जो राम के वनगमन के निर्णय को विशुद्ध भावनात्मक मानते हैं, वे राम को पूरा नहीं जानते हैं। पिता का मान रखने के लिये सब त्याग कर वन चले जाना भावनात्मक लग सकता है पर उसके पीछे राम के तर्क, धर्म का ज्ञान, परिस्थिति की समझ, सबको साधने की कला, सब सहने का सामर्थ्य और अद्भुत औदार्य, इन पक्षों को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।
काल ने राम को संभवतः सर्वाधिक कठिन निर्णय लेने के लिये चुना था। मुझे व्यक्तिगत कष्ट है कि राम वन गये पर राम ने जो मानक निर्धारित किये उससे अधिक संतुलित कुछ भी संभव नहीं था।
राम के वनगमन के निर्णय को समझना है तो उसके लिये पाँच संवाद समझने होंगे। पहला माँ कैकेयी से, दूसरा माँ कौशल्या से, तीसरा लक्ष्मण से, चौथा सीता से और पाँचवा भरत से। इसमें प्रथम चार संवाद वनगमन के पहले हुये थे, भरत के साथ संवाद चित्रकूट में हुआ था। इन पाँचों संवादों में राम के निर्णय के आधार दृष्टिगत होते हैं। इन पाँचों संवादों में राम के व्यक्तित्व के वृहद विस्तार प्रकट होते हैं।
दशरथ से राम का विशेष संवाद नहीं हुआ। पहले तो राम ने दशरथ के न बोलने पर पीड़ामिश्रित आश्चर्य व्यक्त किया पर बाद में उन्हें सान्त्वना के ही वचन कहे। जब सबसे आज्ञा लेकर राम दशरथ के पास पुनः पहुँचे तो दशरथ का शोक न रुक सका और उनकी आत्मग्लानि द्रवित होकर बह चली। उन्होंने राम से स्पष्ट कहा कि हे रघुनन्दन, मैं कैकेयी को दिये वर के कारण मोह में पड़ गया हूँ, तुम मुझे कारागार में डालकर स्वयं ही राजा बन जाओ। दशरथ नहीं चाहते थे कि राम वन जायें पर अन्त में क्या यह कहना उचित था? राम शान्त भाव से उत्तर देते हैं कि न मेरे अन्दर राज्य की इच्छा है, न सुख की, न पृथ्वी की, न भोगों की, न स्वर्ग की। मन में यदि कोई इच्छा है तो यह कि आप सत्यवादी बने रहें, आप मिथ्यावादी न होने पावें। यह मैं शपथ लेता हूँ।
राम की यह शपथ उनकी प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से वर्णित करती है। सबके ऊपर उन्होंने अपने पिता का मान ही रखा। जिस राजा को उसकी प्रिय पत्नी श्रीहीन कर देती है, अनुनय विनय तक को मान नहीं देती है, उसका हृदय क्षतविक्षत कर देती है, उसको विवश कर देती है कि वह अन्यायपूर्ण निर्णय में अपनी सहमति दे, उसकी मानसिक दुर्गति कर देती है, उस राजा और अपने पिता दशरथ के वचनों को सब सुखों के ऊपर मान देने का उत्कर्ष केवल राम ही कर सकते हैं। पिता पर मिथ्याभाषी होने का लांछन न लगे, क्या मात्र इसी कारण ही राम ने वनगमन का निर्णय लिया? यह निश्चय रूप से एक आधार था पर शेष संवादों में जो भी प्रश्न उठाये गये हैं, वे सब भी नीतिगत और तर्कसंगत थे। राम के उत्तर व्यापक रूप से वनगमन के निर्णय के आधार निर्धारित करते हैं।
कैकेयी से संवाद के बाद ही राम वनगमन का निर्णय ले चुके थे। माँ कौशल्या, भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ हुये संवादों में राम ने अपने निर्णय को स्पष्ट किया है। कई ऐसे पक्ष जो विषय के विश्लेषण में प्रायः अनुत्तरित रह जाते हैं, राम के व्यक्तित्व के कई आयाम जो अन्यथा प्रकट नहीं हो पाते हैं, इन संवादों के माध्यम से समझे जा सकते हैं।
माँ कैकेयी से राम का संवाद स्पष्ट और सीधा था। पिता मुझसे बोलते क्यों नहीं? पिता तो सदा ही मुझे देखकर प्रसन्न होते थे, क्या कुछ अमंगल हुआ है या आपने कोई कठोर वचन बोला है? कैकेयी ने जब कहा कि राजा को सत्यपालन में बाधा आ रही है और उसका कारण तुम हो। तो राम ने लगभग झिड़कते हुये कहा कि देवी तुम्हें धिक्कार है, पिता की प्रतिज्ञा के लिये कौन सा ऐसा कार्य है जो राम नहीं कर सकता? रामो द्विर्नाभिभाषते। राम दो तरह की बात नहीं करता है।
दोनों वरों के बारे में जानकर और समुचित समय लेकर निर्णय ले चुके राम ने बड़े ही सहज स्वर में माँ कैकेयी से कहा। मैं पिता की प्रतिज्ञा के लिये वन जाने को प्रस्तुत हूँ पर यह जानना अवश्य चाहता हूँ कि फिर भी पिता के दुखी होने का क्या कारण है? मुझे प्रसन्नता है और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मेरे लिये मेरी माँ और पिता ने मिलकर एक भविष्य सुनिश्चित किया है। इसमें मेरा हित है। वन में ऋषि मुनियों के सानिध्य में राम का उत्थान ही होगा। मुझे तो अभी भी गुरुवृन्द के साथ धर्मचर्चा सर्वाधिक सुखकारी और हितकारी लगती है। वन जाने में अब तो यह सुख निर्बाध मिलेगा। जब मुझे वनगमन में लेशमात्र भी दुख नहीं दीखता तब पिता के शोक का कारण क्या है, यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। पिता मुझपर प्रसन्न हो और मुझसे कुछ बोलें। पिता के न बोलने और दुखनिमग्न शिथिल बैठे रहने के क्षण राम को असह्य थे।
राम के इन वचनों ने दशरथ के मन में ग्लानि के असंख्य भाव प्रस्फुटित कर दिये। हे ईश्वर, कहाँ मैं अपने पुत्र को सामान्य नागरिक सा न्याय नहीं दिला पा रहा हूँ और कहाँ राम मेरी प्रतिज्ञा को अपने माथे पर शिरोधार्य कर वन जाने को प्रस्तुत है। दशरथ के मुख से कुछ भी न निकल सका, क्या बोलूँ में राम से? कंठ रुद्ध हो गया, नेत्रों से अश्रुधार और मोटी हो बह चली, सब दृश्य धुँधला गये, सामने बस राम के प्रसन्न मुख के सैकड़ों स्मृतियाँ चलचित्र के समान आने लगे। सहसा वन के भीषण चित्र भी उभर आये, पीड़ा दशरथ के लिये पुनः असहनीय हो गयी। हे राम, हे राम कह कर दशरथ पुनः अर्धचेत हो गये।
राम ने पिता को आदर के भाव से निहारा और कैकेयी से कहने लगे। पिता मुझसे कम से कम भरत के अभिषेक की बात तो कह सकते थे, वह बात भी पिता ने मुझसे क्यों नहीं कही? मैं भरत के लिये सब छोड़ने को तैयार हूँ। भरत योग्य हैं, धर्मनिष्ठ हैं, नीतिनिपुण है, सबका सम्मान करते हैं, माताओं के प्रति स्नेह रखते हैं, उनके जैसा राजा पाकर अयोध्या धन्य हो जायेगी, रघुकुल गौरवान्वित हो जायेगा। माँ कैकेयी के कुटिल षड्यन्त्र के बाद भी भरत के प्रति राम के स्नेहिल भाव में किञ्चित भी विकार नहीं था। जैसे बचपन की क्रीड़ाओं में राम अपने छोटे भाईयों का मान रखने के लिये जानबूझ कर हार जाते थे, आज राम अपने मुख से भरत की श्रेष्ठता वर्णित कर स्वयं हार रहे थे। दशरथ के अश्रु अब भी रुक नहीं रहे थे।
भ्राता भरत के प्रति अपने प्रेमपूरित भाव व्यक्त कर राम माँ कैकेयी को षड्यन्त्रकारी कुटिला के भाव से उबार कर उन्हें पुनः माँ के आसन में बिठाने के लिये कहते हैं। जैसे मैं पिता का पुत्र हूँ, वैसे आपका भी हूँ। आपको अपने पुत्र पर इतना तो अधिकार था कि आप अपने मन की बात मुझे बुलाकर कह देतीं। मुझे यह बात पीड़ा देती है कि आपने इतनी छोटी सी बात के लिये अपने वर व्यर्थ किये, आपने इतनी छोटी सी बात के लिये पिता को अकारण कष्ट दिया। पिता न जाने शोक के किस भँवर में डूबे हैं। आपको तो आदेश देने का अधिकार था पर आपने यदि इंगित भी कर दिया होता तो मैं स्वयं ही भरत को सिंहासन पर बैठाकर स्वेच्छा से वन चला जाता।
कैकेयी को राम से इस उत्तर की आशा नहीं थी। पितृभक्ति पर संशय करने पर क्षणिक क्रोध में आये राम इतने संयत हो सब स्वीकार कर लेंगे, इसका लेशमात्र भी अनुमान नहीं था कैकेयी को। राम के संवाद ने सबको मान दिया था। दशरथ को पिता का मान, भरत को भाई का मान और मुझे अपनी माँ से भी बढ़कर मान। राम के औदार्य और आर्जव व्यक्तित्व की वृहदता के सम्मुख वह भीतर से पूरी तरह से लज्जित हो चुकी थी। मनसपटल पर आत्मग्लानि का स्पर्श होते ही सहसा उसे मन्थरा के शब्द याद आ गये। कैकेयी की मुख कठोर हो गया। कैकेयी पुनः कुटिल आग्रह करती है कि राम, जब तक तुम वन चले नहीं जाते पिता प्रतिज्ञा पूरी न होने के कारण ऐसे ही शोकमग्न बैठे रहेंगे। दशरथ हतप्रभ हो कभी वितृष्णा से कैकेयी को देख रहे थे, कभी करुणा से राम के देख रहे थे। हे ईश्वर, इन दो विपरीत ध्रुवों में मैं अनन्त तक खिंचा जा रहा हूँ, मेरे प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते।
राम ने माँ कैकेयी की निर्मम और तर्कजनित कुटिलता का संज्ञान न लेते हुये कहा। माँ, आप निश्चिन्त रहें, माँ कौशल्या से आज्ञा लेकर और सीता को समझाबुझा कर मैं आज ही वन चला जाऊँगा।
इस प्रकार पिता और माता की परिक्रमा कर राम कक्ष से निकल गये। वह अपना मन बना चुके थे।
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