, सुशील है, सौम्य है, विनम्र है, मर्यादित है, उसकी भी रक्षा न कर पाने की विवशता क्यों है पिताजी को।
बड़ी माँ, पिताजी कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध खो बैठे हैं। एक तो वह वृद्ध हैं और उस पर भी विषयों ने उन्हें अपने वश में कर लिया है। इस स्थिति में माँ कैकेयी उनसे कुछ भी करा सकती है। यह निर्णय तो उस अविवेकी अवस्था का प्रारम्भ भर है। आगे क्या अनर्थ होने वाला है इसकी कल्पना करना कठिन है।
लक्ष्मण का सपाट और स्पष्ट रूप से पिता को कामी और स्त्रीवशी कहने से पहले से ही शोक डूबा परिवेश और भी स्तब्ध हो गया। इस विषय पर लक्ष्मण कुछ और भी कहना चाह रहे थे पर वह उन्हें आवश्यक नहीं लगा। सत्य यही था पर घोर अप्रिय होने के कारण माँ कौशल्या निश्चय रूप से आहत हुयी थी। मर्यादा लाँघ कर दूसरी ओर खड़े लक्ष्मण के लिये अप्रिय सत्य की पीड़ा को और बढ़ाना अनावश्यक लगा। आगे क्या करना है उस कर्म को सुनिश्चित कर लक्ष्मण राम से प्रार्थना की।
भैया, प्रतिज्ञा की बात या वन जाने की बात किसी और को ज्ञात नहीं है। राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले लो। इस विषय में जो भी भरत का पक्ष लेगा, मैं उसका वध कर दूँगा, वह भले ही पिताजी ही क्यों न हों।
लक्ष्मण क्रोध में थे, युद्ध की स्थिति में पिताजी को भी मार डालने तक को तैयार हो जाने की मनःस्थिति सामान्य नहीं थी। लक्ष्मण के भीतर का दुख विस्फोटित हो चुका था। राम को अब कुछ कहना आवश्यक था।
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