लक्ष्मण के पास अपनी बात प्रारम्भ करने के लिये दो विकल्प थे। पहला था राम से अपने स्नेह का आधार लेकर उनसे प्रार्थना करना कि राम वन न जायें। इस विकल्प में समस्या यह थी कि राम निर्णय ले चुके थे। माँ कौशल्या की स्पष्ट आज्ञा को भी आदरपूर्वक मना कर चुके थे, अपनी नितान्त अक्षमता दिखा चुके थे। धर्म, कुल और पिता के मान की विवशता का तर्क माँ को आश्वस्त न कर सका था, फिर भी माँ कौशल्या ने राम के वनगमन के निर्णय को भारी मन से स्वीकार कर लिया था। सामान्य परिस्थितियों में राम अपने अनुज की मंत्रणा का मान रखते हैं और यदि निर्णय नहीं लिया हो या निष्कर्षों में अधिक अन्तर नहीं हो तो स्वीकार भी कर लेते हैं।
आज परिस्थितियाँ भिन्न थीं। अनुज के रूप में किये अनुनय विनय के प्रयासों के फलित होने की संभावना शून्य ही थी। समझने के लिये मन का मृदुल होना आवश्यक था किन्तु राम अपने कठोर निर्णय से हृदय को वज्रवत किये बैठे थे। उसे भेद पाना या उसका प्रयत्न भी कर पाना लक्ष्मण के सामर्थ्य के बाहर था। साथ ही अनुनय विनय में समय अधिक लगने की संभावना थी। राम को अभी सीता के पास जाना है, उनके पास लम्बी मंत्रणा का समय तो कदापि नहीं है। जो भी कहना होगा लक्ष्मण को कठोर आवरण भेदने के लिये कहना होगा, सब अल्प समय में कहना होगा।
धर्म, कुल और पिता के मान पर राम के तर्कों पर माँ कौशल्या ने तो कुछ नहीं कहा पर लक्ष्मण को उन तर्कों में असंगतियाँ ही दिखीं। लक्ष्मण को इनको ही खण्डित करने में अपना दूसरा विकल्प दिखा। न्याय की परम्परा है कि तर्क को तर्क से ही खण्डित करना होता है। यद्यपि तथ्य कठोर होने वाले थे, व्यक्तिगत रूप से आहत करने वाले थे। पर मात्र इस कारण से ही उनको हृदय में ही रखकर व्यक्त न किया जाये, अब इसका समय नहीं था। मर्यादा तनिक भंग हो भी जाये पर सत्य तो उद्भाषित होना ही चाहिये। लक्ष्मण ने निश्चय किया कि उन्हें निर्णय की प्रक्रिया पर भी प्रश्न उठाने होंगे।
लक्ष्मण बोलना प्रारम्भ करते हैं। राम तो पहले ही लक्ष्मण के शब्दों की प्रतीक्षा कर रहे थे, माँ कौशल्या भी आशान्वित हुयी कि संभवतः लक्ष्मण अपने अग्रज को समझा पायें। पिछले कुछ वर्षों में राम के साथ यदि कोई सर्वाधिक रहा है तो वह लक्ष्मण है। पिछले कुछ वर्षों में राम किसी पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं तो वह लक्ष्मण है। लक्ष्मण राम को अपना आदर्श मानते हैं और सारी आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करते हैं। राम भी लक्ष्मण को मान देते हैं और अपनी निर्णय प्रक्रियाओं में सम्मिलित करते हैं। माँ कौशल्या आशान्वित थी कि लक्ष्मण राम के मन की भाषा जानते हैं और उसी भाषा में राम को समझाने में सक्षम भी हो सकेगें। सहसा विचार श्रृंखला के भारीपन में माँ कौशल्या डूबने लगी, सोचने लगी कि पता नहीं क्या निष्कर्ष होगा, राम मानेंगे कि नहीं, राम अपना निर्णय बदलेंगे कि नहीं। अनिश्चितता के क्षणों से माँ कौशल्या सहसा बाहर आती है। सारी संभावनायें भुला कर, सारा विश्लेषण भुलाकर बस यह मनाती है कि किसी तरह लक्ष्मण राम को मना ले। ईश्वर लक्ष्मण को सारा वाककौशल प्रदान करे।
लक्ष्मण तनिक ठिठकते हैं, तर्कों को संवाद में संयोजित करने के क्रम में उनके मन में एक प्रश्न उठ खड़ा होता है। उहाप्रेरित मानसिक पूर्वाभ्यास इस प्रकार के दोषों को संवाद के पहले ही सामने ले आता है। वह अपने पिता के अन्यायपूर्ण आचरण पर प्रश्न करने वाले थे। संभवतः वह संवाद भ्राता राम को असहनीय होता और क्रोध उत्पन्न करता जो कि परवर्ती संवादों को भी निष्प्रभ कर सकता था। दूसरा पक्ष यह भी था कि भ्राता राम से माँ कौशल्या के सामने उनके पति की निंदा करना अनुचित लग रहा था। साथ ही उनके तर्क माँ कौशल्या को राम के द्वारा कहे धर्म, कुल और पिता के मान पर ही आधारित थे। यद्यपि बड़ी माँ विलाप करके शान्त हो गयी थीं पर तर्क तो उनको ही करने थे। किसी के वार्तालाप को इस प्रकार हस्तगत कर लेना अशोभनीय समझा जाता था। सहसा लक्ष्मण को कौंधता है कि क्यों न बड़ी माँ के सम्मुख ही अपनी बात रखूँ। बड़ी माँ को उनके तर्कों का बल मिलेगा और उनके तर्कों को बड़ी माँ की वरिष्ठता का सहारा। संभवतः भैया राम तब मान जायें। लक्ष्मण तब स्वर संयत कर कहते हैं।
बड़ी माँ, भ्राता राम का क्या अपराध है जो उन्हें इस प्रकार देश से निकाला जा रहा है? किस अधिकार से राम को वनवास दिया जा रहा है? संवाद का प्रारम्भ मूल प्रश्न उठा रहा था और माँ कौशल्या से उठा रहा था। यहाँ लक्ष्मण मर्यादा का पालन भी कर रहे थे और अपनी कठोर बात का आधार भी तैयार कर रहे थे। लक्ष्मण आगे कहते हैं। आर्य राम सर्वप्रिय हैं, अयोध्या की प्रजा उनको हृदय से स्वीकार करती है और अत्यन्त प्रफुल्लित है कि राम सिंहासनारूढ़ हो रहे हैं। प्रजा को ज्ञात नहीं है कि उनकी आशाओं पर कुठाराघात करने के कारक कोई और नहीं वरन उनके ही राजा दशरथ हैं।
नगर से निष्कासित करने का दण्ड तो उन अपराधियों और अधमों को दिया जाता है जो सर्वजन के लिये अहितकर हों और जिनके सुधरने की लेशमात्र भी आशा न हो। राजा स्वयं जानते हैं कि साधारणजन को भी यह दण्ड नहीं दिया जा सकता है। जब इस प्रकार का दण्ड किसी नगरवासी को नहीं दिया जा सकता तो राम को क्यों वनवास दिया जा रहा है? राम के प्रति अन्याय और प्रजा की आंकाक्षा के माध्यम से लक्ष्मण धीरे धीरे दशरथ की ओर लक्ष्य कर रहे थे। यह निर्णय धर्म के किस पक्ष से न्यायसंगत है। इसमें किसका हित हो रहा है?
रघुकुल में प्रतिज्ञा का महत्व है, दिये गये वचनों का महत्व है। कुल परम्परा के निर्वहन के लिये हम सदा ही दृढ़संकल्पित रहते हैं। राजा दशरथ ने कल ही तो प्रजा को वचन दिया था कि राम को युवराज बनायेंगे। आज वह वचन तोड़ा जा रहा है और उसे तोड़ने में जिन वचनों का आधार लिया जा रहा है, वे नितान्त व्यक्तिगत थे। राजा दशरथ ने अपनी प्राणरक्षा के लिये उन वरों को देने का वचन दिया था। उन वरों का आधार कृतज्ञता थी, उनका महत्व तात्कालिक था, न कि अवसरवादिता पर केन्द्रित। प्रजा को दिये वचन सार्वजनिक हैं, सबके हित में हैं, उनका महत्व और तात्कालिकता कैकेयी को दिये वचन से कहीं अधिक है। लक्ष्मण निर्णय लेने को प्रमुख आधार को ही आधारहीन कर रहे थे।
बड़ी माँ, कुल परम्परा तो यह भी है कि सदा ही अग्रज पुत्र युवराज बनते हैं। एक व्यक्तिगत वचन को कुल की प्रतिज्ञा मान कर शताब्दियों से चली आ रही और सबके द्वारा स्वीकार्य अक्षुण्ण कुल परम्परा की अवहेलना क्यों? यद्यपि लक्ष्मण दशरथ को ही लक्ष्य कर रहे थे पर अभी तक उनके व्यक्तिगत आचरण पर नहीं आये थे। किसी के निर्णय की आलोचना उतना आहत नहीं करती है जितनी किसी निर्णयकर्ता की आलोचना कर जाती है।
माँ कौशल्या लक्ष्मण के तर्कों से बल पा रही थी, शान्त खड़े राम समझ रहे थे कि लक्ष्मण आगे क्या कहेंगे?
राजा दशरथ ने अपनी प्राणरक्षा के लिये उन वरों को देने का वचन दिया था। उन वरों का आधार कृतज्ञता थी, उनका महत्व तात्कालिक था, न कि अवसरवादिता पर केन्द्रित। प्रजा को दिये वचन सार्वजनिक हैं, सबके हित में हैं, उनका महत्व और तात्कालिकता कैकेयी को दिये वचन से कहीं अधिक है।....हर युग में अवसरवादिता का अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए लोगों ने सहारा लिया। राजा दशरथ ने अपनी प्राणरक्षा के लिये उन वरों को देने का वचन दिया था। उन वरों का आधार कृतज्ञता थी, उनका महत्व तात्कालिक था, न कि अवसरवादिता पर केन्द्रित। प्रजा को दिये वचन सार्वजनिक हैं, सबके हित में हैं, उनका महत्व और तात्कालिकता कैकेयी को दिये वचन से कहीं अधिक है। सारगर्भित प्रसंग साथ साथ मार्मिक भी,राजा दशरथ ने अपनी प्राणरक्षा के लिये उन वरों को देने का वचन दिया था। उन वरों का आधार कृतज्ञता थी, उनका महत्व तात्कालिक था, न कि अवसरवादिता पर केन्द्रित। प्रजा को दिये वचन सार्वजनिक हैं, सबके हित में हैं, उनका महत्व और तात्कालिकता कैकेयी को दिये वचन से कहीं अधिक है।हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
ReplyDeleteजी, तात्कालिता और अवसरवादिता का अबोध प्राथमिकताओं को अस्तव्यस्त कर जाता है। बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत सूक्ष्मता से रामायण का अध्ययन किया है और इस तरह से सभी पढ़ने वालों के लिए अति श्रेयस्कर है यह श्रृंखला!!साधुवाद आपके अध्ययन और लेखनी को!!
ReplyDeleteअभी तो वनगमन तक ही सीमित है यह श्रृंखला। आगे रामजी की प्रेरणा रही तो लिखेंगे।
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