बारह वर्ष की ब्लागयात्रा के कई अध्याय रहे। “गाय” से लेकर “मधुगिरि” तक लगभग ४० साप्ताहिक ब्लाग ज्ञानदत्तजी के अतिथि रूप में लिखने के बाद तनिक साहस आया कि स्वयं अपना ब्लाग प्रारम्भ कर सकूँ। यद्यपि अपना ब्लाग प्रारम्भ करने की इच्छा प्रारम्भ से ही थी पर अतिथि की सुविधाभोगिता मन में आलस्य उत्पन्न करने लगी थी। एक तो ज्ञानदत्तजी के पाठकों की संख्या बहुत अधिक थी, उसका लोभ बना रहा। दूसरी थी उनकी सदाशयता कि हर टेढ़ी मेढ़ी पोस्ट को ठीक से सजा कर और संपादन कर के वह परिमार्जित करते रहे। तीसरा था मेरे द्वारा लिखित विषय पर उनका दृष्टिकोण और विशेष संवादक्रम। इन तीन सुखों में भला कहाँ भविष्य की सुध संभव थी? अपने पैरों पर सुदृढ़ खड़ा हो सकूँ, इस हेतु उनके विशेष आग्रह ने ही “न दैन्यं न पलायनम्” के उद्घोष से ब्लाग प्रारम्भ करने के लिये प्रेरित किया।
“न दैन्यं न पलायनम्” के उद्घोष ने सदा ही प्रभावित किया है। यह उद्घोष अर्जुन ने भगवद्गीता के संवाद के बाद और युद्ध प्रारम्भ होने के पहले किया था। राजपुत्र होकर भी सदा ही छले जाने के बाद, वीर होकर भी जंगल जंगल फिरने के बाद, न्यायोचित न होने पर भी पाँच गाँव का विनम्रतम प्रस्ताव नकार दिये जाने के बाद और अन्ततः परिवार के मोह में युद्ध न कर सकने की स्थिति में कृष्ण से फटकार सुनने के बाद, अर्जुन का यह उद्घोष अत्यन्त अर्थमय हो जाता है। बहुधा अपना व्यक्तित्व अर्जुन की तरह ही लगता रहा। अर्जुन के समान ही, सामर्थ्य होने के बाद भी सामान्य सा जीवन व्यतीत करने के कई आक्षेप मैंने स्वयं पर लगाये हैं। लगा कि यह वाक्य मेरे जीवन में समय की स्पष्ट थाप बनेगा। पता नहीं कि इस प्रारम्भिक ध्येय को कितना चरित्रार्थ कर पाया मैं?
अपने ब्लाग पर पहली पोस्ट “स्वर्ग” लिखी, पारिवारिक विनोदमयी परिस्थितियों पर। आने वाले कई माह तक ज्ञानदत्त जी मेरी सारी पोस्टों को अपने ब्लाग से प्रचारित करते रहे और यह स्तुत्य कृत्य उन्होंने तब तक निभाया जब तक उन्हें लगा नहीं कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूँ। पता नहीं और ब्लागरों को इतना सुदृढ़ आधार मिला कि नहीं पर यदि मुझे नहीं मिलता तो न इतना लिख पाता और न इतने आत्मविश्वास से लिख पाता।
एक बार लिखने का क्रम चल पड़ा तो उन्मुक्त भाव से लिखा। परिवेश पर लिखा, परिवार पर लिखा, तकनीक पर लिखा, ब्लागिंग पर लिखा, कविता लिखी, विनोद लिखा, गाम्भीर्य लिखा। लगभग ५ वर्षों तक सप्ताह में दो बार लिखा। व्यस्तता आयी तो सहसा लिखना कम हो गया। लगभग दो वर्ष के लिये सप्ताह में बस एक बार ही लिख सका और बहुधा कविता ही लिख सका। लगभग ३ वर्ष ऐसे बीते जिसमें कुछ भी नहीं लिखा। उस समय कई बार ऐसा लगा कि संभवतः कभी लिख सकूँगा कि नहीं? एक वर्ष कुछ विषय विशेष ऐसे मिले कि औसतन दो सप्ताह में एक बार लिख सका। इस वर्ष के प्रारम्भ में भी शिथिलता और आलस्य घेरे था पर तलहटी स्पर्श होने के बाद जिस वेग से ऊपर आना चाहिये उस प्रवाह से लिख रहा हूँ, एक सप्ताह में लगभग ३ पोस्ट। यही नहीं, यथासंभव पाडकास्ट भी कर पा रहा हूँ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति के कालखण्ड बहुधा प्रकृति के गुणों से मेल खाते हैं। सर्वाधिक ऊर्जा का कालखण्ड रजस का होता है। तमस में आलस्यजनित ऊर्जा कम होती है और सत्व में ऊर्जा व्यक्त होने के क्षेत्र ही सिमट जाते हैं। ऐसा ही कुछ लेखन में भी हुआ। जब सृजनात्मकता का उछाह आया तब बहुत से कारक थे और उनका वर्णन और विश्लेषण एक कठिन विषय हो जायेगा। किन्तु जब जीवन में लेखनीय निष्क्रियता पसरी रही तब के दो कारण स्पष्ट रहे।
पहला कारण कार्यक्षेत्र की अतिव्यस्तता रही। व्यस्तता उत्पादक होती है जब तन्त्र व्यवस्थित होता है। जब परिवेशीय अव्यवस्थित हो और सारी ऊर्जा तन्त्र को सुधारने में लगे तो उस प्रयत्न को जूझना कहते हैं। प्रकृति के गुणों के आधार पर देखा जाये तो यह तमस और रजस के बीच की स्थिति है। परिवेश तामसिक और उससे जूझना राजसिक। आप जब परवेशीय तमस में स्वयं ही तमस में जीते हैं तब एक साम्य आ जाता है, मन उतना खट्टा नहीं होता है। आपको भान ही नहीं होता है कि आप क्या कर रहे हैं, आप तो बहने लगते हैं सामाजिक प्रवाह में। किन्तु जब प्रवृत्तियाँ सात्विक हों तो तम से जूझने के लिये रजस में उतरना पड़ता है क्योंकि सीधे सत्व से तम को नहीं जीता जा सकता। बुद्धि के स्तर पर भले ही सत्व रहे पर व्यवहार और विस्तार में बिना रजस आये तम अपराजित ही रहता है। इस नितयु्द्ध सी स्थिति में सृजन असंभव होता है, मन अशान्त सा रहता है, नित नीति और कार्यवृत्त में रत रहना पड़ता है। ऐसे ही कुछ कालखण्ड रहे जिसमें लेखन नहीं हो सका, हाँ, अनुभव अपार जुड़ा।
दूसरा कारण अतिबौद्धिकता का रहा, शु्द्ध सात्विकता का रहा। अच्छे लेखन के लिये आवश्यक है कि आप उत्कृष्ट पढ़ते भी रहें। सामान्य अध्ययन और अवलोकन तो वैसे भी चलता रहता है और उसमें से ही न जाने कितने लेखनीय विषय निकल आते हैं। पिछले ७ वर्षों में पर कई ऐसे कालखण्ड आये जब बौद्धिक और आध्यात्मिक चेतना उछाह पर रही। संस्कृत, दर्शन, आयुर्वेद, मानस, गीता, रामायण और न जाने संस्कृति के कितने पक्ष आये जिनसे साक्षात्कार होता गया। सामर्थ्यानुसार जितना पढ़ सका, अभिभूत रहा। पूर्वजों का बौद्धिक विस्तार, तार्किक तीक्ष्णता, सूत्रबद्ध संक्षिप्तता और सर्वोपकार की भावना में उतराकर यह लगने लगा कि इनकी तुलना में मैं जो सृजन कर पा रहा हूँ वह महावट के सम्मुख तृणमात्र सा है। तुच्छता के उस सतत अनुभव ने भी सृजन के क्रम में बाधा पहुँचायी। पूर्वजों का मन जानना आवश्यक था। यदि नहीं जाना होता तो अपनी क्षुद्रता पर इतराये बैठा होता। इस कालखण्ड में लिख नहीं पाया पर सीखा बहुत।
यह निवृत्ति के कालखण्डों का प्रभाव था या कोई अन्य कारण, यह तो पता नहीं पर पहले की अपेक्षा विषय अब श्रृंखलाओं में अधिक व्यक्त होते हैं। पहले विविध विषयों पर लिखता था, हर एक विषय दूसरों से भिन्न रहता था और कार्यक्षेत्र या परिवेश से जुड़ा रहता था। समय के साथ अब श्रृंखलायें लिखने लगा हूँ। प्रश्न उठ सकता है कि यदि लम्बा ही लिखना है तो पुस्तक क्यों नहीं? अब अधिक सोचने को विवश नहीं करता है यह प्रश्न। उत्तर यही है कि जब ब्लाग में आनन्द आ रहा है तो पुस्तक क्यों?
प्रवृत्ति और निवृत्ति की धूप छाँव में सृजन गतिमान है।
बिलकुल सही, अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना भी अति आवशयक है।
ReplyDeleteपर क्या करें, अच्छा पढ़ने से अपने लिखे के प्रति हीन भावना जो आ जाती है। आभार आपका।
Deleteप्रश्न उठ सकता है कि यदि लम्बा ही लिखना है तो पुस्तक क्यों नहीं? अब अधिक सोचने को विवश नहीं करता है यह प्रश्न। उत्तर यही है कि जब ब्लाग में आनन्द आ रहा है तो पुस्तक क्यों?
ReplyDeleteसंभव है पुस्तक का विचार मन में आया है तो कभी मूर्त रूप ले ही ले !पुस्तक लिखने का अपना अलग ही मज़ा है | शुभकामनायें सतत लेखन के लिए |
उत्तर को विलम्बित कर दिया है, विचार पुनः किया जायेगा। आभार आपका अनुपमाजी।
Deleteप्रवीण भाई, आप बहुत भाग्यशाली है कि आपको ज्ञानदत्तजी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। मरे तो परिचितों या रिश्तदारों में दूर दूर तक भी किसी ने ब्लॉगिंग के बारे में सुना तक नही था। सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि मुझे कंप्यूटर का ज्ञान तक नही था।खैर जहां चाह वहां राह।
ReplyDeleteज्योतिजी, आपका ब्लाग अपने मन्तव्यों में पूर्णतया सफल है। पढ़ने में पूरा आनन्द आता है।
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