7.9.21

राम का निर्णय (कौशल्या)


राम के लिये वे क्षण प्रबल और अनियन्त्रित उथलपुथल में बीते। पिता का शोक और नैराश्य, माँ कैकेयी का अविश्वास और रुक्षता, भरत के असमंजस की आगत स्थिति, लक्ष्मण का क्रोध, सीता को होने वाला विरह का अपार दुख, वनवास की रूपरेखा और उस पर माँ कौशल्या का मूर्छित हो जाना। राम को इस प्रकार बद्ध होना स्वीकार नहीं था। उनका प्रथम प्रयास रहता था कि किस प्रकार परिस्थियों की विषमता में मन का समत्व प्राप्त किया जाये। यद्यपि गुरु वशिष्ठ के इस सिद्धान्त का अनुप्रयोग सरल परिस्थितियों में कई बार कर चुके थे राम, पर आज का प्रश्न जटिलतम था। भावनाओं में बहकर राम को निर्णय लेना स्वीकार नहीं था, राम सदा ही स्थिर बुद्धि से निर्णय लेना चाहते थे। आज भावनाओं का ज्वार प्रबलतम था, आज राम के हृदय की कठिनतम परीक्षा थी।


माँ की चेतना लौटती है, राम को सम्मुख और निकट पा एक स्वाभाविक सी प्रसन्नता हृदय में आती है पर तभी स्मृतियों का झोंका सहसा उन्हें करुण कर जाता है, अश्रु पुनः बहने लगते हैं। “माँ” कहते हैं राम और वह स्वर कुछ आग्रह कर रहा होता है अपनी माँ से। बचपन से ही पुत्र का वह एक स्वर अत्यन्त विशेष रहता है अपनी माँ से, जब किसी वस्तु या अनुग्रह की चाह रहती है पुत्र हृदय में। आज न कोई व्यञ्जन चाहिये था राम को, आज न कोई अनुमति पानी थी राम को, आज न पिता तक कोई बात पहुँचाना चाहते थे राम। आज राम का स्वर अपनी माँ से अपने पुत्र के लिये विलाप न करने की भर का आग्रह कर रहा था।


कौशल्या राम के सर पर हाथ फेरती है और विलाप न करने का आग्रह स्वीकार कर शान्त हो जाती है। विचारों को संयत कर यह निश्चित करती है कि आज राम से मन के सारे भाव कह दूँगी, वह सारे कारण कह दूँगी जो वह वर्षों अपने हृदय में छिपाये रही। कौशल्या निश्चित कर चुकी थी कि आज वह माँ से अधिक महारानी और पूर्व राजपुत्री के रूप में बात करेगी। सब कुछ स्पष्ट बताने के लिये माँ कौशल्या वह छोर ढूढ़ रही थी, जहाँ से बात प्रारम्भ हो सके।


प्रिय राम, आपके जन्म ने मुझे जीवन में एक अपार सुख दिया है। आपके न आने तक मैं वन्ध्या होने का अभिशाप लिये जी रही थी। माँ के लिये पुत्र या पुत्री न होने का दुख अपार होता है। ईश्वर ने कृपा की, पिता ने यज्ञ किया और फलस्वरूप आप जैसा उपहार मुझे मिला। जीवन सच में सुख से परिपूर्ण हो गया था। किन्तु इस क्षण को सम्मुख पा ऐसा लग रहा है कि यदि मैं ही वन्ध्या होती तब भी सारे दुख झेल लेती और जीवन निर्वाह कर लेती। तुम जैसा पुत्र होने के बाद जो सुखानुभूति हुयी, अब वह ही साथ न रहे, वह अत्यन्त दुखदायी है, अपार पीड़ादायी है।


राम, एक ज्येष्ठतम रानी के रूप में जो कल्याण और सुख मेरे अधिकार में थे, वह मुझे मिले नहीं। राजमाता के रूप उस कमी को पूर्ण करने की आस मन में थी, पर अब तुम्हारे वन जाने से छोटी सौत के विदीर्ण करने वाले वचन मुझे सुनने पड़ेंगे। तुम्हारे यहाँ रहने पर भी जब मैं सौतों से तिरस्कृत रही हूँ, पता नहीं तुम्हारे जाने पर क्या होगा? मैं यहाँ अब नहीं रह सकती। मैं भी तुम्हारे साथ ही वन चलूँगी। बोलते बोलते माँ कौशल्या रुक गयी, मानो साथ जाने का निर्णय सभी दुखों को विराम देने वाला हो। 


राम भारी मन से अपनी माँ की पीड़ा सुन रहे थे। अधिकारों के इस विश्व में न जाने कौन सा अभाव मन बिद्ध कर जाये। मन में वर्षों से चुभी व छिपी बातें और उस पर भी व्यक्तिगत व सामाजिक मौन? राम को यह समीकरण ज्ञात थे पर यह बातें कभी कही नहीं गयीं। राजपरिवारों के दुख भौतिक आवश्यकताओं के नहीं वरन मानसिक अधिकारों के होते हैं। कौशल्या को भी लगा कि उनका व्यक्तिगत दुख है, उसमें पुत्र को क्यों व्यथित करना? माँ कौशल्या ने पत्नी के अधिकार के विषय को सहसा बन्द कर दिया। माँ के अधिकारों का स्मरण कर पुनः बोलना प्रारम्भ किया।


प्रिय राम, माता की सेवा करना तुम्हारा धर्म है, तुम वह करो। वन जाने से वह तुम्हारे लिये सम्भव नहीं होगा, अतः वन मत जाओ। तुम्हारे पिता का तुम पर जितना अधिकार है, उतना ही अधिकार माँ के रूप में मेरा भी है। उस अधिकार से मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम वन नहीं जाओगे, राम। यदि तुम फिर भी नहीं मानते हो और अपने पिता की प्रतिज्ञा को माँ से अधिक मान देते हो तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी जिससे तुम मेरी सेवा कर सको। यदि फिर भी तुम मुझे छोड़कर वन गये तो मैं प्राण त्याग दूँगी और उसका सारा दोष और पाप तुम पर लगेगा।


राम इस तर्क श्रृंखला के बारे में विचार कर के नहीं आये थे। माँ ने कभी इस प्रकार अधिकार नहीं जताया। माँ आज तर्कों को यथासम्भव हर प्रकार से जोड़कर प्रस्तुत कर रही है। माँ का हृदय किसी तरह से अपने पुत्र को रोकना चाह रहा है। राम यह तथ्य समझ तो रहे थे पर यह नहीं सोच पा रहे थे कि किस तरह माँ को समझाया जाये और उनका शोक कम किया जाये। राम के उत्तर देने में आये एक क्षणिक से विराम से माँ की आशायें बढ़ चली थीं पर वह हृदय से जानती थीं कि राम हर पक्ष को भलीभाँति विचार कर ही निर्णय लेते हैं। यदि निर्णय ले लिया है तो उसे अकाट्य तर्क, धर्म संदर्भ और सरल संवाद से व्यक्त भी करेंगे।


राम ने माँ को हाथ जोड़कर पुनः प्रणाम किया और इस प्रकार बोले। माँ, मुझमें पिता की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति नहीं है। पिता की आज्ञा के लिये कण्डु ने गाय के, परशुराम ने माँ के, सगर के पुत्रों ने स्वयं के प्राणों की आहुति दी थी। वन मुझे जाना होगा माँ। बस चौदह वर्ष में मैं प्रतिज्ञा पूरी करके लौट आऊँगा और आपकी सेवा का कर्तव्य दुगने प्रयास से पूरा करूँगा। जहाँ तक आपके जाने का प्रश्न है तो वह धर्मसम्मत नहीं है। पति के जीवित होने तक उसके ही साथ रहने का वचन आपको निभाना है। और इस समय तो पिता के विदीर्ण हृदय को सर्वाधिक आवश्यकता आपकी है। आपको ही तो उनके दुख को भी शान्त करना है।


माँ का मन होता है कि मानता नहीं है। अश्रुपूरित माँ वन साथ न चलने के कारण अस्वीकार कर अपनी असहायता और दीनता प्रस्तुत करना चाह रही थी। राम इस प्रकार बार बार रोके जाने पर मन में ही आवेश में भर रहे थे।


यह विषम स्थिति भाँप कर लक्ष्मण ने क्रोध को संयत किया और राम को विमर्श देने की आज्ञा माँगी। राम जानते थे कि लक्ष्मण के हृदय में एक उथलपुथल चल रही है और उसे बाहर आना आवश्यक है। राम लक्ष्मण को अपनी बात कहने के लिये संकेत देते हैं।

8 comments:

  1. 🙏 राम वनवास प्रसंग का इससे सार्थक चित्रण नही पढ़ा। धन्यवाद आपके अध्ययन को और आपकी लेखनी को

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, आभार आपका धीरू भाई। बहुत काल से ये प्रश्न मन में कुलबुला रहे थे, व्यक्त करने की रामकृपा अब हुयी है।

      Delete
  2. बहुत ही जीवंत!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका विश्वमोहनजी।

      Delete
  3. शब्द ही नहीं मिल रहे, बहुत ही सुंदर शाब्दिक चित्रण, बहुत शुभकामनाएं प्रवीण जी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपके उत्साहवर्धन का जिज्ञासाजी।

      Delete
  4. बहुत सुन्दर चित्रण

    ReplyDelete