5.6.21

दीखता स्पष्ट वह नर


(एक ऊँची अट्टालिका में रस्से से लटके और काँच पोंछते हुये श्रमिक पर)


दीखता स्पष्ट वह नर,

बादलों के बीच स्थिर,,

गगन पथ पर अग्रसर वह,

एक रस्से डटा टिककर।


आज नीचे दृष्टि जाकर,

दे रही आनन्द आकर,

सभी चींटी से खड़े है,

स्वप्नसम आकार पाकर।


स्वेद से माथा भिगोता,

कर्म में सब श्रम डुबोता,

देखता प्रतिबिम्ब में जब,

रूप अपना मुग्ध होता।


बादलों के लोक आकर,

आज उनसे शक्ति पाकर,

संग में तुम और हम भी,

दौड़ लेंगे जी लगाकर।


तनी जो अट्टालिकायें,

पद तले निर्मम दबायें,

नाप ली हमने सहज ही,

गर्व की सारी विमायें।


पोंछता है काँच दिनभर,

जा सके निर्बाध दिनकर,

शेष सब नेपथ्य छिपते,

दीखता स्पष्ट वह नर। 

12 comments:

  1. बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
    सादर

    ReplyDelete
  2. स्वेद से माथा भिगोता,
    कर्म में सब श्रम डुबोता,
    देखता प्रतिबिम्ब में जब,
    रूप अपना मुग्ध होता।
    श्रम का बाहुल्य दर्शाती सुन्दर रचना !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. श्रम आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है उसका यथोचित मान। आभार आपका।

      Delete
  3. वाह , बहुत सुंदर भाव । श्रम कर स्वयं से ही प्रेम की भावना आ जाती है । अपने ही रूप पर मुग्ध हो जाता है ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ऊँचाई पर पहुँच कर कहाँ आइना दिखता है लोगों को? श्रमिक आनन्दित है।

      Delete
  4. श्रम के पुरोधा को नमन, सुंदर भावना को व्यक्त करती रचना के लिए शुभकामनाएं ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका जिज्ञासाजी।

      Delete
  5. पोंछता है काँच दिनभर,

    जा सके निर्बाध दिनकर,

    शेष सब नेपथ्य छिपते,

    दीखता स्पष्ट वह नर। --बहुत ही गहन रचना है...शानदार पंक्तियां।

    ReplyDelete
  6. This is really fantastic website list and I have bookmark you site to come again and again. Thank you so much for sharing this with us Emotional quotes
    girly quotes
    good night
    hunk water
    touching Quotes

    ReplyDelete