मन चमत्कृत करता है। विचारशील होना गति का द्योतक है, पर यदि विचारों पर ही विचार न किया तो कुछ अधूरा अतृप्त सा लगता है। एक स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है उस पर मनन करने की जिसे हम मन कहते हैं। जगत में एक अद्भुत सा निर्माण लगता है मन। जिस तरह घटनायें संचित रहती हैं, जिस तरह याद आती हैं और जिस तरह भविष्य की संभावना में बनी रहती हैं।
ज्ञान के लिये पाँच इन्द्रियों का होना, एक बार में एक से ही ज्ञान होना और यहाँ तक कि सम्मुख उपस्थित कई दृश्यों में उसी का ज्ञान होना जिस पर मन रुके। कुछ जानना और यह जानना कि हम कुछ जान रहे हैं, ज्ञान के भिन्न स्तरों का होना। विचार करते समय लगना कि हम विचार कर रहे हैं। मन के बारे में ऐसे न जाने कितने प्रत्यक्ष हैं जो हमें आश्चर्यचकित कर जाते हैं।
मन व्यस्त रहता है तो हमें अपना अस्तित्व समझ आता है, काल का बोध होता है। मन स्तब्ध होता है तो काल रुक सा जाता है। मन न रहे तो क्या समझें, क्या जाने, क्या याद करें, क्या बतायें, कैसे व्यवहार करें? देखने में तो बड़ा ही सरल लगता है पर गहरे उतरने पर मन का यह वैचित्र्य उत्कृष्ट मेधाओं को भी दिग्भ्रमित कर देता है।
न्यायशास्त्र में बड़े ही व्यवस्थित क्रम से इन्द्रिय, मन और आत्मा की भिन्नता को सिद्ध किया है। सारे के सारे तर्क, उहा, अनुमान अन्ततः प्रत्यक्ष पर ही आकर टिकते हैं। पूर्वपक्षी यथासंभव विकल्प रखता है कि यह मान लिया जाये या वह मान लिया जाये। कई अध्यायों की प्रश्नोत्तरी के बाद शेष सभी अन्यथा विकल्प अवसान पा जाते हैं और सिद्धान्ती का मत बना रहता है। एक एक तत्व की विधिवत परीक्षा और उसका यथावत निराकरण।
जहाँ आत्मा दृष्टा है और इन्द्रियाँ यन्त्रवत, वहाँ मन ही सारी व्यवस्थायें देखता है। मन की कई अवस्थायें हैं, कभी स्मृति में, कभी कल्पना में, कभी स्वप्न में, कभी ज्ञानार्जन में और कभी कर्म में ध्यानस्थ। मन गतिशील न हो, यह केवल दो ही स्थितियों में होता है, या तो सुसुप्त अवस्था में या समाधि में। एक अवस्था मन की वृत्तियों का अभाव है और दूसरी मन की वृत्तियों का निरुद्ध होना। एक अनियन्त्रित है और दूसरी नियन्त्रित।
इस दृष्टि से विश्लेषित करें तो मन अपनी अवस्थायें बदलता रहता है। मन की अवस्थाओं का उद्भव ही जन्म है और इन्हें सात विभागों में बाट देने से सारी संभावित अवस्थायें व्याख्यायित की जा सकती हैं। काल की दृष्टि से ये सात विभाग इस प्रकार हैं।
- मन गतिशील नहीं होता है। इस समय दृष्टा अपने स्वरूप में रहता है। समाधि में उसे अपने स्वरूप में बारे में निश्चयत्मकता से ज्ञात होता है, वह स्थितिप्रज्ञ होता है। जबकि सुसुप्तावस्था में अपने स्वरूप की जानकारी का अभाव होता है, वह अवस्था अस्थिर होती है।
- मन विशुद्ध वर्तमान में रहता है। जिस कर्म में निरत है, जिस ज्ञान को प्राप्त कर रहा है, उसमें शत प्रतिशत लगा हुआ। भूत या भविष्य का कोई प्रभाव नहीं, स्मृति या कल्पना से परे। तब ज्ञान निर्बाध आता है, कर्म कुशलता पूर्वक सम्पन्न होता है। कर्म और ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है यह अवस्था।
- मन विशुद्ध भूत में रहता है। स्मृति आती है, अपना पूर्ववत प्रभाव छोड़ जाती हैं. ठीक वैसा ही, जैसा पहली बार हुआ था। उस समय प्राप्त अनुभूति किसी अन्य कारण से प्रभावित नहीं होती। जितना महत्वपूर्ण वह तब था, उतना ही आज भी है। बहुधा भूत के कई अनुभव अन्य अनुभवों से मिलकर गड्डमड्ड हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं। कुछ अन्य अनुभव अतिविशिष्ट हो जाते हैं। इस सब विकारों से परे भूत की यथारूप अनुभूति।
- मन विशुद्ध भविष्य में रहता है। कल्पना की शक्ति भविष्य का सृजन करने में सक्षम है। आगामी परिस्थिति में स्वयं को स्थित कर परिमाणों की कल्पना करना। कौन कैसे बोलेगा, क्या उत्तर देना ठीक रहेगा, सभी संभावित स्थितियों का सामर्थ्यपूर्ण चित्रण। बहुत कुछ वैसे, जैसे घटना सामने घट रही है। भय, राग, द्वेष आदि से परे।
- मन वर्तमान में रहता है पर भूत और भविष्य से आन्दोलित रहता है। भूत का भय या भविष्य की चिन्तायें वर्तमान को झकझोर कर रख देती हैं। किसी को देखकर सामान्य भावों के अतिरिक्त यदि वे सारे प्रकरण याद आने लगे जिसमें उसका व्यवहार अनुचित था या भविष्य में किस तरह उसको पाठ पढ़ाया जायेगा इसका षड़यन्त्र मन में बनने लगे तो मानकर चलिये कि आपका मन तो वर्तमान में है पर भूत और भविष्य से पीड़ित है, आन्दोलित है। इसमें न तो आप वर्तमान के रहते हैं, न भूत के और न ही भविष्य के, आप कालसंकर हो जाते हो, क्षिप्त विक्षिप्त से, बद्ध से, बिद्ध से।
- मन भविष्य में रहता है पर भूत से प्रभावित रहता है। भूत में घटी घटनायें मन को अवरूद्ध कर देती हैं। कल्पनाशीलता अपने पूरे स्वरूप में नहीं निकल पाती है। बहुधा आप अपना अवमूल्यन कर बैठते हैं। परिस्थितियों की समझ विकारयुक्त हो जाती है, निर्णय अनुचित हो जाते हैं। जीवन पर भूत का इतना प्रभाव उस बोझे को ढोने जैसा है जो आपको शीघ्र ही थका डालता है। आपकी क्षमतायें क्षीण हो जाती है। अगले क्षण को सम्हालने में जो ऊर्जा आवश्यक होती है, उसे आपका अनसुलझा भूत लील जाता है।
- मन भूत में रहता है पर भविष्य से प्रभावित रहता है। बचपन में हमें खिलौने भी उतने प्रिय थे जितनी कि रोचक पुस्तकें। मित्रों के साथ एक छलरहित, उदारमना व्यवहार था। जब भविष्य में हम एक विशेष छवि को जड़ देते हैं तो स्मृति के वे अनमोल अभेद प्राथमिकतायें पाने लगते हैं। भविष्य में सफलता के प्रति आपका महत्व भूत में आपके द्वार की गयी पढ़ाई को अधिक मान देने लगती है, आपका सफल और धनाड़्य मित्र आपका अधिक ध्यान पाने लगता है। स्मृतियाँ तब विशुद्ध नहीं रह पाती, विकारयुक्त हो जाती है।
मुझे तो अस्तित्व के यही सात जन्म समझ आते हैं। प्रथम अवस्था सर्वोत्तम है और मुक्तिकारक भी। अगली तीन भी उत्तम हैं यदि ये राग द्वेष को क्षीण करें। अन्तिम तीन बन्धनकारी हैं पर साथ ही एक अवसर भी देती हैं कि हम अपने बद्ध संस्कारों को शिथिल कर सकें और अधिकतम समय प्रथम चार अवस्थाओं में बितायें।
यदि यही सात जन्म के साथ का संभावित उत्तर है जो मन की सभी अवस्थाओं सें सामञ्जस्य बैठाने को प्रेरित करता है तो एक प्रश्न पुनः उपस्थित हो जाता है। यदि अन्तिम तीन अवस्थायें बन्धनकारी हैं तो क्यों नवयुगल को उनसे बाहर निकलने की प्रेरणा नहीं दी जाती है?
छोड़िये, कारण और निवारण से परे वर्तमान में ही जीते हैं, जितने भी जन्म साथ मिले? बस वर्तमान सध जाये तो सब सध जाये।
छोड़िये, कारण और निवारण से परे वर्तमान में ही जीते हैं, जितने भी जन्म साथ मिले? बस वर्तमान सध जाये तो सब सध जाये।
ReplyDeleteमन की अवस्थाओं में सामंजस्य बैठने में सहायक होगा आपका विचारपरख लेख !!
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
Deleteआभार अनुपमाजी।
सुंदर विश्लेषण सात जन्मों के बारे में,पर यथार्थ तो आपकी अंतिम पंक्तियों में निहित है,जो आज का जीवन जीने के लिए प्रेरणा दे रही हैं।
ReplyDeleteजीने का अवसर तो वर्तमान ही देता है। आभार आपका।
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