भवन, भव्यता, निद्रासुख में,
व्यञ्जन का हो स्वादातुर मैं,
और मदों से पूर्ण जीवनी,
कामातुर यदि बहलाऊँगा ।
लज्जित खुद के न्याय क्षेत्र में,
पशु-विकसित मैं कहलाऊँगा ।।
देखो सब उस पथ जाते हैं ।
जाते हैं, सब खो जाते हैं ।।
अपनी जीवन-धारा को मैं,
सबके संग में क्यों बहने दूँ ।
व्यर्थ करूँ जीवन विशिष्ट क्यों ?
और जागरण के नादों में,
मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।
निश्चय मानो जीवन अपना,
उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।
अति उत्तम
ReplyDeleteजी आभार आपका
Deleteउम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे
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एकला चोलो रे का आह्वान है आज कविता में!!सुन्दर अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteबहुत आभार आपका अनुपमाजी।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका अतिशय आभार, रचना को स्थान देने के लिये।
Deleteऔर जागरण के नादों में,
मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।
निश्चय मानो जीवन अपना,
उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।
एहसासों को सुंदर शब्दों में पिरो दिया आपने ।बहुत बधाई ।
जी, बहुत आभार आपका जिज्ञासाजी।
Deleteगंभीर विचारणा!!!
ReplyDeleteआभार आपका।
Deleteअति सुन्दर सत्य ।
ReplyDeleteआभार अमृताजी।
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति, प्रवीण भाई।
ReplyDeleteजी आभार आपका ज्योतिजी।
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