8.7.21

सात चक्र - प्रक्रिया

 

ऊर्जा के चक्रों में क्रमिक गतिमय होना कोई क्षणिक उपलब्धि नहीं है, इसके लिये निश्चित रूप से एक प्रक्रिया में निहित हो क्रमशः बढ़ना पड़ता है। अपने स्वरूप में स्थित हो, शरीर, मन और काल के आवरण से विमुक्त, अपने आराध्य की चेतना से जुड़ जाना योग है। योग को समझने के लिये दो ग्रन्थ पढ़ने आवश्यक हैं, योगसूत्र और भगवद्गीता। जहाँ योगसूत्र में विषय को एक व्यवस्थित क्रम देते हुये संक्षिप्त किया गया है और प्रक्रिया को बौद्धिक आधार दिया गया है वहीं भगवद्गीता में उसके व्यवहारिक पक्षों को विस्तार से व्यक्त किया गया है। तुलना की जाये और लगभग चार सूत्रों को एक श्लोक के बराबर रखा जाये तो भगवद्गीता का आकार योगसूत्र का लगभग १५ गुना होगा। यह होने पर भी योगसूत्र में कोई भी सिद्धान्त न्यून नहीं है और भगवद्गीता में कोई भी व्याख्या योगसूत्र से असम्बद्ध नहीं है।


पहले भगवद्गीता पढ़ी। उस समय आत्मा, कर्म, जन्म आदि के न जाने कितने सिद्धान्त समझ में आये पर कई प्रकार के योगों का वर्णन मन दिग्भ्रमित कर गया। जब कई मार्ग दिये हो, कई भेद वर्णित हों तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इसमें आपके लिये कौन सा है? लगा कि पढ़ते पढ़ते एक चौराहे पर पहुँच गये और जब तब अपनी प्रकृति का ज्ञान नहीं होगा तब तक पता नहीं चलेगा कि कौन सा मार्ग अपनाना है? अनुभवहीनता के उस प्रारम्भिक काल में यह एक कारण रहा कि प्रगति गतिमय नहीं रही। आपको अपनी प्रकृति कौन बतायेगा? आयुर्वेद को ही देखें तो समुचित दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या अपनाने के लिये आपको यह जानना आवश्यक हो जाता है कि आपकी प्रकृति कफ है, या पित्त, या वात? जानना कठिन होता है पर शरीर, मन आदि के लक्षणों से अपनी प्रकृति समझ आ जाती है।


कौन से योग में प्रवृत्त हों, यह जानना और भी कठिन है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग, निष्कामयोग आदि, इनमें कौन सा मार्ग अपनायें? बिना स्वयं को जाने किस मार्ग में प्रवृत्त हो जायें? यह यक्ष प्रश्न सदा ही सामने उपस्थित रहा। कभी कभी अध्ययनकाल में जब कठिन प्रश्न सामने रहता था तो बहुधा मन नैराश्य से उटच जाता था। पर नैराश्य भी अधिक समय तक नहीं टिकता था, जैसे ही तनिक ऊर्जा आती थी, नया विचार कौंधता था पुनः उस प्रश्न से जूझने का मन बन जाता था। प्रवृत्ति-निवृत्ति के इस असमञ्जस में युवावस्था का पर्याप्त समय निकल गया।


कभी अपनी मेधा पर विश्वास होता था और लगता था कि ज्ञानयोगी बन सकते हैं। कभी अत्यधिक उछाह और ऊर्जा कर्मयोग में प्रवृत्त कर देती थी। कभी अनुराग होता था तो कभी वैराग्य। कभी असहायता और आश्रयता प्रबल हो जाती थी और भक्तियोग के अतिरिक्त कोई और मार्ग नहीं समझ आता था। विकल्पों के न जाने कितने हिचकोले खाकर वर्षों बाद भी वहीं का वहीं मिलता था जीवन। यह तो समझ आ गया था कि संशय स्वयं की समझ में है, सिद्धान्त में नहीं। पंथ एक ही है, तीन नहीं। व्यक्ति की क्षमता के अनुसार, काल या परिस्थिति के अनुसार कुछ भेद अवश्य है जो समझ नहीं आ रहा था।


जीवन तात्कालिकताओं में व्यस्त हो गया। जब समय मिला तो पुनः अभिरुचि जागृत हुयी। गीता पढ़ी, कुछ नयी दृष्टि प्राप्त हुयी पर उपरोक्त विषय में स्पष्टता नहीं आयी। यह दैवयोग ही कहा जायेगा कि उस दिन मुख्यालय में एक बैठक समय के पहले ही सम्पन्न हो गयी, समय था पर पढ़ने के लिये कोई पुस्तक नहीं थी। गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर गीताप्रेस के स्टाल के सामने पठनीय सामग्री ढूढ़ रहा था कि पतंजलि योगसूत्र की पतली सी पुस्तक पर दृष्टि पड़ी। पढ़ना प्रारम्भ किया और वापस घर (बनारस) पहुँचते पहुँचते एक बार पढ़ना हो गया, हिन्दी अनुवाद के साथ। एक अद्भुत आनन्द आया, ज्ञान की सहज स्पष्टता पर। 


इसके पहले अन्य भारतीयों की भाँति अपनी संस्कृति के बारे में पढ़ा अवश्य था, गर्व भी था पर कोई यदि गहरे प्रश्न कर बैठे तो उसका उत्तर नहीं था। यद्यपि शास्त्र मूल रूप से पढ़े नहीं थे, कुछ एक को छोड़कर। जो पढ़े थे, वह भी हिन्दी अनुवाद तक सीमित थे। कुल मिलाकर जो ज्ञान था वह अत्यन्त सीमित और परिधि पर ही रहने वाला था। भीतर जाने का न कभी प्रयत्न नहीं किया था और कोई खींच ले तो उस पर चर्चा करने का आत्मविश्वास भी नहीं था।


पता नहीं क्यों पर उस दिन योग के सूत्र मस्तिष्क में एक के बाद एक उतरते चले गये। अगले एक माह में वह पुस्तक दो बार और पढ़ी। मन नहीं भरा, तब संस्कृत का एक एक सूत्र समझ कर पुनः पढ़ी। तब लगने लगा कि मेरी वर्षों की प्रतीक्षा, अधर में लटके संशय को इस प्रकार ही निष्पत्ति मिलनी थी। जिस समय योग के सूत्र पढ़े उस समय गीता के श्लोक सहायक रहे। आनन्द तब आया जब योगसूत्र की प्रारम्भिक समझ के बाद गीता पढ़ना प्रारम्भ किया। ऐसा लगा कि हाथ में कोई चाभी है और जिससे एक एक श्लोक के रहस्य स्वतः खुलते जा रहे हैं।


पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा हुआ कि गीता का पारायण करने वाले अन्य साधकों के साथ भी ऐसा होता है। आजकल प्रबन्धन के प्रशिक्षण में गूढ़ तत्वों को समझने के लिये एक विशेष समस्या को उदाहरण के रूप में लेते हैं और उसे प्रबन्धन के सिद्धान्तों के माध्यम से सुलझाते हैं। स्थिति विशेष में प्रयुक्त होने से सिद्धान्त स्पष्ट होते जाते हैं। मुझे लगता है कि गीता में पतंजलि योगसूत्र के सारे के सारे सिद्धान्तों का प्रयोग बताया है। जिस समस्या पर सिद्धान्त प्रयुक्त हुये हैं, अर्जुन के समान दिग्भ्रम लगभग सभी के जीवन में आते हैं। योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन की समस्या के उदाहरण से योगसूत्र के सिद्धान्तों को स्पष्ट कर दिया है।


योगसूत्र और गीता को परस्पर परिप्रेक्ष्य में समझना एक अद्भुत अनुभव रहा है। सैद्धान्तिक पक्ष स्पष्ट होने से उन पर व्यवहार करना सरल हो गया है। अभ्यास और वैराग्य पर आधारित इस समझ को पूर्व में एक ब्लाग श्रृंखला के माध्यम से व्यक्त किया था। हर बार पढ़ने से वही शब्द और गहरे जाकर पैठ जाते हैं।


मन से सम्बन्धित योग के व्यवहारिक पक्ष अगले ब्लाग में।

16 comments:

  1. भारतीय दर्शन और साहित्य में आपकी रुचि और आपके लेख अदभुत और अनुकरणीय हैं।अपने कार्य के दौरान इसके लिए समय निकाल कर गहन अध्ययन करना सराहनीय है ।

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    1. जी धन्यवाद आपका। सबकी सहज प्रवृत्ति है जानने की और वैदिक स्रोतों से अधिक भला और क्या संतुष्ट कर सकता है?

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  2. जी, आपका यह लेख तो सुबह-सुबह बोध गया के पीपल के पेड़ के नीचे बिठा गया। मेरी ढेर सारी भ्रांतियों के छंटने के दरवाजे आपने खोले हैं। अब योग सूत्र पढ़ने का इंतज़ार है। अत्यंत आभार आपके इस अत्यंत ज्ञानप्रद लेख का। समय निकालकर इस विषय पर आपके ब्लॉग पर आए पहले के लेखों को भी पढ़ने की कोशिश करेंगे।

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    1. जी बहुत धन्यवाद आपका विश्वमोहनजी। जो समझ में आ जाता है वह व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ। यदि संशय भी समझ में आता है तो उसको भी व्यक्त कर देता हूँ। आपके साहित्य सृजन से विशेष रूप से प्रभावित हूँ।

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  3. योग सूत्र और भगवद् गीता का अद्भुत समन्वय आपने इस लेख में किया है, सही कहा है, अभ्यास और वैराग्य ही साधना का आधार हैं। सार्थक बोधपूर्ण लेखन!

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    1. जी बहुत आभार अनीताजी। कृष्ण ही बताते हैं अभ्यास और वैराग्य के बारे में। दोनों ही आवश्यक हैं।

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  4. भगवद्गीता और योगसुत्र का बहुत ही सविस्तर अध्ययन कर उनका अद्भुत समन्वय किया है आपने, प्रवीण भाई।

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    1. बहुत आभार आपका ज्योतिजी। कल सपत्नीक आपके लिखे कई लेख पढ़े, आनन्द आ गया। उसका विशेष आभार।

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  5. सतत सुफल प्रयास !

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    1. बहुत आभार अनुपमाजी। आपका उत्साह प्रेरित करता है।

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  6. प्रवीन जी नमस्‍कार, योगसूत्र और गीता...अभ्यास और वैराग्य के माध्‍यम से ल‍िखा गया आपका ये अनुभवजन‍ित लेख बेहद ही उत्‍कृष्‍ट है

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  7. मुझे ज्यादा ज्ञान तो नही,परंतु आपके लेख से ये प्रेरणा मिल रही है, कि हमारे अपने ही ग्रंथों में ही जीवन का सार छुपा है,बस हमे गहन अध्ययन करने के बाद ही वह संजीवनी मिलेगी, मैने गीता पढ़ी है प्रवीण भाई,समझ भी आई,पर सत्य तक पहुंचने के लिए मार्ग ही नहीं मिला,आपसे प्रेरित हो समय मिलते ही फिर पढ़ूंगी, इतनी सुंदर प्रेरणा के लिए आपका हार्दिक नमन एवम वंदन।

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    1. योग को मूल से समझने का प्रयास किया था, उसी रूप में व्यक्त भी किया था। पता नहीं समझा पाया कि नहीं? २४ ब्लागों में लिखा था। अन्यत्र योग की चर्चा करता रहता हूँ, विचार में रचा बसा है। फिर भी जानने और जीने में अन्तर है।
      http://www.praveenpandeypp.com/2019/08/blog-post_17.html

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