20.7.21

भीष्म या प्रयोगधर्मी


कल ज्ञानदत्तजी का ब्लाग पढ़ रहा था। पिछले ५-६ ब्लागों से ज्ञानदत्तजी ने अपनी सिद्धविधा में परिमार्जन किया है, लेखन को साथ में वार्तालाप भी जोड़ दिया है। वह जो भी विषय लेते हैं, उसके तथ्यात्मक और सैद्धान्तिक पक्ष तो रखते ही हैं, उस पर अपना विशिष्ट दृष्टिकोण भी रखते हैं। रोचकता तब और बढ़ जाती है जब उसके व्यवहारिक पक्षों पर चर्चा भी होती है। यह सुनने में आनन्द आता है, आधे घंटे से अधिक कब निकल जाते हैं, पता ही नहीं चलता।


ज्ञानदत्तजी प्रयोगधर्मी हैं, रेलवे सेवा में मेरे वरिष्ठ रहे हैं और कई विषयों में उत्साहवर्धन के साथ मेरा मार्गदर्शन भी किया है। ब्लाग के साथ ही उस विषय पर चर्चा एक अभिनव प्रयोग है और मेरी दृष्टि में अत्यन्त सफल भी। अभिनव इसलिये कि नयी पीढ़ी के पास आधुनिक परिवेश में इतना समय नहीं है कि बैठकर १० मिनट कोई ब्लाग पढ़ सके। तो समय के साथ उनको सुनने का विकल्प देना अभिव्यक्ति को बिना बदले हुये सुविधाजनक बनाना है। पढ़ने में स्वर जैसा उतार चढ़ाव नहीं आता है, भाव सपाट से चलते हैं। शब्दों की थिरकन प्रभाव तो लाती है पर उतना नहीं जितना स्वर लाते हैं। वैसे भी शब्दों की थिरकन के चितेरे कहाँ हैं अधिक अब?


मुझे लगता है जब मैं अपनी कविता पढ़कर सुनाता हूँ, उसमें सन्निहित भाव तब अधिक मुखर होते हैं। निश्चय ही अब आने वाले समय में बातें कही जायेंगी और सुनी जायेंगी। लिखने और पढ़ने वाले उतने ही रहेंगे पर सुनने वालों से हिन्दी अपना प्रचार पायेगी।


यद्यपि यूट्यूब के माध्यम से लोग अपनी बाते कहते हैं पर उसमें दृश्य अधिक है और तत्व कम। वैसे भी दृश्य माध्यम चुनना था तो पढ़ना ही श्रेयस्कर था? वीडियो में एक तो डाटा अधिक लगता है, आँखें बँध जाती हैं और अन्य कोई कार्य नहीं किया जा सकता है। जब समय घर से बाहर अधिक बीत रहा हो, कार में, ट्रेन में या टहलने में समय के उपयोग की बात आये तो लोग कान में ईयरफोन लगाकर सुनना रुचिकर मानते हैं। अभी संगीत मुख्य है पर आने वाले समय में पाडकास्ट एक मुख्य अभिव्यक्ति होगी। 


ज्ञानदत्तजी ब्लाग के साथ ही अपना पाडकास्ट डाल देते हैं तो विकल्प रहता है कि सुनते हुये अन्य कार्य भी किये जा सकें। साथ ही साथ चर्चा का स्वरूप अधिक ग्राह्य होता है। ब्लाग के साथ पाडकास्ट का यह प्रयोग अभिनव है और प्रभावी भी।


पिछले दो ब्लागों में ज्ञानदत्तजी चर्चा अपनी “मेम साहब” से ही कर रहे हैं। कई लाभ स्पष्ट हैं। पहला तो घर में ही बात करने के लिये कोई है और उसके लिये उन्हें कहीं और नहीं जाना पड़ता। दूसरा यह कि श्रीमतीजी के अनुभव और ज्ञान का पूरा सम्मान हो रहा है और यह तथ्य उनकी विषयगत गहराई से पता चलता है। तीसरा अभिरुचियों में अपनी श्रीमती को सहयात्री बनाने का सत्कर्म और सद्धर्म। चौथा यह कि उदाहरणों के लिये दूर नहीं जाना पड़ता, सहजीवन के कितने ही साझा दशक व्यक्त करने को पड़े हैं। इस प्रयोग ने मुझे भी बहुत उत्साहित किया है। जब अपनी श्रीमतीजी को सुनाया और ऐसा ही करने को सुझाया तो उन्होंने विषय ढूढ़ने का गृहकार्य दे दिया है। अर्थ यह है कि प्रयोग अपनी सफलता के प्रथम चरण पर है।


चर्चा की श्रृंखला में पहला विषय लम्बे और सुखी जीवन के उपायों पर था। शेष दो ४५ वर्ष के बाद से अन्त तक के जीवन के बारे में था। श्रीमतीजी के साथ दो विषय, पहली गाँव की पोखरी और दूसरी एक चर्चित पुस्तक थी।


इरावती कर्वे की पुस्तक “युगान्त” पर की गयी चर्चा अत्यन्त रोचक लगी। महाभारत के विशिष्ट पात्रों के समीक्षात्मक विश्लेषण पर और मराठी भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक को “साहित्य अकादमी” के द्वारा पुरुस्कृत किया गया था। यद्यपि यह पुस्तक अब तक नहीं पढ़ी थी पर चर्चा सुनने के बाद पढ़ने का मन बन गया।


महाभारत के पात्र सबको अपने जैसे ही लगते हैं। कभी लगता है कि संभवतः मैं भी ऐसा करता, कभी लगता है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। भावों की यह निकटता तभी आती है जब विचार, संस्कार आदि मिलते हों। आपकी मन की मानवीय दुर्बलताओं और चपलताओं को किसी न किसी पात्र में आश्रय मिल जाता है। रामायण कलियुग से अधिक दूर है और अधिक आदर्शवादी, महाभारत निकट भी है और अत्यन्त व्यवहारिक भी। कृष्ण तो लीलामय हैं ही पर शेष सभी पात्र कोई न कोई विशिष्टता लिये हुये हैं।


बात भीष्म की उठी। कुरुवंश के वरिष्ठतम ने अपने सामने अपने कुल का विनाश देखा और कुछ न कर सके। आज्ञाकारी की भाँति अधर्म की ओर से लड़े भी। चर्चा में इरावती कर्वे के विचारों के साथ ज्ञानदत्तजी और भाभीजी के विचार भी सामने आये। कई बिन्दुओं पर भीष्म के व्यवहार को ठीक नहीं माना गया। यह भी कहा गया कि उन्हें उस समय उल्टा करना चाहिये। जिन स्थानों पर उन्होंने भीषणता दिखायी उसके अतिरिक्त कई अन्य स्थानों पर भी उन्हें कठोर होना चाहिये था।


मेरे मन में भी सदा ही भीष्म के लिये प्रश्न रहे हैं। मुझे कई बार लगा कि भीष्म समय के साथ बदल सकते थे, प्रयोगधर्मी हो सकते थे। कई स्थानों पर उनका मौन रहना विशेषकर व्यथित कर गया। वचनों से, निष्ठा से तो उन्हें दशरथ के समकालीन होना था जो कैकेयी के अनर्गल वचन सुनकर भी शान्त रह गये।


भीष्म के मन में क्या रहा होगा? उनकी सामर्थ्य पर कौन सा ग्रहण पड़ गया था? बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये उन पर क्रोध भी तो नहीं आता है। पता नहीं, पर मैं भी कभी भीष्म हो जाता हूँ, कहाँ रह पाता हूँ प्रयोगधर्मी?


गंगा किनारे ज्ञानदत्तजी के साथ कुछ पल


15 comments:


  1. भीष्म के मन में क्या रहा होगा? उनकी सामर्थ्य पर कौन सा ग्रहण पड़ गया था? बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये उन पर क्रोध भी तो नहीं आता है। पता नहीं, पर मैं भी कभी भीष्म हो जाता हूँ, कहाँ रह पाता हूँ प्रयोगधर्मी?..एक गहरे अनुभव पर आधारित आपका ये लेख जीवन से संबंधित बहुत बातें सिखा गया, आख़िर की ये पंक्तियां सचमुच अपने अंदर झांकने को विवश कर गईं। बहुत शुभकामनाएं आपको प्रवीण जी ।

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    1. भीष्म कुरुवृद्ध थे। आज के समाजवृद्धों को देखता हूँ तो भीष्म याद आते हैं। कारण अपने वरिष्ठ होने का कर्तव्य न कर सकना। बड़ों का कार्य होता है जोड़ना, संघर्ष रोकना। पर वे सब भी भीष्म के समान समर्थ होने के बाद भी पक्ष लेकर बैठे हैं। घर घर में यही कहानी है। आभार विषय पर आपकी अन्तर्दृष्टि का।

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  2. बहुत दिनों बाद आपके माध्यम से ज्ञानदत्त जी का ब्लॉग पढ़ा और रुचिकर जानकारी भी मिली | पॉडकास्ट सुनना वाकई आनंदकारी लगा | आपका प्रयोग भी सफल हो ऐसी शुभकामनायें आपको |

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    1. जी, ज्ञानदत्तजी आनन्द में हैं और अपने ग्राम्य प्रवास को ऊर्जान्वित किये हैं। गाँव के बारे में कई नये दृष्टिकोण मिलते रहते हैं। आभार आपकी शुभकामनाओं का।

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  3. बहुत सुन्दर आलेख

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  4. भीष्म के मन में क्या रहा होगा? उनकी सामर्थ्य पर कौन सा ग्रहण पड़ गया था? बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये उन पर क्रोध भी तो नहीं आता है। पता नहीं, पर मैं भी कभी भीष्म हो जाता हूँ, कहाँ रह पाता हूँ प्रयोगधर्मी?...
    बढ़ती उम्र के साथ भीष्म की मजबूरी भी कभी कभी समझ आती है प्रयोगधर्मिता भी कभी कभी धरी की धरी रह जाती है...हर पक्ष सुनने में सही लगने लगता है ऐसे में सब भगवान भरोसे छोड़कर भीष्म की तरह मौन होने पर मजबूर हो जाते हैं.....बहुत सुन्दर चिन्तनपरक लेख।

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    1. जी, काश मौन रह पाना इतना सरल होता। मन स्वयं कचोटता है या भविष्य कचोटेगा। आभार आपका सुधाजी।

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  5. धन्यवाद प्रवीण. आपके लिए मेरे मन में सदैव स्नेह और उत्कृष्टता के लिए आदर वाला भाव रहा है. उक्त ब्लॉग पोस्ट वही भाव फिर उभार गई.
    पॉडकास्ट निश्चय ही नयी संभावनायें खोलता है और पत्नी जी के साथ पॉडकास्ट तो (बकौल मेरी बिटिया) भविष्य में कभी भी दाम्पत्य का आकलन करने के लिए दस्तावेज जैसा है.
    इस तरह के ओरिजिनल प्रयोग शायद शिव - पार्वती ने कैलाश पर बैठे पूरे विश्व को निहारते किए होंगे. राम कथा वही शिव पार्वती पॉडकास्ट है मूलतः...
    आगे कभी हम दोनों भी चर्चा करेंगे पॉडकास्ट पर. 😊

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    1. जी सच में, वही प्रथम पाडकास्ट था। मेरा सौभाग्य होगा आपसे किसी विषय पर बतियाना।

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  6. फेसबुक से...

    Ramshankar Mishra
    बहुत अच्छा लिखा है आपने।
    भीष्म के आचरण पर प्रश्न चिन्ह लगाये जा सकते हैं पर उनकी संकल्प दृढ़ता निर्विवाद है।
    आज भी संकल्प दृढ़ता की उपमा 'भीष्म प्रतिज्ञा' से दी जाती है।

    Madan Mohan Prasad
    काल सुभाऊ कर्म बरिआई। भीष्म के जगह कोई भी होता तो वही करता जो काल कराता।इसमें कुछ सोचने की बात नही है महोदय। यही तो इहलोक का शाप है कि लाख कोशिश करो कहीं न कहीं खला रह ही जाती है। झोली खाली हो जाती है ,रास्ता बचा रहता है और जीवन की तड़प नही मिटती। जैसा प्रारब्ध सर ?

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  7. यहां आकर पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है । कभी उपस्थिति दर्ज करा कर तो कभी चुपचाप ।

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    1. जी, हृदय से आभार आपका।

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  8. बेहतरीन आलेख सर!
    वैश्या पर आधारित हमारा नया अलेख एक बार जरूर देखें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दे🙏

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    1. जी बहुत आभार आपका। आपका लेख बहुत अच्छा लगा।

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