योग शब्द युज् धातु से आया है। युज् घातु तीन अर्थों में प्रयुक्त होती है। संस्कृत व्याकरण में लगभग २००० धातुयें हैं जो १० गणों में विभक्त हैं। हर गण का एक विकिरण प्रत्यय होता है जिससे उसके रूप भिन्न होते हैं। युज् धातु भी तीन गणों में है और हर गण में उसका भिन्न अर्थ है। रोचक यह भी है कि सारी धातुयें किसी क्रिया को ही बताती हैं। धातुओं से ही सारे शब्द उत्पत्ति पाते हैं अतः यह तथ्य शब्द के उत्पत्ति के क्रियात्मक मूल को सिद्ध करता है। शब्दों के मूल में जाने से उसमें निहित क्रियायें और सन्निहित गुण पता चलते हैं। उदाहरण के लिये राम शब्द रम् धातु से आया है, अर्थ है रमना, क्रीडा करना, प्रसन्न होना। राम का शाब्दिक अर्थ है, जो हर्षदायक हो। इसी प्रकार जल या अग्नि के लिये प्रयुक्त भिन्न शब्द उनके भिन्न गुणों को व्यक्त करते हैं।
युज् धातु के तीन अर्थ इस प्रकार हैं।
- युज् समाधौ (४.७४) - चित्त स्थिर करना, बराबर स्थित होना, समत्व में होना। समाधि (सम आ धा), धा धारणे।
- युज् योगे (७.७) - जुड़ना, मिलना, एकत्र करना।
- युज् संयमने (१०.३३८) - संयत करना, बाँधना, वश में रखना। संयम (सम् यम), यम उपरमे।
उपरोक्त तीनों ही अर्थ योग प्रक्रिया को समझने में सहायक हैं। ये अर्थ पिछले ब्लाग में वर्णित योगसूत्र और गीता के तीन कथनों को और भी स्पष्ट करते हैं। पहले और दूसरे अर्थ स्थितिबोधक हैं, तीसरा अर्थ प्रक्रियाबोधक हैं। शब्द का अर्थ या अर्थ का मन्तव्य समझने में यदि कोई संशय रहता है तो उसकी धातु का विश्लेषण कर हम तात्पर्य समझ सकते हैं।
योग के अर्थ, सिद्धान्त और व्यवहार को तो क्रमशः व्याकरण, योगसूत्र और गीता के माध्यम से समझा जा सकता है पर उनको जीवन में प्रयुक्त करने में सतत प्रयत्न करना पड़ता है। अष्टाङ्गयोग की प्रक्रिया और योगेश्वर की व्याख्या अन्ततः उस वर्तमान पर आकर ठहरती है जिसे हमें निभाना होता है। वही हाथ में रहता भी है और कुछ नियन्त्रण में भी। सारे के सारे उपाय, ज्ञान, उपक्रम उसी एक क्षण को निभाने के लिये आपको तैयार करते हैं, जिसे वर्तमान कहा जाता है। जो हो रहा है, यत वर्तते, वह वर्तमान। आने के पहले वह भविष्य था, बीतते ही वह भूत हो जाता है, एक क्षण ही है वर्तमान। विस्तार करना चाहें तो जीवन कम पड़ जायेंगे और संक्षिप्त करें तो एक क्षण में सिमट जाता है सब कुछ। अनुभव अन्ततः यही सिखाता है कि वर्तमान को कैसे निभायें।
काल बड़ा निर्दयी होता है। वर्तमान के उसी एक क्षण में ही हमें संकुचित कर देता है, न एक क्षण उधर, न एक क्षण इधर। यदि उस क्षण पर भी हमारा नियन्त्रण न रहा तो कुछ भी नियन्त्रण में नहीं रहेगा। यदि कर्तव्य के उस क्षण में हम भूत या भविष्य के विकल्प में उलझे रहे तो कुछ भी नहीं मिलेगा। जो भी हमें तैयारी करनी है, जो भी हमें संस्कार डालने हैं, उसी एक क्षण को निभाने के लिये, जो वर्तमान है। गीता(४.६) में कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के क्षण हमारी मनोदशा हमारा नया जन्म निश्चित कर देती है, अतः अन्तकाल में कृष्ण का स्मरण करना चाहिये। साधकों के सारे जीवन बस इसी तैयारी में निकल जाते हैं कि मृत्यु के क्षण में वह शक्ति और सामर्थ्य रहे कि ईश्वर का स्मरण मन में रह सके।
मृत्यु का क्षण दो जन्मों को विभक्त करता है अतः उस पर प्रयुक्त मनःस्थिति महत्वपूर्ण दिखती है। वर्तमान के क्षण को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो वह भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अगले ही क्षण मन की एक नयी स्थिति होती है, एक नया जन्म होता है। अनुभव के आधार पर वर्तमान के उसी क्षण को निभाने के सरल से कुछ प्रयास करता हूँ। समर्थ नहीं हूँ, बहुधा काल के द्वारा ढकेल दिया जाता हूँ। मानसिक दुर्बलतायें प्रबल हो जाती हैं, जो चाहता हूँ, जो सोचता हूँ, वह नहीं कर पाता हूँ। फिर भी सभी प्रयासों को कोटिबद्ध कर व्यक्त कर रहा हूँ।
- स्मृतियों को निष्कर्ष दें। राग, द्वेष से उन्हें मुक्त करें। अस्मिता (यह मैंने किया है) से बचें। टालना उचित नहीं हैं, यदि ऐसा किया तो वे पुनः लौटकर आयेंगी। यथासंभव उनकी तीक्ष्णता मन्द करें।
- कल्पना सृजनशीलता के लिये तो अच्छी है पर कब वह चिंता के ग्रास में चली जाती है, पता ही नहीं चलता है। कार्यविशेष से ही भविष्य में विचरण करें और शीघ्र ही वर्तमान में लौट आयें। बीच में अपने से प्रश्न अवश्य पूछें कि यह चिंता किस चिन्तन की भटकन है?
- कुछ ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं या देख रहे हैं तो उस समय और किसी विचार को न आने दें, सप्रयास। मन उकता जाता है, भागता है। ध्यान का तनिक अभ्यास इसमें सहायक होता है। बीच बात में बोलने के क्रम पर संयम रखे। यह इसलिये होता है कि हम सुनते समय सीखने के स्थान पर सोचने लगते हैं और स्वयं को व्यक्त करना चाहते हैं।
- किसी कर्म में लगे हो तो तन्मय होकर करें, शत प्रतिशत। एक साथ कई कार्य करने से दोनों से ही न्याय नहीं होता है और मन भटकता है सो अलग। एकाग्रता से समय, ऊर्जा की बचत तो होती ही है, साथ में कार्य की गुणवत्ता भी स्तरीय होती है। सम्यक रूप से निष्पादित कर्म तृप्ति की अनुभूति कराता है, अपने निष्कर्ष को पा जाता है, अन्यथा स्मृतियों में नहीं आता है।
- जब विश्राम करने जायें, इतना क्लान्त हो जायें कि मन को भ्रमण करने के लिये कुछ अवसर ही न मिले। निद्रा के हर क्षण में शरीर स्वयं को ऊर्जा से पुनः पूर्ण भरता रहे, प्रतिदिन। दिनभर के अतृप्त क्षण, अतृप्त निष्कर्ष रात्रि में आपको असहाय पा हाहाकार न मचाने पायें, इसके लिये आवश्यक है कि उनको यथासंभव, यथाप्रयास और यथासमय निष्कर्ष पर पहुँचाया जाये।
- जब कुछ करने को न हो, कुछ जानने को न हो, स्मृति और कल्पना में मन आड़ोलित न हो, मन चैतन्य हो, तब शान्त बैठकर स्वयं को ही निहारें। प्रश्नों को पूछें, उत्तरों को ढूढ़ें। यह एकान्त अन्वेषण कई उलझनों को सुलझा देता है। एकान्त न सह पाने की प्रवृत्ति तभी आती है जब हम प्रश्नों से भागना चाहते हैं। हमें यह भय रहता है कि संभावित उत्तर हमको उद्वेलित कर जायेंगे, हमारे तथाकथित स्थिर जीवन को अस्थिर कर जायेंगे। मुझे तो लगता है कि जीवन के सर्वाधिक उत्पादक क्षण वे थे जब हाथ में कुछ करने को नहीं था, मन में कुछ सोचने को नहीं था।
प्रयास करता हूँ कि वर्तमान में जी सकूँ। बहुधा भटकता हूँ पर यथासम्भव वापस लौटने का प्रयत्न करता हूँ।
आपके गहन अध्ययन और मंथन के निष्कर्ष में लिखे गये छः सूत्र मनुष्य मन के विचारों का निचोड़ है जो एक सार्थक दिशा देने में सक्षम है।
ReplyDeleteसादर प्रणाम सर।
जी धन्यवाद श्वेताजी।
Deleteएकान्त न सह पाने की प्रवृत्ति तभी आती है जब हम प्रश्नों से भागना चाहते हैं। बिल्कुल सही कहा, प्रविण भाई।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteगहन चिंतन मनन करती है आपकी पोस्ट ... आध्यात्म से परिचय कराती है ...
ReplyDeleteसरल,सीधी भाषा में समझाने की दिशा में बहुत मददगार है आपकी पोस्ट ...
बहुत आभार आपका। जो समझ पाता हूँ, वही लिख देता हूँ।
Deleteजिजीविषा की ओर सतत प्रयास!!
ReplyDeleteजी आभार आपका..
Deleteचिन्तन् को अनंत गहराइयों तक पंहुचाने, प्रकाश कि नई किरण का दर्शन कराने के लिए प्रखर प्रज्ञा को सादर प्रणाम
ReplyDeleteबहुत आभार आपका गिरीशजी।
Deleteफेसबुक से...
ReplyDeleteMadan Mohan Prasad
बहुत ठीक कहा आपने महोदय। रामेश्वरम मंदिर में एक जगह मैंने पढ़ा था , कि आचरण ज्ञान की कसौटी है।आचरण को वर्तमान से जोड़कर देखा जाए । जीवन का सत्-असत् तो उसी पर अवलंबित होता है ऐसा मुझे लगता है ।
Ramshankar Mishra
अच्छी जानकारी युक्त बेहतरीन आलेख।
हम या तो भविष्य में जीते हैं या भूतकाल में।
जिस दिन हम वर्तमान में जीना सीख जाएंगे,उस दिन भूत और भविष्य दोनों संवर जाएंगे क्योंकि इन दोनों का आधार तो वर्तमान ही है।