निर्णय के क्षण इतिहास रचने की सामर्थ्य रखते हैं। यदि कोई निर्णय विशेष नहीं होता तो इतिहास का स्वरूप क्या होता, इस बात पर चर्चा बहुत होती है और वह चर्चा अत्यन्त रोचक भी होती है। ऐसी ही एक चर्चा में हमारे पुत्र पृथु ने तीन वेब सीरीज़ के बारे में बताया, जो केवल इस तथ्य पर आधारित हैं कि इतिहास की कोई एक महत्वपूर्ण घटना नहीं हुयी होती या विपरीत हुयी होती, तो विश्व का स्वरूप क्या होता? किसी एक में सोवियत पहले चन्द्रमा में पहुँच जाते हैं, किसी दूसरे में रूज़वेल्ट के स्थान पर कोई और १९४० का चुनाव जीत जाता है। किसी एक अन्य में रूज़वेल्ट की हत्या हो जाती है, अमेरिका का विकास अवरोधित हो जाता है और जर्मनी पहले परमाणु बम बना लेता है। बड़ा ही रोचक लगता है, इतिहास के घटनाक्रम को इस प्रकार पलटते हुये देखना। उस बिन्दु तक सब कुछ पूर्ववत चलता है और सहसा उस बिन्दु के बाद सब घटनाक्रम बदल जाता है, आमूलचूल परिवर्तन। जानकार इसे “वैकल्पिक इतिहास” कहते हैं।
वैकल्पिक इतिहास पर आधारित श्रृंखलायें लोगों को कपोल कल्पनायें लग सकती हैं पर इसके लेखक, निर्माता और निर्देशक इस पर बहुत अधिक शोध करते हैं। सामाजिक परिस्थितियाँ, आर्थिक उतार चढ़ाव, शक्ति संतुलन और न जाने कितनी विमायें। कौन सी घटनायें नहीं हुयी होतीं, कौन सी अन्य संभावित घटनाओं के होने की प्रायिकता अधिक होती, ऐसे न जाने कितने विषयों पर शोध होता है। जब वैकल्पिक संभावित भविष्य बनाया जाता है तो स्वाभाविक ही है कि भूत भी खंगाला ही जाता होगा। एक एक वे विचार जो बल पाते, एक एक वे तथ्य जो महत्वपूर्ण हो जाते, इन सब विषयों पर गहन शोध होता है। कहने को तो आप उनको गपोड़ी कह सकते हैं, पर उनका शोध वर्तमान से भी अधिक रोमांचक और व्यवहारिक लगता है।
जहाँ एक ओर कथाकार अपने कल्पना के घोड़े इतनी दूर तक दौड़ाते हैं वहीं कुछ यह मान कर बैठे रहते हैं कि जो हुआ, वह तो होना ही था। दूसरे समूह के पुरोधाओं से किसी तर्क में जीतना संभव ही नहीं है। “कोई घटना क्यों हुयी”, जब इसका उत्तर यह हो कि “यह तो होनी ही थी, दैवयोग था”, तब कोई संवाद नहीं सूझता है। क्या कहें? न आप भूत पर चर्चा कर सकते हैं और न भविष्य पर। न आप कारकों पर चर्चा कर सकते हैं, न व्यक्ति या परिस्थिति विशेष पर। न आप किसी के निर्णयों की प्रशंसा कर सकते हैं, न किसी की निंदा। सब कुछ पूर्णता से नियत मान बैठे ऐसे नियतिवादियों के लिये कोई विकल्प है ही नहीं, जो हुआ वही होना था। कहा जाये और उनके जीवन में देखा जाये तो आलस्य का अंतहीन प्रमाद।
एक स्थान पर कई मार्गों से जाया जा सकता है। एक ही निष्कर्ष के लिये कई घटनायें कारण हो सकती हैं। विकल्प की अनुपस्थिति हमारे इतिहास में कहीं नहीं रही है। किसी को यह कहने का अवसर नहीं दिया है इतिहास ने कि इसके अतिरिक्त क्या किया जा सकता था? भीष्म के प्रकरण में भी यही बात मुखर हुयी कि कृष्ण के विराटस्वरूप वाले मुख में जब सब हत ही देखे गये तो भीष्म क्या कर सकते थे? उन्होंने वही किया जो विधि ने या दैव ने उनसे करा लिया। इस प्रकार की विचारधारा अपनायी तो कैसे आप किसी के निर्णयों का मूल्यांकन कर सकेंगे? कोई उहापोह कैसे हो पायेगी तब? निर्णयों की गुणवत्ता कैसे जानी जायेगी तब। नियतिवादी तो सारी उत्सुकता पर ठंडा पानी डाल देते हैं। कोई वैकल्पिक इतिहास को तो छोड़िये, वे तो नियत इतिहास को भी भिगो भिगो कर धो डालते हैं। कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं, होना था, हो गया। जिसने जो किया, उसको वैसा ही करना था, कोई कर्म नहीं, कोई विकर्म नहीं, सब अकर्म।
कर्मफल का सिद्धान्त तार्किक है, न्यायदर्शन में विस्तृत रूप से सिद्ध है और मुझे स्वीकार भी है। पर सबकुछ ही पहले से नियत है इस सिद्धान्त को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। यदि माने कि सब दैव का किया धरा है और बस भोगना ही है तो भोग लेने के बाद मुक्ति तो स्वतः ही मिल जानी चाहिये। तब किस बात के प्रयत्न और कौन से कर्तव्य? एक परिस्थिति में लाने का कार्य दैव कर सकता है पर उस परिस्थिति में क्या निर्णय लेना है इसकी पूरी छूट हमें सदा ही रही है, हमारे सामने विकल्प सदा ही उपस्थित रहे हैं। निर्णय की इस जागृत प्रक्रिया के बाद जो भी विकल्प हम चुनते हैं, उसी के आधार पर हमारे अगले संस्कार, कर्माशय, विपाक आदि तैयार होते हैं। यही न्यायसंगत, तार्किक और व्यवहारिक भी है।
निर्णयों में विकल्प पर आधारित कई वैज्ञानिक उपन्यास भी पढ़े हैं जो मुख्यतः समय में यात्रा करने के बारे में थे, कभी भूतकाल में तो कभी भविष्य में जाने वाले। हमारी विवशता ही है कि समय सदा ही हमको एक नोंक पर आगे ढकेलता रहता है कभी अपने पीछे या आगे नहीं जाने देता। यदि ऐसा हो सकता तो समय में यात्रायें संभव होती। तब एक नहीं अनेक विश्व होते, हर विश्व में हर पात्र, हर विश्व के समान्तर अनेक अन्य विश्व। कल्पना करते जायें पर शीघ्र ही आप माथा पकड़ कर बैठ जायेंगे क्योंकि सब गड्डमड्ड होने लगेगा आपके अनगिनत विश्वों में तब। अच्छा हुआ यह सब नहीं हुआ, कितना भी हो पर इस प्रकार की जटिलताओं के कष्ट सहने का प्रारब्ध नहीं हो सकता है हमारा।
समय में जाना, वैकल्पिक विश्व की कल्पना करना केवल कथाकारों और विज्ञान के ही विषय नहीं हैं। धर्म और भारतीय दर्शन में भी इनकी महती उपस्थिति है। मेरी भाभीजी ने पिछले वर्ष मुझे दो छोटी पुस्तकें दी थी। “शून्य” द्वारा लिखित “इम्मोर्टल टाक्स”, दो भागों में। अत्यन्त रोचक, पढ़ने बैठा तो कल्पनाओं के भँवर में ही उतरता चला गया। उसमें भी एक दो प्रसंग समानान्तर विश्व और वैकल्पिक भविष्य के आते हैं।
मैं वैकल्पिक विश्व में भले ही न जाऊँ पर नियतिवाद को भी स्वीकार नहीं कर सकता। भले ही उस पर कुछ कर न पाऊँ पर अपने निर्णयों पर प्रश्न उठाता ही रहता हूँ। अपने ही क्यों, उन सभी निर्णयों पर प्रश्न उठाता रहता हूँ जो मुझे प्रभावित करते हैं और जहाँ मुझे लगता है कि यदि वैकल्पिक निर्णय होता तो कहीं अच्छा होता। बड़ा ही सरल होता है किसी महापुरुष को पूजायोग्य बनाकर उनके सारे निर्णयों को उनके ही महापुरुषत्व में तिरोहित कर देना, पर बहुत कठिन होता है उन्हें मानवरूप में स्वीकार करना और उनके द्वारा लिये गये निर्णयों की परिस्थिति और प्रक्रिया को यथारूप समझना। निर्णयों पर चर्चा आवश्यक है क्योंकि उससे ही निर्णयों के लेने के आधार स्पष्ट होते हैं। तब तो और भी चर्चा करना बनता है जब पात्र ने उस पर स्वयं ही संवाद किया हो या स्पष्टीकरण दिया हो।
किस पथ जायें हम (चित्र साभार https://blogs.cfainstitute.org/) |
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (30-07-2021) को "शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल" (चर्चा अंक- 4141) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आपका बहुत आभार मीनाजी।
Deleteइतिहास पे या घटना के होने न होने पे किसी का बस भी कहाँ होता है ... जैसे की वर्तमान में जो होता है उसपर किसका बस है ... आप कल्पना को रोक सकते हैं ... कल्पना को रोकना भी वैसे कई बार बस में कहाँ होता है ...
ReplyDeleteजी आभार आपका। राम कहते हैं कि दैव है कि नहीं यह तो कर्मफल आने के बाद ही पता चलता है।
Deleteआपका लेख बहुत अच्छा है लेकिन आपके विचार आपके इस लेख पर भी लागू होते हैं। जीवन में किसी भी प्रकार के 'वाद' को आत्मसात् करना स्वयं को सीमित करना ही है। पुरुषार्थ तथा वैकल्पिक निर्णयों के परिणामों (अर्थशास्त्र की भाषा में 'अवसर लागत') की महत्ता सनातन है किन्तु प्रारब्ध का भी अस्तित्व तो है ही (जिसे अंग्रेज़ी में एक्स फैक्टर कहते हैं) जिस पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। यह विषय अत्यंत गहन अध्ययन एवं शोध की मांग करता है। अच्छे लेख के लिए आपका अभिनंदन एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजी आपसे सहमत हूँ। संतुष्ट न हो जाने तक प्रश्न उठाते रहने का क्रम किसी अन्यथा वाद को गहरे पैठ बनाने भी कहाँ देता है?
Deleteनिर्णय का वैकल्पिक विश्व तो है ही, किन्तु आज का निर्णय कल का भविष्य है यही सत्य है !!
ReplyDeleteजी निश्चय ही अनुपमाजी। भविष्य अच्छा हो अतः वर्तमान में श्रेष्ठ करने के लिये भूत के निर्णयों की समीक्षा आवश्यक है।
Deleteबड़ा ही सरल होता है किसी महापुरुष को पूजायोग्य बनाकर उनके सारे निर्णयों को उनके ही महापुरुषत्व में तिरोहित कर देना, पर बहुत कठिन होता है उन्हें मानवरूप में स्वीकार करना और उनके द्वारा लिये गये निर्णयों की परिस्थिति और प्रक्रिया को यथारूप समझना। निर्णयों पर चर्चा आवश्यक है क्योंकि उससे ही निर्णयों के लेने के आधार स्पष्ट होते हैं। तब तो और भी चर्चा करना बनता है जब पात्र ने उस पर स्वयं ही संवाद किया हो या स्पष्टीकरण दिया हो।---
ReplyDeleteगहन लेखन...। पारदर्शिता हमारे सभी के अंदर है, बस हमें अपने से बात करने का साहस जुटाना होता है और ऐसे महत्वपूर्ण दौर में यह बात तौ अधिक गहरी होकर उभरकर सामने आ रही है।
जी संदीपजी, आभार आपका। राम ने अपने वनगमन के निर्णय को ५ संवादों से स्पष्ट किया है, सम्प्रति उस विषय पर लिख रहा हूँ।
Deleteनिर्णयों पर चर्चा आवश्यक है क्योंकि उससे ही निर्णयों के लेने के आधार स्पष्ट होते हैं। बिल्कुल सही कहा, प्रवीण भाई।
ReplyDeleteआभार आपका ज्योतिजी।
Deleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteजी आभार
Deleteप्रवीण भाई,मैं आपकी बात से सहमत हूं,मुझे ज्यादा जानकारी नहीं परंतु प्रिय पृथु की उम्र का मेरा बेटा बिलकुल मुझे समझाते हुए मेरे मन को अक्सर इन्हीं विषयों पर झकझोर देता है,जहां निर्णय करना कठिन होता है क्योंकि हमने तो काल्पनिक दुनिया की सच्चाई को स्वीकार करने में हमेशा गुरेज किया है पर कल्पना का भी एक संसार है जो आगे चलकर सच भी हो सकता है,बहुत सारगर्भित आलेख।
ReplyDeleteजी कल्पना के माध्यम से निर्णयों का मूल्यांकन एक स्पष्टता दे देते हैं। लक्ष्य क्या था और प्राप्त क्या हुआ? नयी पीढ़ी का अपना बौद्धिक रंग है, भिन्न है पर उजला है। बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत सारगर्भित लेख ,हर हो चुके और हो सकता था मैं अन्तर तो है, पर आकर्षण भी है, और सही कहा आपने उस में हो चुके से ज्यादा शोध करनी होती है जो परिश्रम भी ज्यादा करवाती है पर मनोरंजक होती है, और हर शोध करने वाले को नई दिशा दिखलाती है।
ReplyDeleteबहुत चिंतन परक लेख आपके पूत्र को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
जी सहमत हूँ आपसे। आश्चर्य होता है इस कल्पनाशीलता को देख कर।
Deleteफेसबुक से
ReplyDeleteUmesh Pandey
अद्भुत विष्लेषण
गंभीर और प्रभावी आवाज
निर्णय करना एक प्रक्रिया है और वह एक समय पर होता है इसलिए अपने चारों और का परिवेश और साथ–साथ घटने वाली घटनाएँ परिणाम को प्रभावित करती है
🙏🙏
Shailendra Gwalior
अविरत चलने वाली चर्चा जिसका कोई अन्त नहीं, किसी का काश तो किसी का अगर रह ही जाता है सर जी ।
Vaibhav Dixit
सर बहुत ही जिज्ञासु शीर्षक है मन की उत्कंठा बढ़ती जाती है ऐसे विषयों पर 🙏🙏
Umesh Shukla
कर्मफल का सिद्धान्त तार्किक है, न्यायदर्शन में विस्तृत रूप से सिद्ध है और मुझे स्वीकार भी है। पर सबकुछ ही पहले से नियत है इस सिद्धान्त को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। यदि माने कि सब दैव का किया धरा है और बस भोगना ही है तो भोग लेने के बाद मुक्ति तो स्वतः ही मिल जानी चाहिये। तब किस बात के प्रयत्न और कौन से कर्तव्य? एक परिस्थिति में लाने का कार्य दैव कर सकता है पर उस परिस्थिति में क्या निर्णय लेना है इसकी पूरी छूट हमें सदा ही रही है, हमारे सामने विकल्प सदा ही उपस्थित रहे हैं। निर्णय की इस जागृत प्रक्रिया के बाद जो भी विकल्प हम चुनते हैं, उसी के आधार पर हमारे अगले संस्कार, कर्माशय, विपाक आदि तैयार होते हैं। यही न्यायसंगत, तार्किक और व्यवहारिक भी है
_____________________________________________________🌻🌹🌻🌹🌻🌻🌹🌈
प्रारब्ध और पुरुषार्थ को लेकर चली आ रही अंतहीन विमर्श का सर्वोत्तम और सर्व ग्राहय समाधान के लिए बार बार साधुवाद...,🌹🌻🌹🌻🌹🌻💐
Sudhir Khattri
सर ज्योतिष शास्त्रों में कहा गया है कि पांच चीजों का निर्माण विधाता गर्भ में ही कर देते हैं जैसे जन्म समय,वित व्यवस्था, कर्म कैसा होगा,विधा कैसी होगी,निधन कब होगा ,फिर हमारा विवेक तदनुसार ही निर्णय लेता है आयु,विक्तं ,कर्मं च विधा निधन मेव च पंचतानि ही सरजयनते गर्भ स्ये तस्य देहिनाम, लिखने में त्रुटि के लिए झमा
Madan Mohan Prasad
बहुत ही सम्यक विवेचन।सब-कुछ नियतिवाद पर ही आधारित नहीं है।जैसे श्रमण, योग,विपश्यना और दूसरे सिद्धान्त। बौद्ध साहित्य में भी ऐसी परिचर्चा है।अथाह और अगाध है ज्ञान की गुत्थी।हर खोज में एक नयी चीज मिलेगी।जिन ढूँढा तिन पाइंआ गहरे पानी पैठ। परन्तु भोलेनाथ का भण्डार खाली नही होने को। महोदय, कर्म की प्रधानता तो सर्वोपरि है, इसी सत्य को स्थापित करती है ,कथा महाभारत की। बहुत बहुत सुन्दर और तार्किक परिचर्चा आपने की है।धन्यवाद महोदय।
बहुत सारगर्भित लेख
ReplyDelete