उपेक्षित जड़ प्रस्तरों पर,
कल्पना-घट पूर्ण भरकर ।
मूर्तिकारों के करों से,
सकल ही सौन्दर्य छलका ।।१।।
बलवती किस प्रेरणा से,
सुघट अंगों को बनाया ।
मात्र प्राणों की कमी है,
मूर्तियाँ बस चल पड़ेंगी ।।२।।
दृष्टिगोचर भित्तियों पर,
मनुज का उत्कर्ष विस्तृत ।
अन्त्य का निष्काम चित्रण,
कला की संज्ञा रही है ।।३।।
मन विषय उद्विग्नता पर,
डालकर शीतल फुहारें ।
मूर्तिमय सौन्दर्य निर्मल,
मन व्यथा को तृप्त करता ।।४।।
है मधुर श्रृंगार तेरा,
दीप्त मन की सत्वता से ।
जगत में होवे प्रकीर्णित,
अर्थ जन जन में मधुर का ।।५।।
दुख यही, उद्देश्य जो था,
नहीं सफलीभूत होता ।
दृष्टियाँ सापेक्ष तुझपर,
तिक्त छिन्नित वासना से ।।६।।
चित्र साभार - https://www.thepublic.in/
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteदुख यही, उद्देश्य जो था,
नहीं सफलीभूत होता ।
दृष्टियाँ सापेक्ष तुझपर,
तिक्त छिन्नित वासना से ।।६।।
न जाने किस मनोवेग में कला को निखारने के उद्देश्य से मूर्तियों और भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ होगा ।
कौन जाने क्या था मन में, ढूढ़ते हम विगत क्रम में।
Deleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteखजुराहो पर सुन्दर भावाभिव्यक्ती !!
ReplyDeleteधन्यवाद, आभार आपका।
Deleteवाह! बहुत सुंदर छवि उकेरित करती तथा शब्द सौंदर्य का उत्कृष्ट समन्वय प्रस्तुत करती रचना।
ReplyDeleteजी आभार आपका।
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