योगसूत्र और गीता में योग की तीन परिभाषायें मिलती हैं।
- योगः चित्तवृत्ति निरोधः (योगसूत्र १.२)- योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है।
- समत्वं योग उच्यते (गीता २.४८) - समत्व योग कहलाता है।
- योगः कर्मषु कौशलम् (गीता २.५०) - योग कर्मों में कुशलता है।
इसके अतिरिक्त सांख्यदर्शन “पुरुष का प्रकृति से स्वयं को पृथक कर अपने स्वरूप में स्थित होने” को योग कहता है। यह परिभाषा “तब दृष्टा अपने स्वरूप में अवस्थित होता है (तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् - योगसूत्र १.३)” के जैसी ही है। बस प्रकृति से पुरुष(दृष्टा, स्वयं) को पृथक करने की विधि “चित्त की वृत्तियों का निरोध” है। अपने स्वरूप में स्थित होने के बाद आत्मा की क्या स्थिति होती है, उस पर योगसूत्र मौन है। यद्यपि गीता उस स्थिति का भी वर्णन करती है पर वह प्रकरण वर्तमान विषय की परिधि के बाहर है।
उपरोक्त तीन कथन हमें योगपथ पर जीवन निर्वाह करने की विधि बताते हैं। प्रथम कथन उस स्थिति को बताता है जहाँ पर आपको पहुँचना है, वह साध्य है। द्वितीय कथन उस समत्व मनःस्थिति को बताता है जिसमें रह कर साध्य तक पहुँचना है। तृतीय कथन उस मनःस्थिति में किये कर्मों के परिणाम को बताता है, कुशलता को परिभाषित करता है। तीनों ही कथन एक दूसरे से भिन्न नहीं है। जहाँ प्रथम कथन योग का सैद्धान्तिक पक्ष बताता है, शेष दो कथन योग के व्यवहारिक पक्ष को स्पष्ट करते हैं। समुचित मनःस्थिति से कर्मों में कुशलता आयेगी और दोनों अन्ततः चित्त की वृत्तियों के निरोध में सहायक होंगे।
तीनों कथनों के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषण अत्यन्त रोचक है। पहला तो एक स्पष्ट संदेश है कि कर्मों में प्रवृत्त होना ही पड़ेगा। “सकल पदारथ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।” बिना कर्म किये मन की अवस्थाओं को निष्पत्ति नहीं मिलेगी। योगपथ पर पलायन की मानसिकता स्वीकार्य नहीं है, वर्तमान का सामना करना होगा, स्मृतियों और कल्पना को भी निभाना होगा, ज्ञान प्राप्त करना होगा और कर्म में प्रवृत्त भी होना होगा।
योग जहाँ एक ओर कर्मों में प्रवृत्त होने के लिये उकसा रहा है वहीं दूसरी ओर उनमें पसर जाने के लिये मना भी कर रहा है। कर्म करिये पर निस्पृह भाव से, सम्यक ज्ञान पाकर, राग-द्वेष के बिना, ममत्व के भाव से विलग और स्वयं को असीमित और कालातीत मानकर। बिना इसके समत्व कहाँ से आयेगा? “शीतोष्ण सुखदुःखदा”, सुख दुख को शीत और ऊष्ण सा ग्रहण करने का भाव, उसी प्रकार सहन करने का भाव। जिस प्रकार हम अत्यधिक सर्दी और गर्मी से विचलित नहीं होते, सहते हैं और अपने कार्यों में लगे रहते हैं, ठीक उसी प्रकार कर्म करने को कहती है गीता। बिना समत्व के कर्मों में कुशलता नहीं आती, संतुलन आवश्यक है। विचलित न हो जायें, निर्णय प्रक्रिया प्रभावित न हो जाये, उसके लिये दृढ़ होना आवश्यक है। बिना सहे, बिना अभ्यास किये, बिना दृढ़ हुये समत्व कहाँ से आयेगा?
योग की व्याख्या में जायेंगे तो वैज्ञानिक रूप से इस प्रक्रिया को समझाया गया है, पर वह उसका सैद्धान्तिक पक्ष है, गीता उसे कर्म में अनुवादित कर उसका व्यवहारिक पक्ष बताती है। योग के अनुसार कोई भी कर्म या विचार अपनी छाप छोड़ जाता है, इसे संस्कार कहते हैं। यह संस्कार कितने गहरे और व्यापक हैं, यह इस पर निर्भर करेगा कि आपने किस संलग्नता और संलिप्तता से उसे निष्पादित किया है। वह आपका अंग बन जाते हैं और आपके भविष्य को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। वह आपके चिन्तन का अंग बन जाते हैं और स्मृति में आने का अधिकार रखते हैं। यथोचित वातावरण में वे संस्कार प्रकट हो जाते हैं। बचपन में मिले अच्छे संस्कार बड़े बड़े प्रलोभनों से बचा लेते हैं, भटकने से बचा लेते हैं। वहीं दूसरी ओर कुसंगति में मिले बुरे संस्कार पापकर्म में प्रवृत्त कर देते हैं।
योग में साध्य स्थिति में पहुँचने के लिये सारे संस्कार क्षीण होना आवश्यक है, अच्छे और बुरे दोनों ही। यदि ऐसा नहीं होता है तो चित्त में वृत्तियाँ उत्पन्न होंगी और आप कर्म में प्रवृत्त होंगे। यदि मान लिया कि समत्व भाव में रहने से नये संस्कार नहीं बन रहे हैं, पर उन संस्कारों का क्या, जो जन्म जन्मान्तर से हमारे सूक्ष्म शरीर में चिपके हैं और हमारे जन्मों का कारण हैं? योग के अनुसार ऋतम्भरा की स्थिति में पहुँचने से उन सारे कर्मबन्धनों का स्वतः ही नाश हो जाता है और हम मुक्त हो जाते हैं। उस समय हम कैवल्य की स्थिति में पहुँच जाते हैं, कैवल्य इसलिये कि उस समय हमारे पास भूत का कोई भार नहीं होता है, हम अपने स्व में स्थित होते हैं।
गीता योग के इसी सिद्धान्त के व्यवहारिक पक्ष को समझाती है। कृष्ण को योगेश्वर इसीलिये कहा जाता है कि उन्हें योग की सूक्ष्मताओं में एक सिद्धहस्तता थी। जीवन में, समाज में, व्यवहार में कैसे योग निभायें, उसे बड़े ही सरल, सुग्राह्य और स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करती है गीता। योगसूत्र के सिद्धान्त समझने के बाद गीता पढ़ना आवश्यक है। भक्ति, ज्ञान और कर्ममार्ग की भिन्नता और एकता, दोनों में ही व्यवहारिक सारल्य दिखाती है गीता। कर्मफल के साथ क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है, किस भाव से करना है? कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म कैसे देखना है? दृष्टिभेद से किस प्रकार सृष्टिभेद हो जाता है? न जाने कितनी गहन सूक्ष्मताओं से भरी है गीता। हर बार पढ़िये और जितनी सामर्थ्य हो, जितनी मन की चेतना हो, उतने रत्न निकाल लाइये।
इस परिप्रक्ष्य में मेरा अनुभव और मेरी प्रार्थना यही है कि योगसूत्र और गीता को साथ साथ पढ़ा जाये। योग के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पक्ष को साथ साथ समझा जाये। कर्म, ज्ञान और भक्ति को साथ साथ जिया जाये। दृष्टि और सृष्टि के साम्य को सकल विश्व के साथ निभाया जाये।
सात चक्रों में बढ़ने के लिये, काल की कलाओं को समझने के लिये, स्मृति और कल्पना में साम्य बिठाने के लिये, गीता को आत्मसात करने की आवश्यकता है, अपने अनुसार व्यवहार में लाने की आवश्यकता है, प्रक्रियागत सरलीकरण की आवश्यकता है। प्रक्रिया के कुछ पक्ष समझेंगे अगले ब्लाग में।
इस लेख से यह ज्ञात हो रहा है कि आपने योगसूत्र और गीता का कितना गहन अध्ययन किया है !!आपके इस लेख से हम भी कुछ कुछ ज्ञान अर्जित कर ले रहे हैं !!साधुवाद !!
ReplyDeleteजी, जो अनुभव में रहा और जो समझ आया, वह लिखने का प्रयास करता हूँ।
Deleteबहुत सुन्दर लेख
ReplyDeleteजी आभार आपका।
Deleteवर्तमान का सामना करना होगा, स्मृतियों और कल्पना को भी निभाना होगा, ज्ञान प्राप्त करना होगा और कर्म में प्रवृत्त भी होना होगा। जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए उपरोक्त बहुत सुंदर सूत्र दिए हैं आपने, बोध देती सुंदर शृंखला!
ReplyDeleteवर्तमान को तो निभाना ही होगा।
Delete