19.8.21

निर्णय की कालरात्रि


कैकेयी प्रतीक्षा में थी कि कब राम अपने पिता की प्रतिज्ञा का पालन करने का वचन दें। जब राम ने तनिक रुक्ष व स्पष्ट स्वर में कहा तब कहीं जाकर कैकेयी को संतोष हुआ कि उसका षड्यन्त्र सफल हो जायेगा। 


मन्थरा द्वारा समझायी हर बात का कैकेयी ने अक्षरशः अनुपालन किया था। पहले कोपभवन में जाना, राजा के पूछने पर उन्हें वर की याद दिलाना, राजा को इस बात के लिये चढ़ाना कि रघुवंशियों के लिये उनकी प्रतिज्ञा ही सर्वोपरि है और तब कहीं दो वर माँगना। मन्थरा को यह भी ज्ञात था कि राजा क्रोध कर सकते हैं या मना कर सकते हैं, उसके लिये कैकेयी को विष पी लेने या अग्नि में कूद जाने की धमकी देने की सीख दी। यदि राजा दयनीय होकर अनुनय विनय करते हैं तब भी टस से मस न होने की अत्यन्त स्पष्ट चेतावनी भी दी थी मन्थरा ने।


कैकेयी को विश्वास था कि एक बार वर देने के पश्चात राजा स्वतः ही अपना निर्णय राम को सुना देंगे। राजा के शोकनिमग्न हो अचेत हो जाने से उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? हर बार उठते और “हा राम” कह कर पुनः अचेत हो जाते। उसे तो अब यह भी समझ नहीं आ रहा था कि राजा ने वर दिये हैं कि नहीं? या केवल विलम्ब करना चाह रहे हैं राजा?


राजा ने कितना धिक्कारा था, बुरा भला कहा था पर मना नहीं किया था। रघुवंशियों की इसी मति पर ही कैकेयी का पूरा छलतन्त्र टिका था। स्पष्ट मना कर देना प्रतिज्ञा का उल्लंघन था। यदि राजा ऐसा करते तो उसे भी रघुकुल के बारे में आक्षेप लगाने का अवसर मिल जाता।


राजा अधर में थे, न मना कर रहे थे और न ही हाँ कर रहे थे। जैसे ही राजा ने अनुनय विनय करना प्रारम्भ किया कैकेयी समझ गयी थी कि राजा अब मना नहीं कर सकते हैं। उस ओर से निश्चिन्त हो बैठी कैकेयी को पर यह समझ में नहीं आ रहा था कि राजा को कैसे प्रेरित करे कि वह अपना निर्णय राम को सुनायें। सारे अस्त्र उपयोग में लाने के बाद उसके पास बस एक ही अस्त्र बचा था जिसका वह रात में कई बार उपयोग कर चुकी थी, और वह थी उसकी कठोर वाणी। कठोर वाणी में उलाहना देने से राजा हर बार पीड़ा में उतर जाते और हा राम कह कर अचेत हो जाते। कैकेयी को लग रहा था कि यदि यह अस्त्र अधिक बार प्रयोग किया तो संभव हो राजा इस पीड़ा को सहन न कर पायें और स्वर्ग सिधार जायें। तब तो कोई वर भी नहीं मिलेगा। वैसे भी राजा पहला वर तो मान ही चुके थे। अब राजा का सारा दुख और प्रयत्न दूसरे वर पर था। इसी कारण उसने चुपचाप रात्रि बिताने का निर्णय लिया।


इधर दशरथ की पीड़ा मर्मान्तक थी। उनके मन में सतत ही उहापोह चल रही थी कि कैकेयी को किस प्रकार समझाया जाये, दूसरे वर के लिये आग्रह न करने के लिये किस तरह मनाया जाये। शोकमग्न हो दशरथ शिथिल अवश्य थे पर मन गतिमान था, ईश्वर से प्रेरणा देने की प्रार्थना कर रहे थे कि किसी तरह प्रातः होने तक कैकेयी को मुझपर कुछ दया आ जाये, उसका हठ कुछ कम हो जाये। जब भरत को राजा बनाने का उसका मन्तव्य सिद्ध हो चुका है तो राम को अकारण कष्ट क्यों दे रही है कैकेयी? यह सब क्यों हो रहा है, दशरथ अभी कुछ नहीं समझना चाह रहे थे। इस समय तो वह समस्त देवों का आह्वान कर रहे थे कि कैकेयी के भीतर तनिक ममत्व जग जाये, या तो राम के लिये या अपने पति के लिये।


दशरथ कैकेयी को समझ तो कभी नहीं सके थे। एक अद्भुत आकर्षण था उसमें, बस खिंचते चले गये और वहाँ निश्चेष्ट हो पड़े रहे, जीवन भर। एक अद्भुत ऊर्जा, जीवन जीने की एक अद्भुत शैली। अपरिमित सौन्दर्य और उस पर अपरिमित शूरता, एक बार बँधे तो जीवन भर बद्ध ही पड़े रहे। युद्धकौशल का ज्ञान तो बहुतों को होता है पर भला कौन नारी घनघोर युद्धक्षेत्र में अपने पति के साथ जाती है। कौतूहलवश नहीं वरन एक सहयोगी बन कर। स्पष्ट याद है वह क्षण जब लगा कि बाणों से बिद्ध पीड़ा अब प्राण हर लेगी तब कैकेयी ने कुशल सारथी बन कर उनके प्राण बचाये थे। प्राणरक्षा के इस उपकार के प्रति कृतज्ञ राजा के लिये दो वर भला कौन सी बड़ी बात थी। तब भी कैकेयी की विनम्रता से उनका हृदय गदगद हो उठा था। “बस आपके प्राण बच गये महाराज, यही मेरा वर है” कैकेयी के इस उत्तर पर जब उन्होंने अधिक आग्रह किया तो समय आने पर माँग लेने के लिये कह कर बात टाल दी थी।


पीड़ा के घोर क्षणों में दशरथ विचार में डूबे थे, उन्हें सच में समझ नहीं आ रहा था कि उनसे भूल कहाँ हुयी। युवा, सुगढ़, सुवाक, सुन्दरी और वीर कैकेयी से अधिक स्नेह तो परिस्थितियों की एक स्वाभाविक सी ही परिणिति थी। कौशल्या और सुमित्रा को यह अखरता अवश्य था पर उनके संस्कारों ने अपने पति की इस एकप्रियता को स्वीकार ही कर लिया था। उन्होनें भी सदा राजकीय और सामाजिक कार्यों में दोनों रानियों को समुचित सम्मान दिया। क्या करें पर व्यक्तिगत क्षणों में उन्हें कैकेयी का सानिध्य ही भाता था।


दशरथ अपने जीवन में कैकेयी के व्यवहार के विश्लेषण में लगे थे कि संभवतः कोई सूत्र मिल जाये जिससे यह अनर्थ होने से बच जाये। अपने पति और राजा पर इतना अधिकार पाकर कैकेयी का व्यवहार और भी उदार हो चला था। एक पुत्र की इच्छा थी और वह भी यज्ञ द्वारा पूरी हो गयी थी। एक नहीं, वरन चार पुत्रों पर कैकेयी का स्नेह देखते ही बनता था, विशेषकर राम उसे अत्यन्त प्रिय थे। वहीं राम थे जो अपनी माँ से अधिक आदर माँ कैकेयी को देते थे। सब कुछ तो ठीक चल रहा था, फिर मुझसे भूल कहाँ हुयी, दशरथ पुनः अचेत हो गये।


मैंने बिना कैकेयी से परामर्श लिये राम को सिंहासन देने का निर्णय ले लिया, कहीं उससे तो कैकेयी आहत नहीं हुयी है? यदि ऐसा होता तो सारा क्रोध मुझ पर होता पर कैकेयी के वरों में लक्ष्य तो राम हैं। इतना आदर और प्रेम पाने के बाद भी कैकेयी राम के प्रति इतनी निर्दयी क्यों बनी हुयी है, यह दशरथ की बुद्धि से परे था। क्या किसी ने कैकेयी को भरा है? वैसे तो कैकेयी स्वतन्त्र विचारधारा रखती है और उसे प्रभावित कर पाना सबके बस की बात नहीं है। शोक और सोच से दशरथ का हृदय फटा जा रहा था।


सुमन्त्र आते हैं, कैकेयी उन्हें राजा की ओर लक्ष्य कर कुछ आदेशित करती हैं, सुमन्त्र वहीं खड़े रहते हैं। हा, पुनः कठोर वचन! हा, कैकेयी को क्या हो गया हैं ईश्वर? राम को बुलाने के लिये इतनी व्यग्रता, इतना क्रोध। दशरथ सुमन्त्र को अनमने हो संस्तुति देते हैं। सहसा राजा कैकेयी के बारे में सोचना बन्द कर देते हैं और इस असमंजस में पड़ जाते हैं कि राम का सामना कैसे कर पायेंगे वह? क्या कहेंगे राम से? किस अपराध के लिये वन भेजेंगे उन्हें? दशरथ निर्णय ले चुके थे, वह शान्त ही रहेंगे। संभवतः राम की विनम्रता या वीरता इस अपार भीषण निर्णय को बदल सके।


राम आते हैं, सारा वार्तालाप सुन कर और राम की निश्छल पितृभक्ति देखकर दशरथ का दुख और भी गाढ़ा हो जाता है, वह पुनः अचेत हो जाते हैं।

10 comments:

  1. सादर चरण स्पर्श
    जय श्री राम

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  2. अंतर्मन की पीड़ा की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति, नमन है सर।

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    1. दशरथ का मन कितनी बार दग्ध हुआ होगा उस रात। आभार आपका।

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  3. रामायण के हृदयविदारक प्रसंग का अति सूक्ष्म विश्लेषण !यह प्रसंग जितने बार पढ़ें एक अजीब सी पीड़ा का अनुभव होता है |

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    1. यह सर्वाधिक हृदयविदारक प्रसंग है रामकथा का। जितनी बार पढ़ें, आँखें नम ही होती है। आभार आपके संवेदन का।

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  4. बहुत ही दर्द भरा उल्लेख।रामायण का ये प्रसंग हमेशा तीस देता है,आपका आलेख पढ़ लगा जैसे आप स्वयं साक्षी हैं,सुंदर गहन संदर्भ का लेखन।

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    1. राम को समझ पाना संभव नहीं है। यदि प्रयास करें तो उससे बाहर निकल पाना असंभव है। आभार आपके प्रोत्साहन का।

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  5. समय बलवान है इस घटनाचक्र में यही साबित होता है। ग्रह नक्षत्र सब देख कर बनाये गए मुहूर्त धरे के धरे रह गए।

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    1. दैवयोग प्रबल था। मन्थरा से उठा अंधड़ रघुकुल को उड़ा ले गया। आभार धीरूजी

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