अपने आराध्य का भीरुभक्त हूँ, सम्मुख होने का साहस नहीं जुटा पाता। मेरी क्षुद्रता मेरे आत्मविश्वास को हर लेती है। जब मन की दुर्बलतायें पैरों में बन्ध बन कर पड़ी हों तब वह उत्साह कहाँ से जुटाऊँ जो बढ़ने के लिये प्रेरित करे। अपने ही स्वार्थ-उपक्रमों में इतना मुग्ध हूँ कि छोड़ने की इच्छा ही नहीं होती। एक भय सा लगता है कि यदि यह सब छूट गया तो जीवन में शेष क्या रहेगा, एक रिक्त, एक सन्नाटा, एक स्तब्धता। अपने श्रीराम के चरित्र से अभिभूत हूँ और प्रेरित भी। यदि वह पूँछ बैठे कि क्यों इतना स्नेह रखते हो, क्यों इतनी श्रद्धा रखते हो तो उत्तर देना असंभव हो जायेगा। क्या उत्तर रहेगा? मर्यादा, धैर्य, प्रेम, समत्व, वात्सल्य, शरणागत रक्षा, कौन सा ऐसा गुण नहीं है, कौन सी ऐसा प्रकरण नहीं है, कौन सा ऐसा कर्म नहीं है जो अभिभूत न करता हो, जो मन को स्पर्श न करता हो। अगले ही क्षण तब लगेगा कि कौन मुझ सा पाखण्डी है, कपटी है कि कहता कुछ हूँ और करता कुछ। एक भी ऐसा गुण नहीं जिसका लेश मात्र भी अनुसरण कर सकूँ। मेरे पूरे व्यक्तित्व को स्वार्थ इस प्रकार घेरे है, तम इस प्रकार जकड़े है कि आराध्य का अनुसरण कैसे हो?
आराध्य यह सब देखता है, आपके मन को समझता है, आपकी दुर्बलता को जानता है। जब आपकी किंकर्तव्यविमूढ़ता अपने चरम पर होती है तो वह स्वयं ही निश्चित करता है कि किस प्रकार आपको आपके आवरण से बाहर निकालना है। अपने आराध्य पर यह विश्वास ही भक्त की शक्ति है, उसका एक मात्र गुण है। दो ही मार्ग है तब, या तो अपना प्रिय जानकर आपका तात्कालिक सुख देखे या आपका दीर्घकालिक हित देखे। आपका आराध्य तब संभवतः एक ऐसा मार्ग चुनता है जिसमें दोनों ही तत्व रहें। उस मार्ग में पीड़ा होती है जो कि बन्धन टूटने में स्वाभाविक ही है। उस समय भी यदि आपका अपने आराध्य पर विश्वास बना रहता है तो पीड़ा भयावह नहीं लगती, पीड़ा सहनीय हो जाती है। यदि उस समय आप अपना धैर्य खो देते हैं और आपकी निष्ठा डिग जाती है तो आपका आराध्य आपको दिशा दिखाना बन्द कर देता है। अपने आराध्य पर स्थिर श्रद्धा ही आपकी स्वीकारोक्ति है।
यह सिद्धान्त समझने में सरल पर निभाने में कठिन लगता है। भक्ति की राह शक्ति के दम्भ से भिन्न है। आप अपने आराध्य को आमन्त्रित करते हैं कि वह आपको राह दिखाये, सही निर्णय लेने को प्रेरित करे। कार्य तो आपको करना है, पुरुषार्थ भी आपको करना है, पर किस क्षण प्रवृत्ति हो या किस क्षण निवृत्ति इस विभ्रम में एक प्रेरणा मिल जाती है। बहुधा आपके ऐसे व्यक्ति मिल जाते हैं, ऐसी परिस्थितियाँ मिल जाती हैं कि श्रम तनिक न्यून और समय तनिक शीघ्र हो जाता है। आराध्य की कृपा का यही स्वरूप मन में लिये जीता हूँ।
आराध्य के सम्मुख जाने में मेरी भीरुता और फिर भी आराध्य की कृपा पाने की उत्कट अभिलाषा मुझे उनके अनन्य भक्तों के पास जाने को प्रेरित करती है। कुछ मेरा भय कम होगा और कृपा का स्रोत भी बना रहेगा। बाल्यकाल से नित्य हनुमान की प्रतिमा के दर्शन मात्र से ही उन पर एक अटूट विश्वास सा उत्पन्न हुआ है और बना हुआ है। भय के न जाने कितने क्षणों में उनकी आराधना ने बाहर निकाला है। तनाव से जीर्णशीर्ण मन को यदि किसी आकृति ने हर बार आश्रय दिया है तो ध्वजा और गदा धारे बजरंगबली ने। जगत विरुद्ध हो चला हो, कुछ उपाय समझ न आ रहा हो, भीषणतम काल प्रवाह हो, एक अभिभावक के रूप में सदा ही उनको निकट पाया है। तब निष्कर्षों के सभी संभावित विकल्प अपने हनुमान के चरणों में अर्पित कर निश्चिन्त हो जाता हूँ, जो भी प्रसाद मानकर मिल जाये।
अपने विशिष्ट व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण हनुमान हम सबके नायक हैं और यथासमय, यथास्थान हमें प्रेरणा भी देते रहते हैं। तुलसीदासजी के भी प्रेरक हनुमान थे। कल्पना कीजिये, जब जनमानस आक्रांताओं के अधर्म, बर्बरता औऱ क्रूरता के कारण नैराश्य में डूबा था, उस समय सबके सम्मिलित आर्त भावों को किसी अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा थी। उस अभिव्यक्ति की जो व्याप्त अन्याय के विरुद्ध, प्रचलित राक्षसत्व के विरुद्ध न केवल एक विचारधारा उत्पन्न कर सके वरन उस पर विजय पाने का उदाहरण भी प्रस्तुत करे। श्री राम का जीवन तो सदा ही अन्याय को मिटाने में बीता है, हाथ में धनुष, उत्पातियों और अधर्मियों का संहार। हनुमान स्वयं ही उस महत्कार्य में सहायक रहे हैं और उन्ही की साक्षात प्रेरणा से श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ की रचना हुयी जो शताब्दियों से हमारे जनमानस को प्राणवन्त करता आया है।
न जाने कितने रामभक्तों के आर्त स्वर तुलसी के शब्दों से फूटे हैं। अपने आराध्य का चरित्र रचकर तुलसी दास ने उन्हें शब्दों का भोग अर्पित किया है। तुलसीदास के इन्हीं शब्दों में बँध सा जाता हूँ जब भी कुछ पढ़ने बैठता हूँ। एक अद्भुत गहराई है विचारों की, सारल्य है अभिव्यक्ति का, एक निचोड़ है संस्कृति के सहस्रों वर्षों का, लगता है कि कोई आपका अपना आपसे आपकी व्यथा कह रहा हो। तुलसीदास को जितना पढ़ता हूँ, उतनी ही उत्कण्ठा बढ़ जाती है और पढ़ने की। संस्कृति, संगीत, संस्कृत, काव्य, छन्द, नीति, वेद, दर्शन, क्या नहीं मिला तुलसीदास की रचनाओं में? संस्कृति पर गर्व करने वाले हर व्यक्ति को तुलसीदास के ग्रन्थ चेतना के नये स्तर पर ले जाते हैं, हर बार, बार बार। यही कारण रहा कि जैसे जैसे अपनी संस्कृति का उत्कर्ष बुद्धि को आकर्षित करता गया, तुलसीदास मन और मस्तिष्क में स्थायी रूप से बिराजने लगे।
तुलसीदास सदा ही हनुमान को अपना संरक्षक, मार्गदर्शक और स्वामी मान कर रचनाकर्म में निरत रहे हैं। संकटमोचन मंदिर में हनुमान को खोजना, उनसे मिलना और उनके माध्यम से अपने आराध्य श्रीराम के दर्शन करना आज भी उनके किंकरों को रोमांचित कर जाता है। हनुमान का आश्वासन तुलसीदास की एकमात्र सम्पदा थी, वही उनका आत्मविश्वास औऱ वही उनका मनोबल था। अकबर के द्वारा कारागार में डालना और तत्पश्चात वानरों का उपद्रव तुलसीदास की निर्भयता और आश्वस्तता का एक उदाहरण मात्र था।
अपने संरक्षक पर निर्भरता के इस चरम पर जब तुलसीदास को बाँह की पीड़ा हुयी और अन्य कई उपाय करने पर शीघ्र ठीक नहीं हुयी तो तुलसीदास ने उस वेदना को एक कृति के माध्यम से व्यक्त किया। कई साधक और हनुमानभक्त उस परम अभिव्यक्ति से परिचित भी हैं। तुलसीदास की उस पीड़ा के शब्दस्पंद “हनुमान बाहुक” के मर्म को जानेंगे अगले ब्लाग में।
आराध्य देव का अद्भुत दृश्य वर्णन 👏👏
ReplyDeleteआभार। परिचालन ई पत्रिका नियमित रखें, बहुत अच्छा प्रयास है। यदि आवश्यकता हो तो मैं भी परिचालन से संबंधित लेख दे सकता हूँ।
Deleteकुछ इस प्रकार के
Deletehttp://www.praveenpandeypp.com/2016/06/blog-post_19.html