11.9.21

जीवन-प्रश्न


भवन, भव्यता, निद्रासुख में,

व्यञ्जन का हो स्वादातुर मैं,

और मदों से पूर्ण जीवनी,

कामातुर यदि बहलाऊँगा ।

लज्जित खुद के न्याय क्षेत्र में,

पशु-विकसित मैं कहलाऊँगा ।।

 

देखो सब उस पथ जाते हैं ।

जाते हैं, सब खो जाते हैं ।।

 

अपनी जीवन-धारा को मैं,

सबके संग में क्यों बहने दूँ ।

व्यर्थ करूँ जीवन विशिष्ट क्यों ?

 

और जागरण के नादों में,

मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।

निश्चय मानो जीवन अपना,

उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।

15 comments:

  1. अति उत्तम

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  2. उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे

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  3. एकला चोलो रे का आह्वान है आज कविता में!!सुन्दर अभिव्यक्ति!!

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    1. बहुत आभार आपका अनुपमाजी।

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  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका अतिशय आभार, रचना को स्थान देने के लिये।

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  5. और जागरण के नादों में,

    मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।

    निश्चय मानो जीवन अपना,

    उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।

    एहसासों को सुंदर शब्दों में पिरो दिया आपने ।बहुत बधाई ।

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    1. जी, बहुत आभार आपका जिज्ञासाजी।

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  6. गंभीर विचारणा!!!

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  7. अति सुन्दर सत्य ।

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  8. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, प्रवीण भाई।

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    1. जी आभार आपका ज्योतिजी।

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