(एक ऊँची अट्टालिका में रस्से से लटके और काँच पोंछते हुये श्रमिक पर)
दीखता स्पष्ट वह नर,
बादलों के बीच स्थिर,,
गगन पथ पर अग्रसर वह,
एक रस्से डटा टिककर।
आज नीचे दृष्टि जाकर,
दे रही आनन्द आकर,
सभी चींटी से खड़े है,
स्वप्नसम आकार पाकर।
स्वेद से माथा भिगोता,
कर्म में सब श्रम डुबोता,
देखता प्रतिबिम्ब में जब,
रूप अपना मुग्ध होता।
बादलों के लोक आकर,
आज उनसे शक्ति पाकर,
संग में तुम और हम भी,
दौड़ लेंगे जी लगाकर।
तनी जो अट्टालिकायें,
पद तले निर्मम दबायें,
नाप ली हमने सहज ही,
गर्व की सारी विमायें।
पोंछता है काँच दिनभर,
जा सके निर्बाध दिनकर,
शेष सब नेपथ्य छिपते,
दीखता स्पष्ट वह नर।
बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
ReplyDeleteसादर
आभार अनीताजी
Deleteस्वेद से माथा भिगोता,
ReplyDeleteकर्म में सब श्रम डुबोता,
देखता प्रतिबिम्ब में जब,
रूप अपना मुग्ध होता।
श्रम का बाहुल्य दर्शाती सुन्दर रचना !!
श्रम आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है उसका यथोचित मान। आभार आपका।
Deleteवाह , बहुत सुंदर भाव । श्रम कर स्वयं से ही प्रेम की भावना आ जाती है । अपने ही रूप पर मुग्ध हो जाता है ।
ReplyDeleteऊँचाई पर पहुँच कर कहाँ आइना दिखता है लोगों को? श्रमिक आनन्दित है।
Deleteश्रम के पुरोधा को नमन, सुंदर भावना को व्यक्त करती रचना के लिए शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआभार आपका जिज्ञासाजी।
Deleteपोंछता है काँच दिनभर,
ReplyDeleteजा सके निर्बाध दिनकर,
शेष सब नेपथ्य छिपते,
दीखता स्पष्ट वह नर। --बहुत ही गहन रचना है...शानदार पंक्तियां।
आभार आपका संदीपजी।
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