3.7.21

खजुराहो

 

उपेक्षित जड़ प्रस्तरों पर,

कल्पना-घट पूर्ण भरकर ।

मूर्तिकारों के करों से,

सकल ही सौन्दर्य छलका ।।१।।

 

बलवती किस प्रेरणा से,

सुघट अंगों को बनाया ।

मात्र प्राणों की कमी है,

मूर्तियाँ बस चल पड़ेंगी ।।२।।

 

दृष्टिगोचर भित्तियों पर,

मनुज का उत्कर्ष विस्तृत ।

अन्त्य का निष्काम चित्रण,

कला की संज्ञा रही है ।।३।।

 

मन विषय उद्विग्नता पर,

डालकर शीतल फुहारें ।

मूर्तिमय सौन्दर्य निर्मल,

मन व्यथा को तृप्त करता ।।४।।

 

है मधुर श्रृंगार तेरा,

दीप्त मन की सत्वता से ।

जगत में होवे प्रकीर्णित,

अर्थ जन जन में मधुर का ।।५।।

 

दुख यही, उद्देश्य जो था,

नहीं सफलीभूत होता ।

दृष्टियाँ सापेक्ष तुझपर,

तिक्त छिन्नित वासना से ।।६।।
























चित्र साभार - https://www.thepublic.in/

7 comments:

  1. बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

    दुख यही, उद्देश्य जो था,

    नहीं सफलीभूत होता ।

    दृष्टियाँ सापेक्ष तुझपर,

    तिक्त छिन्नित वासना से ।।६।।
    न जाने किस मनोवेग में कला को निखारने के उद्देश्य से मूर्तियों और भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ होगा ।

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    1. कौन जाने क्या था मन में, ढूढ़ते हम विगत क्रम में।

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    2. बहुत धन्यवाद आपका।

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  2. खजुराहो पर सुन्दर भावाभिव्यक्ती !!

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  3. वाह! बहुत सुंदर छवि उकेरित करती तथा शब्द सौंदर्य का उत्कृष्ट समन्वय प्रस्तुत करती रचना।

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