4.9.21

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ

 

मैंने कविता के शब्दों से व्यक्तित्वों को पढ़ कर समझा ।

छन्दों के तारतम्य, गति, लय से जीवन को गढ़ कर समझा ।

यदि दूर दूर रह कर चलती, शब्दों और भावों की भाषा,

यदि नहीं प्रभावी हो पाती जीवन में कविता की आशा ।

तो कविता मेरा हित करती या मैं कविता के हित का हूँ ?

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ ।

 

सच नहीं बता पाती, झुठलाती, जब भी कविता डोली है,

शब्दों का बस आना जाना, बन बीती व्यर्थ ठिठोली है ।

फिर भी प्रयत्न रहता मेरा, मन मेरा शब्दों में उतरे,

जब भी कविता पढ़ूँ हृदय में भावों की आकृति उभरे ।

भाव सरल हों फिर भी बहुधा, शब्द-पाश में बँधता हूँ ।

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ ।

 

यह हो सकता है कूद पड़ूँ, मैं चित्र बनाने पहले ही,

हों रंग नहीं, हों चित्र कठिन, हों आकृति कुछ कुछ धुंधली सी ।

फिर भी धीरे धीरे जितना सम्भव होता है, बढ़ता हूँ,

भाव परिष्कृत हो आते हैं, जब भी उनसे लड़ता हूँ ।

यदि कहीं भटकता राहों में, मैं समय रोक कर रुकता हूँ,

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ ।

 

मन में जो भी तूफान उठे, भावों के व्यग्र उफान उठे,

पीड़ा को पीकर शब्दों ने ही साध लिये सब भाव कहे ।

ना कभी कृत्रिम मन-भाव मनोहारी कर पाया जीवित मैं,

जो दिखा लिखा निस्पृह होकर, कर नहीं सका कुछ सीमित मैं ।

अपनी शर्तों पर व्यक्त हुआ, अपनी शर्तों पर छिपता हूँ

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ ।

17 comments:

  1. अति सुन्दर शब्द भाव सम्प्रेषण!!

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  2. आपकी रचनात्मकता, भाषा पर पकड़, भावों की गहराई और विचारों की सुन्दरता प्रेरणा देती है। बहुत-बहुत प्रेम और शुभकामनाएं प्रिय प्रवीण 🙏💗⚘

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  3. आपकी रचनात्मकता, भाषा पर पकड़, भावों की गहराई और विचारों की सुन्दरता प्रेरणा देती है। बहुत-बहुत प्रेम और शुभकामनाएं प्रिय प्रवीण 🙏💗⚘- पंकज निगम

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    1. जी बहुत आभार आपका पंकज भैया।

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  4. बहुत सुंदर भाव भरी रचना लिखी आपने। सच सबसे पहले जो दिखे वही लिखना चाहिए । फिर तो कल्पनाओं का खुला संसार है ही । सुंदर सरस बात ।

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    1. कितना कुछ छिपा है, कल्पना के संसार में।

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