29.6.21

सात जन्म - मन

 

मन है तो गति करेगा, स्वाभाविक है। कहाँ तक गति करेगा? जहाँ तक उसकी सामर्थ्य है। कब किस काल में रहेगा, क्या पता? क्यों नहीं हमें सारी स्मृतियाँ एक साथ याद आती हैं? क्यों नहीं हमारा सारा जीवनकृत्य स्मृतियों में परिणित हो जाता है? क्या वह कारण है जो स्मृति विशेष को आकर्षित करता है? क्या कुछ होता है उन घटनाओं में जो वे स्मृति बन इतने गहरे चिपक जाती हैं? और क्या होता है उन घटनाओं में जो होती तो विशेष हैं पर स्मृति में नहीं आती हैं या कहें कि काल में कवलित हो जाती हैं।


मन की गति विशिष्ट है। वह एक पल स्मृतियों में जीता है, दूसरे पल कल्पना में, तीसरे पल वर्तमान को समझता है और चौथे पल कर्म में ध्यानस्थ हो जाता है। विश्लेषण करें कि कितने समय किस काल में रहा मन? और जिस काल में भी रहा, अन्य कालों से कितना प्रभावित रहा मन? जब सुख और दुख उसी मन की अनुकूलता और प्रतिकूलता से व्यक्त हों, जब मन की गति जीवन के दिशा और दशा बदलने में सक्षम हो, जब भविष्य अनिश्चित हो और निर्णय अंधकूप के निष्कर्षसम हों, तो मन की गति के आधारभूत नियम जानना आवश्यक हो जाता है। यदि हम दृष्टा हैं तो कौन मन की यह गति नियन्त्रित कर रहा है? यदि कोई और नियन्त्रण में है तो सुख और दुख हमारे भाग में क्यों?


बड़ा असहाय सा लगता है जब दृष्टा मन के आन्दोलनों को झेल रहा होता है। तब मन न जाने कौन सी स्मृति सामने लाकर रख दे और आपको पुनः भयग्रस्त कर दे। सफलता की निर्मल आस को पुरानी असफलता की निर्मम स्मृतियों से ध्वस्त कर दे। एक पुरानी चोट की स्मृति आपके वर्तमान को अतिसावधान कर जाये। स्मृति में पड़ा एक छल का प्रकरण स्वस्थ परिवेश के प्रति भी अविश्वास उत्पन्न कर दे।


यदि हम अपनी स्मृतियों से इतने बद्ध हैं, या इतने प्रभावित हैं, या इतने प्रताड़ित हैं, तो हम क्या वह हो पा रहे हैं जो हमें उस परिस्थिति में होना चाहिये? वर्तमान की स्मृतियों पर अतिनिर्भरता निश्चय ही भविष्य के लिये भी उचित नहीं है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही हम एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हैं। तब वह कल्पनाशीलता कहाँ से आयेगी। सृजन के साथ यह अन्याय होगा कि कल्पनाशीलता सुप्तप्राय हो जाये। तब क्या हम पशुवत नहीं हो जायेंगे?


कल्पनाशीलता के लिये आवश्यक है कि स्मृतियाँ बाधक न हों, अपितु साधक हों। स्मृतियों की अधिकता और प्रबलता दोनों ही बाधक होने की संभावना रखती हैं। साधक स्मृतियाँ प्रबल हों और बाधक निर्बल, तभी कल्पना प्रखर हो सकेगी। कल्पनाशीलता ही क्यों, वर्तमान में सामान्य रूप से कार्य करने के लिये भी स्मृतियों के उछाह का समुचित निस्तारण आवश्यक है।


तब एक सहज सा प्रश्न उठ सकता है कि अच्छा जीवन तो वह होता है जिसमें ढेर सी स्मृतियाँ हों। इसी मानसिकता में हम स्मृतियाँ बनाते रहते हैं, समेटते रहते हैं, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि यही एक दिन बोझ बन जायेंगी, एक पग भी आगे नहीं बढ़ने देंगी, बद्ध कर लेंगी।


कभी कभी स्मृतियों की इस आधिपत्य से हम विद्रोह कर बैठते हैं। कष्टमय भूत को भुलाकर, मार्ग के विरुद्ध एक नये मार्ग पर हठ करके बढ़ जाते हैं। भूत से यह बलात विलगता आपको स्वतन्त्र करने के स्थान पर और भी क्षीण कर देती है। पहली इसलिये कि आप अपनी गति और मति के विरुद्ध जाते हैं जिससे आपको सामान्य से कहीं अधिक ऊर्जा लगती है, साथ ही आपका निर्मित आधार आपके काम नहीं आता है। दूसरी इसलिये कि भूत से बलात विलगता आपको अपने भूत से और भी बद्ध कर देती है।


जहाँ स्मृति का तांडव भय उत्पन्न करता है, आपको आवश्यकता से अधिक सावधान, संचय और उपक्रम एकत्र करने में लगा देता है, कल्पना का भी विषादपूर्ण योगदान कम नहीं है। कल्पना के द्वारा निर्मित आगत की आकृति और उसे पूर्ण करने की चिंता। भविष्य की चिंता में डूबा अस्तित्व व्यर्थ ही ऊर्जाहीन हो जाता है। आश्चर्य है कि यह दुख भूत के भय की तुलना में कई गुना होता है। जहाँ भूत में घटित घटना एक ही होती हैं, कल्पनाजनित संभावित भविष्य कई प्रकार के हो सकते हैं। हर संभावित भविष्य में जाकर उसे पूर्ण करने या न कर पाने की चिंता में हमारे द्वारा प्राप्त मानसिक दुख कई गुना बढ़ जाता है, शारीरिक पीड़ा के तुलना में तो सैकड़ों गुना। क्योंकि बहुत कुछ संभव है कि असफलता की संभावित परिस्थितियाँ आयें ही नहीं। 


भूत के भय और भविष्य की चिंता, दोनों ही मिलकर वर्तमान को अस्तव्यस्त करने की क्षमता रखते हैं। बहुधा हम जीवन इसी उठापटक में निकाल देते हैं और वर्तमान पर तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं। वर्तमान पर क्षिप्त विक्षिप्त सी प्रतिक्रिया परिस्थितियों को और भी प्रतिकूल कर देती है और तब लगता है कि जीवन में सब कुछ हमारे नियन्त्रण से बाहर चला गया।


वर्तमान हमारे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्मृति में कोई घटना जायेगी कि नहीं इसका निर्धारण वर्तमान से ही होगा। भविष्य पीड़ासित होगा कि नहीं, इसका भी निर्धारण वर्तमान से होगा। इस तथ्य के विपरीत हम वर्तमान को दोनों ही ओर से खो देते हैं। संभवतः यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है।


भूत, भविष्य और वर्तमान को साधने का क्रम अत्यन्त रोचक है। ऊर्जा, साम्य और एकता के पथ पर सध कर जाना पड़ता है। जानेंगे अगले ब्लाग में। 

26.6.21

जन्म अयोध्या पाते राम

 

आकांक्षा बन आते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम।


दशरथ नृप हितरत कर्मलीन,

पालित जन सुतवत सुख नवीन,

हा! रहे स्वयं पर पुत्रहीन,

हा! आगत क्या आश्रय विहीन?

रामराज्य उत्कर्ष निभाने, दशरथ के घर आते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१।।


कौशल्या का रहा व्यस्त मन,

जगें राम, जागें सुख के क्षण,

प्रमुदित दिनभर निशा विगतश्रम,

मन्थर गति बढ़ता पालन क्रम,

मन्त्रमुग्ध माँ कौशल्या को, ठुमुक ठुमुक हरषाते राम।

जन्म अयोध्या पाते राम ।।२।।


काकभुसुण्डि बने छत प्रस्तर,

युगों प्रतीक्षा, भजन निरन्तर,

एक दृश्य बस पूर्ण हृदय भर,

विहग बाँह दौड़ें करुणाकर,

अथक चक्र, तकते आनन्दित, जब जब धरती आते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।३।।


विश्वामित्र हृदय नित चिन्तन, 

मख, भविष्य का सुनते क्रन्दन,

अस्त्र शस्त्र कर किसको अर्पण, 

बन पाये जो असुर निकन्दन,

अनुज सहित निर्भय तत्पर हो, गाधिपुत्र-पथ जाते राम, 

जन्म अयोध्या पाते राम ।।४।।


गौतम नारी, छलित अहल्या,

त्यक्त और अभिशप्त दंश पा,

एकल पथ पर चले विपथगा,

नयन काष्ठवत, दृश्य द्वार का,

युगों रही शापित जड़वत जो, दुर्लभ मुक्ति दिलाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।५।।


जनक चित्त झकझोरे चिन्ता,

वीरहीन जग, करी प्रतिज्ञा,

बिटिया के सम, वरण उसी का,

ताने शिवसायक प्रत्यन्चा,  

जनकसुता आश्रय, कर गहने, हर्षित मिथिला जाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।६।।


कैकेयी के दो वर घातक,

निर्गत किस मति शब्द विनाशक,

दशरथ ध्वस्त पड़े पीड़ांतक,

रीति रहे या प्रीति प्रकाशक, 

वन जाने को प्रस्तुत होते, रघुकुल मान बढ़ाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।७।।


हा! निषाद मन दुख अपार यह,

विकट काल निर्मम प्रहार यह,

वन कष्टों को किस प्रकार सह,

रहे उमड़ता दुर्विचार यह,

चित्रकूट तक साथ लिवाते, जाते गले लगाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।८।।


भरत विदग्ध, नहीं बस में मन,

आत्मग्लानि लज्जा सम्मुख जन,

पिता स्वर्ग में, राम गये वन,

माता, यह सब तब किस कारण,

चित्रकूट स्थिर कर देते, भरत सहज समझाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।९।।


शबरी देखे प्रेम पगी सी,

दृष्टि राममुख, मुग्ध खगी सी,

सुख सागर के तट ठिठकी सी,

क्या न भर लूँ, रही ठगी सी,

जूठें बेर हाथ ले खाते, शेष विश्व बिसराते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१०।।


हनुमत हृदय धरे करुणाकर,

कब से करें प्रतीक्षा पथ पर,

स्वामी हित नित विकट रूप धर,

शत्रु पक्ष बरसे प्रलयंकर,

हेतु सेतु आश्वासित सीता, सुत हनुमत अपनाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।११।।


बालि अनुज सुग्रीव प्रताड़ित,

राज, मान, भार्या, हित वंचित,

भागे, नापे विश्व चतुर्दिक,

ऋष्यमूक पर रहे सुरक्षित,

मित्रधर्म के मानक रचते, अपहृत सकल दिलाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१२।।


व्यथित विभीषण, भ्राता मदमत,

नहीं कहीं कुछ भी विधि सम्मत,

दुर्मति सियाहरण अति विकृत,

अपमानित हत, प्रनतपाल नत,

सौंप विजित साम्राज्य विभीषण, धर्म ध्वजा फहराते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१३।।


रावण भीषण, प्रकट दम्भ था,

पथ अधर्मगत, बल प्रचण्ड पा,

आर्त उच्चरित, करुण क्रन्द हा!

त्रास हरे भय विकल वृन्द का,

अधम पतित गर्वित मुण्डों पर, विशिख वृष्टि बरसाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१४।।


माता बैठी सगुन मनावे,

काग बतावे, सुत-सुधि लावे,

वर्ष चतुर्दश प्यास बुझावे,

सोहति मूरति अँखियन आवे,

सब मन साधे, सबहिं विराजे, अवधपुरी आ जाते राम,

जन्म अयोध्या पाते राम ।।१५।।


24.6.21

सात जन्म - एक उत्तर

 

मन चमत्कृत करता है। विचारशील होना गति का द्योतक है, पर यदि विचारों पर ही विचार न किया तो कुछ अधूरा अतृप्त सा लगता है। एक स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है उस पर मनन करने की जिसे हम मन कहते हैं। जगत में एक अद्भुत सा निर्माण लगता है मन। जिस तरह घटनायें संचित रहती हैं, जिस तरह याद आती हैं और जिस तरह भविष्य की संभावना में बनी रहती हैं।


ज्ञान के लिये पाँच इन्द्रियों का होना, एक बार में एक से ही ज्ञान होना और यहाँ तक कि सम्मुख उपस्थित कई दृश्यों में उसी का ज्ञान होना जिस पर मन रुके। कुछ जानना और यह जानना कि हम कुछ जान रहे हैं, ज्ञान के भिन्न स्तरों का होना। विचार करते समय लगना कि हम विचार कर रहे हैं। मन के बारे में ऐसे न जाने कितने प्रत्यक्ष हैं जो हमें आश्चर्यचकित कर जाते हैं।


मन व्यस्त रहता है तो हमें अपना अस्तित्व समझ आता है, काल का बोध होता है। मन स्तब्ध होता है तो काल रुक सा जाता है। मन न रहे तो क्या समझें, क्या जाने, क्या याद करें, क्या बतायें, कैसे व्यवहार करें? देखने में तो बड़ा ही सरल लगता है पर गहरे उतरने पर मन का यह वैचित्र्य उत्कृष्ट मेधाओं को भी दिग्भ्रमित कर देता है।


न्यायशास्त्र में बड़े ही व्यवस्थित क्रम से इन्द्रिय, मन और आत्मा की भिन्नता को सिद्ध किया है। सारे के सारे तर्क, उहा, अनुमान अन्ततः प्रत्यक्ष पर ही आकर टिकते हैं। पूर्वपक्षी यथासंभव विकल्प रखता है कि यह मान लिया जाये या वह मान लिया जाये। कई अध्यायों की प्रश्नोत्तरी के बाद शेष सभी अन्यथा विकल्प अवसान पा जाते हैं और सिद्धान्ती का मत बना रहता है। एक एक तत्व की विधिवत परीक्षा और उसका यथावत निराकरण।


जहाँ आत्मा दृष्टा है और इन्द्रियाँ यन्त्रवत, वहाँ मन ही सारी व्यवस्थायें देखता है। मन की कई अवस्थायें हैं, कभी स्मृति में, कभी कल्पना में, कभी स्वप्न में, कभी ज्ञानार्जन में और कभी कर्म में ध्यानस्थ। मन गतिशील न हो, यह केवल दो ही स्थितियों में होता है, या तो सुसुप्त अवस्था में या समाधि में। एक अवस्था मन की वृत्तियों का अभाव है और दूसरी मन की वृत्तियों का निरुद्ध होना। एक अनियन्त्रित है और दूसरी नियन्त्रित।


इस दृष्टि से विश्लेषित करें तो मन अपनी अवस्थायें बदलता रहता है। मन की अवस्थाओं का उद्भव ही जन्म है और इन्हें सात विभागों में बाट देने से सारी संभावित अवस्थायें व्याख्यायित की जा सकती हैं। काल की दृष्टि से ये सात विभाग इस प्रकार हैं।


  1. मन गतिशील नहीं होता है। इस समय दृष्टा अपने स्वरूप में रहता है। समाधि में उसे अपने स्वरूप में बारे में निश्चयत्मकता से ज्ञात होता है, वह स्थितिप्रज्ञ होता है। जबकि सुसुप्तावस्था में अपने स्वरूप की जानकारी का अभाव होता है, वह अवस्था अस्थिर होती है।
  2. मन विशुद्ध वर्तमान में रहता है। जिस कर्म में निरत है, जिस ज्ञान को प्राप्त कर रहा है, उसमें शत प्रतिशत लगा हुआ। भूत या भविष्य का कोई प्रभाव नहीं, स्मृति या कल्पना से परे। तब ज्ञान निर्बाध आता है, कर्म कुशलता पूर्वक सम्पन्न होता है। कर्म और ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है यह अवस्था।
  3. मन विशुद्ध भूत में रहता है। स्मृति आती है, अपना पूर्ववत प्रभाव छोड़ जाती हैं. ठीक वैसा ही, जैसा पहली बार हुआ था। उस समय प्राप्त अनुभूति किसी अन्य कारण से प्रभावित नहीं होती। जितना महत्वपूर्ण वह तब था, उतना ही आज भी है। बहुधा भूत के कई अनुभव अन्य अनुभवों से मिलकर गड्डमड्ड हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं। कुछ अन्य अनुभव अतिविशिष्ट हो जाते हैं। इस सब विकारों से परे भूत की यथारूप अनुभूति।
  4. मन विशुद्ध भविष्य में रहता है। कल्पना की शक्ति भविष्य का सृजन करने में सक्षम है। आगामी परिस्थिति में स्वयं को स्थित कर परिमाणों की कल्पना करना। कौन कैसे बोलेगा, क्या उत्तर देना ठीक रहेगा, सभी संभावित स्थितियों का सामर्थ्यपूर्ण चित्रण। बहुत कुछ वैसे, जैसे घटना सामने घट रही है। भय, राग, द्वेष आदि से परे।
  5. मन वर्तमान में रहता है पर भूत और भविष्य से आन्दोलित रहता है। भूत का भय या भविष्य की चिन्तायें वर्तमान को झकझोर कर रख देती हैं। किसी को देखकर सामान्य भावों के अतिरिक्त यदि वे सारे प्रकरण याद आने लगे जिसमें उसका व्यवहार अनुचित था या भविष्य में किस तरह उसको पाठ पढ़ाया जायेगा इसका षड़यन्त्र मन में बनने लगे तो मानकर चलिये कि आपका मन तो वर्तमान में है पर भूत और भविष्य से पीड़ित है, आन्दोलित है। इसमें न तो आप वर्तमान के रहते हैं, न भूत के और न ही भविष्य के, आप कालसंकर हो जाते हो, क्षिप्त विक्षिप्त से, बद्ध से, बिद्ध से।
  6. मन भविष्य में रहता है पर भूत से प्रभावित रहता है। भूत में घटी घटनायें मन को अवरूद्ध कर देती हैं। कल्पनाशीलता अपने पूरे स्वरूप में नहीं निकल पाती है। बहुधा आप अपना अवमूल्यन कर बैठते हैं। परिस्थितियों की समझ विकारयुक्त हो जाती है, निर्णय अनुचित हो जाते हैं। जीवन पर भूत का इतना प्रभाव उस बोझे को ढोने जैसा है जो आपको शीघ्र ही थका डालता है। आपकी क्षमतायें क्षीण हो जाती है। अगले क्षण को सम्हालने में जो ऊर्जा आवश्यक होती है, उसे आपका अनसुलझा भूत लील जाता है।
  7. मन भूत में रहता है पर भविष्य से प्रभावित रहता है। बचपन में हमें खिलौने भी उतने प्रिय थे जितनी कि रोचक पुस्तकें। मित्रों के साथ एक छलरहित, उदारमना व्यवहार था। जब भविष्य में हम एक विशेष छवि को जड़ देते हैं तो स्मृति के वे अनमोल अभेद प्राथमिकतायें पाने लगते हैं। भविष्य में सफलता के प्रति आपका महत्व भूत में आपके द्वार की गयी पढ़ाई को अधिक मान देने लगती है, आपका सफल और धनाड़्य मित्र आपका अधिक ध्यान पाने लगता है। स्मृतियाँ तब विशुद्ध नहीं रह पाती, विकारयुक्त हो जाती है।     


मुझे तो अस्तित्व के यही सात जन्म समझ आते हैं। प्रथम अवस्था सर्वोत्तम है और मुक्तिकारक भी। अगली तीन भी उत्तम हैं यदि ये राग द्वेष को क्षीण करें। अन्तिम तीन बन्धनकारी हैं पर साथ ही एक अवसर भी देती हैं कि हम अपने बद्ध संस्कारों को शिथिल कर सकें और अधिकतम समय प्रथम चार अवस्थाओं में बितायें।


यदि यही सात जन्म के साथ का संभावित उत्तर है जो मन की सभी अवस्थाओं सें सामञ्जस्य बैठाने को प्रेरित करता है तो एक प्रश्न पुनः उपस्थित हो जाता है। यदि अन्तिम तीन अवस्थायें बन्धनकारी हैं तो क्यों नवयुगल को उनसे बाहर निकलने की प्रेरणा नहीं दी जाती है?


छोड़िये, कारण और निवारण से परे वर्तमान में ही जीते हैं, जितने भी जन्म साथ मिले? बस वर्तमान सध जाये तो सब सध जाये। 

22.6.21

सात जन्म - एक प्रश्न

 

शीर्षक पढ़ते ही स्वाभाविक विचार आता है कि संभवतः चर्चा विवाह सम्बन्धों के कालखण्ड की होगी, एक के बाद एक, जीवनोत्तर। बहुधा इसी संदर्भ में सात जन्मों को अभिव्यक्त भी किया जाता है। तब विनोदवश प्रश्न यह भी उठता है कि सात जन्म ही क्यों? जब प्रेम इतना अधिक है तो सदा के लिये क्यों नहीं? जिनके लिये यह सम्बन्ध कठिन होने लगता है, उस क्षुब्धमना के लिये प्रश्न उठ सकता है कि जब एक नहीं सम्हाला जा रहा तो सात जन्म कैसे निभाये जायेंगे? जिज्ञासुमना को यह जानने की चाह हो सकती है कि अभी उनका कौन सा जन्म चल रहा है? प्रयोगधर्मियों के लिये हर बार नये प्रयोग करने के स्थान पर सात बार एक ही प्रयोग की बाध्यता क्यों? क्यों न ऐसा हो कि जब तक सामञ्जस्य की श्रेष्ठतम सीमा नहीं मिलती, प्रयोग चलते रहें और उसके बाद वही सम्बन्ध जन्मजन्मान्तर बने रहें।


यद्यपि यह देखा गया है कि लोग एक चित परिचित समूह में ही जन्म लेते हैं, जन्म जन्मान्तरों तक। ब्रायन वीज़ अपनी पुस्तकों में इस तथ्य को प्रयोगों द्वारा स्थापित करते हैं। “रिग्रेसन” पद्धति पर आधारित उनके प्रयोग व्यक्तियों को उनके पूर्वजन्मों में ले जाते हैं, जहाँ पर वे अपने वर्तमान सम्बन्धियों को पहचानते हैं पर किसी अन्य सम्बन्धी के रूप में। कभी कोई मित्र भाई के रूप में आता है, पिता पुत्र के रूप में आता है, शत्रु बान्धव बन कर आता है, परिचित पति बनकर आ धमकता है, सब गड्डमड्ड। कई बार पुराने सम्बन्ध उनके वर्तमान व्यवहार को भी समझने में सहायक होते हैं और केवल यह रहस्य जानकर ही उससे सम्बन्धित सारे अवसाद तिरोहित हो जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक समाज भले ही अपनी परिधि से बाहर होने पर स्वीकार न करे पर पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वालों के लिये और उसे दर्शन का स्थायी आधार मानने वाले हम भारतीयों के लिये यह सहज सा निष्कर्ष है।


पतंजलि के योगसूत्र में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, ये पाँच क्लेश कहे गये हैं। जब तक ये शेष रहते हैं, जन्म मिलता रहता है। साथ में रहने वालों के प्रति राग और द्वेष तो स्वाभाविक ही हैं। उन भावों की जब तक पूर्ण निष्पत्ति नहीं हो जाती, भोगक्रम चलता रहेगा। जिनके प्रति निष्पत्ति होनी है, उनके साथ जन्मक्रम चलता रहेगा। यद्यपि परम ध्येय इस चक्र से मुक्ति है, पर कर्मफल का सिद्धान्त समझना जीवन का एक अत्यन्त व्यवहारिक अंग है। देहान्तर के बाद भी चित्त में कर्मजनित संस्कार बने रहते हैं और वही कारण बनते हैं अगले जन्म का। स्मृतियों के रूप में जब यह संस्कार किसी तकनीक से कुरेदे जाते हैं तो वह पुनः संज्ञान में आ जाते हैं। पिछले जन्म की बातों को “रिग्रेसन” की पद्धति से याद कर पाना भी तभी संभव हो सकता है जब वे स्मृतियाँ चित्तपटल पर शेष हैं। योगसूत्र ही बताता है कि स्मृतियों के वे संस्कार कई परतों में ढके रहते हैं और सामान्यतः स्वतः बाहर नहीं आते हैं। अपरिग्रह विधि से जब वे सारी परतें धीरे धीरे हटती हैं तो सारे जन्मों के कृतान्त और वृत्तान्त स्पष्ट दीखते हैं।


जब कालखण्ड की परिकल्पना इतनी विस्तृत हो, जब कालचक्र से बाहर निकल आने वाली मुक्ति को श्रेयस्कर माना जाता हो, तब सात जन्म को इतना महत्व क्यों? क्या सम्बन्धों की मधुरता सात जन्म तक ही सीमित रहे? क्या सात जन्म तक इतनी मधुरता से साथ रहने के बाद राग नहीं रहेंगे? यदि किसी और से राग नहीं है तो वह कैसे अगली बार सम्बन्ध में आ बसेगा? यदि कोई राग में इतना ही अवलेहित है तो हमारे यहाँ पर तो चौरासी लाख का विधान है, उसे तो हर एक में भोगना पड़ेगा। प्रेमराग रहे भी और वह भी केवल सात जन्म, यह तथ्य सिद्धान्तसम्मत नहीं जान पड़ता है। यदि मुक्ति ही परम साध्य है तो क्यों न इसी जन्म में मुक्ति मिल जाये? यदि ऐसा है तो सांसारिक प्रेम का निरूपण मुक्ति से कैसे व्याख्यायित हो? यदि शास्त्रों पर विहंगम दृष्टि डालें तो एक सफल वैवाहिक सम्बन्ध को मुक्ति में सहायक माना गया है। पति और पत्नी एक दूसरे के पूरक और प्रेरक बने हुये मुक्ति को ओर संयुक्त रूप से बढ़ते हैं।


इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो “सात जन्म” का आशीर्वादात्मक उच्चार समझ नहीं आता है। यदि व्यवहारिकता के भाव में जायें तो “सात जन्म का साथ” वाक्य का प्रयोग उस पूर्णता के लिये किया जाता है जो सम्बन्धों से अपेक्षित है। यह शुभकामना का वह स्वरूप है जो सम्बन्धों में प्रगाढ़ता की आशा करता है। तब यह समझ नहीं आता है कि पूर्णता का निरुपण “सात” सी संख्या से क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे कोई और तर्क, भाव या अर्थ छिपे हों जो कालान्तर में शब्द से विलग हो गये हों? यह शास्त्र सम्मत है, वैज्ञानिक है, परिपाटी है या किसी अन्य भाव का अवशेष?


इस बारे में पहले तो उन लोगों से पूछा जो विवाह और सम्बन्धों में सिद्धहस्तता रखते हैं। क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर उनके लिये भी उतने महत्वपूर्ण होने चाहिये जितने मुझे लग रहे हैं। एक अच्छा जन्म निकालना तो ठीक है पर शेष छह में भी वही मिलेंगे, इस बात की पुष्टि कर लेनी चाहिये। किसी भी शास्त्र में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। यद्यपि सात संख्या से सम्बन्धित कई रोचक तथ्य पता चले पर उनमें से कोई भी तार्किक रूप से सम्बद्ध नहीं था। निकटतम संदर्भ सात फेरे और हर फेरे से जुड़े एक वचन का मिलता है पर उससे सात जन्मों की सहयात्रा न तो सिद्ध होती है और न ही अपेक्षित। अग्नि को साक्षी मानकर सात वचन लेना, सात जन्म तक साथ रहने से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है।


एक संभावित कारण समझ में आता है, उसकी चर्चा अगले ब्लाग में।

19.6.21

चला भगवन पंथ तेरे

 

आज प्रभु जब निकट कुछ तेरे बढ़ा मैं,

मोह बन्धन जगत के दृढ़ खींचते हैं ।

पूछता मन प्रश्न बारम्बार निर्मम,

क्या कहूँ, जब नहीं उत्तर सूझते हैं ।।१।।

 

नहीं चाहूँ, जटिल मति के, कुटिल जग के,

तर्क अगणित बन विषों के बाण आते ।

कभी मैं बचता तुम्हारी प्रेरणा से,

किन्तु बहुधा वेदना बन समा जाते ।।२।।

 

किन्तु सुख अनुभव किया जो,

चरण में भगवन तुम्हारे ।

शब्द की अभिव्यक्ति के बिन,

छिपा रहता हृद हमारे ।।३।।

 

दर्श अदर्शन, लुप्त प्राय मति,

प्रेम-पुन्ज नवपंथ दिखा दो ।

स्थित हो जब सबमें प्रियतम,

द्वेषी जग से हृदय बचा लो ।।४।।

 

कुशल भगवन, सर्वहित प्रेरक बने हो,

तम हृदय में, प्रेम के दीपक जला दो ।

तव प्रतिष्ठा अनवरत होवे प्रचारित,

भावरस में ज्ञानपूरित स्वर मिला दो ।।५।।

17.6.21

हनुमानबाहुक - क्रम


हनुमानबाहुक में कुल ४४ छन्द हैं, अवधी में। पहले १३ छन्दों में स्तुति है, हनुमानजी के महान कृत्यों और विशिष्ट गुणों का वर्णन है। पहले छन्द में ही वह, अपने सेवकों को सुगमता से प्राप्त होने वाले, उनकी भलाई करने वाले, उनके समीप रहने वाले और उनके संकटों का नाश करने वाले कहे गये हैं। दूसरे छन्द में, उनका विकराल रूप जिसके हृदय में बसता है, उसके पास पाप और दुःख स्वप्न में भी निकट नहीं आते हैं। इस प्रकार पहले दो छन्द ही “गुणी के गुण” और “सेवक की आवश्यकता” के मध्य एक तन्तु जोड़ देते हैं। शेष ११ छन्द हनुमान के उन गुणों का वर्णन करते हैं जिनके द्वारा उन्होंने असंभव, विकट और कठिन कर्म सम्पादित किये हैं। उनकी विकरालता उन्हें “काल का भी काल” कह कर व्यक्त की गयी है।


१४वें छन्द में पहली बार तुलसीदास ने अपने स्वामी से अपना सम्बन्ध कहा है, “मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ”, मन से, वचन से, कर्म से, तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप सब जानने वाले स्वामी हैं। उसके बाद भी यथासंदर्भ सम्बन्ध, आश्रयता, निर्भरता वर्णित की गयी है।


१५वें छन्द से उलाहना प्रारम्भ होती है और शेष ३० छन्दों में लगभग १४ बार भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त जाती है। पाठकों की सुविधा के लिये उन सारे संवादों को क्रम से सूचीबद्ध किया है। जैसे जैसे आप पढ़ेंगे, तुलसीदास की हनुमान के प्रति प्रगाढ़ता, श्रद्धा और आस्था स्फुरित होती दिखेगी, साथ ही साथ पीड़ा और विलम्ब का निदान न होने पर आश्चर्य और हताशा के भाव भी।   


  1. हे दुर्धर्ष योद्धा, आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया है? (बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर)
  2. यदि मैं आपका स्नेह हार गया हूँ तो मुझे मेरा दोष सुना दीजिये, जिससे मैं भविष्य में सचेत हो जाऊँ (दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो)
  3. मेरी ही बार बूढ़े हो गये हो या बहुत शरणागतों को पालने में थक गये हो (बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले)
  4. आपके जैसे समर्थ स्वामी की सेवा के बाद तुलसी यह कष्ट सहे, यह आश्चर्य ही है (तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से)
  5. यदि अपराधी हूँ तो सहस्रों भाँति मारिये, परन्तु जो लड्डू देने से मारता हो उसे विष देकर मत मारिये (अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये)
  6. आपके प्रमुख दास के हृदय में दुख है, वहाँ पर रह कर उसे देखिये तो (खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये )
  7. हे महावीर, तुलसी भारी सोच में है कि किस संकोच के कारण आप इस बाँह की पीड़ा से भय खा रहे हैं (भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है )
  8. इतने दिन तुलसी को बाँह की पीड़ा रही, यह आपका आलस्य है, या क्रोध, या परिहास है या कोई शिक्षा (आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की )
  9. आपकी यह ढील मुझे मेरी पीड़ा से अधिक पीड़ित कर रही है (ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है )
  10. तुलसी को अपने बाँह की थोड़ी सी पीड़ा पर बड़ी ग्लानि हो रही है, पता नहीं कि मेरे किस पाप या क्रोध से आपका प्रभाव लुप्त हुआ जा रहा है (थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को )
  11. राम ऐसा हाल किया है कि अगस्त्य मुनि का सेवक भी गाय के खुर में डूब गया है (कुंभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है )
  12. तुलसी ने गोसाँई होने के बाद अपने कष्टप्रद दिन भुला दिये, उसी का फल आज पा रहा हूँ (तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं )
  13. जो राम का नमक खाकर भुला दिया, वही अब बरतोर बन शरीर से फूट फूट कर निकल रहा है ( ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को )
  14. यदि आप से नहीं हो पायेगा तो मुझे बता दीजिये, मौन रहूँगा और मान लूँगा कि जो बोया है वही काट रहा हूँ (तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये )


तुलसीदास को इतने विश्वास से अपने आराध्य से संवाद करते देख मन रोमाञ्च से भर जाता है, भावों का अतिरेक होने लगता है, शब्द गौड़ हो जाते हैं, स्नेहिल सम्बन्ध आँखों में डबडबाने लगते हैं। शब्द समझ आ गये हैं, इन शब्दों में बसे प्रेम की थाह नहीं पा रहा हूँ, प्रयासरत हूँ, संभवतः एक दिन समझ आ जायें। 

15.6.21

हनुमानबाहुक - संवाद


शब्द का प्रभाव भिन्न होता है, निर्भर करता है कि वक्ता कौन है, निर्भर करता है कि वक्ता की मनःस्थिति क्या है? गुड़ खाने वाले साधु की कहानी तो सुनी ही होगी। एक माँ अपने पुत्र को लेकर एक साधु के पास जाती है, अधिक गुड़ खाने कारण। साधु सुनते हैं और एक माह बाद आने को कहते हैं। एक माह बाद साधु उस बालक को गुड़ छोड़ देने के लिये समझाते हैं। कालान्तर में गुड़ तो छूट जाता है पर माँ के मन में प्रश्न रह जाता है कि यदि समझाना ही था तो साधु ने पहली बार में ही क्यों नहीं समझा दिया? अगली भेंट में संशय शमित होता है, उत्तर सरल था और कठिन भी। साधु ने कहा कि बेटा उस समय मुझे भी गुड़ से अत्यधिक अनुराग था और जब एक माह के प्रयत्न के बाद मन से भी गुड़ छोड़ सका तब ही इस योग्य हो पाया कि किसी और को समझा सकूँ।


योगसूत्र के साधनपाद(२.३६) में पतंजलि उद्घोष करते हैं कि जिसने सत्य पर संयम किया है, जिसने सत्य का अभ्यास और अनुशीलन किया है, जिसमें सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है, उसके शब्द सत्य की सामर्थ्य रखते हैं, उसका कहा हुआ सच हो जाता है। मन्त्रों का भी यही प्रभाव रहता होगा। काव्यविनोद और गूढ़साधना में लिखे गये शब्दों के प्रभाव में अन्तर तो रहता ही होगा। क्या कारण है कि मेरी बिटिया को पिता की बातें सामान्य लगती हैं और वही बातें जब रतन टाटा के अनुभवों के रूप में कहीं उद्धृत होती हैं तो बिटिया को अभिभूत कर जाती हैं। बिटिया को अपने पिता के प्रति कितना भी स्नेह हो पर रतन टाटा की उपलब्धियों के सामने तो वह कुछ भी नहीं।


जब तुलसीदास कुछ लिखते हैं तो उसका प्रभाव व्यापक होता है। शब्द चक्षुओं से भीतर प्रविष्ट होते हैं और सारे तन्त्र को झंकृत कर जाते हैं। यह अद्भुत अभिव्यंजना उनकी सतत साधना के कारण ही आयी होगी। प्रभाव बौद्धिक स्तर पर नहीं, सब कुछ भेदते हुये आत्मा पर होता है। कुछ तो विशेष कारण होगा कि तुलसीदास के शब्द भारतीय जनमानस के हृदय में गहरे बैठे हैं और परिस्थितियाँ आने पर स्वतः व्यक्त होने लगते हैं। कुछ तो कारण रहा होगा कि तुलसीदास जब किसी घटना का वर्णन करते हैं तो लगता है कि सब कुछ सामने ही घट रहा है। लगता है कि तुलसीदास के माध्यम से देव संवाद करना चाहते हैं, लगता है कि हनुमान संवाद करना चाहते हैं।


हनुमानबाहुक के रचनाकाल में और पीड़ा के उन कालखण्डों में तुलसीदास और हनुमान के बीच का संवाद और मुखर हो गया है। संवाद व्यक्तिगत है, सीधा सीधा। तुलसीदास की अन्य रचनाओं में कई स्थानों पर हनुमान उन्हें प्रेरित करते हुये दिखते हैं, दोनों ही एक दिशा में। हनुमानबाहुक में तुलसीदास हनुमान से सीधा संवाद करते हैं, प्रश्न करते हैं, उलाहना देते हैं। कुछ स्थानों पर श्रीरघुबीर को भी पुकारते हैं। कहीं कहते हैं कि आपके अतिरिक्त तो किसी को भजा भी नहीं, आपको ही सब कुछ माना, फिर भी आप ध्यान नहीं दे रहे हो? कई स्थानों पर आत्मग्लानि में चले जाते हैं, कहते हैं कि आपके उपकार को मैंने भुला दिया इसीलिये यह प्रतिफल पा रहा हूँ। कहीं अपनी भक्ति पर विश्वास आता है तो हनुमान से कृपा करने में विलम्ब का कारण पूछने लगते हैं। कहीं निराश हो बैठ जाते हैं कि यहीं भुगतना था तो मान लेंगे कि कुछ कुकर्म किये होंगे। कहीं विनोदवश उलाहना देते हैं कि आप अब बूढ़े हो चले हो या थक गये हो। 


तुलसीदास को अभिव्यक्ति में इतना मुखर कहीं नहीं देखा है। पीड़ाजनित व्यक्तिगत संवाद में यदि कहीं इसके समानान्तर उदाहरण मिलता है तो वह पीड़ा में डूबे बच्चे का अपनी माँ किया गया संवाद होता है। चोट खाकर भी उसे लगता है कि माँ के होते हुये उसे पीड़ा क्यों हो रही है? माँ पर क्रोध करता है, माँ को पीड़ा आने का कारण मानने लगता है, कोई पुरानी घटना बताता है कि आपने ऐसा कहा था, तभी चोट लगी है। जब हम आपके पुत्र हैं तो हमारी पीड़ा के सारे कारण, निवारण, उच्चारण, सब आप ही है। अपार समर्पण, अपार आश्रय, अपार विश्वास का प्रकटीकरण होता है यह प्रकरण। 


इन संदर्भों में हनुमानबाहुक न स्तुति है, न अर्चना है, न प्रार्थना है और न ही आरती। जब भी मैं पाठ करता हूँ, मेरे हृदय के अनुभवहीन स्पंद मुझे यही बताते हैं कि यह एक पुत्र का अपनी माँ से पीड़ा के घोर क्षणों में किया हुआ संवाद है। पुत्र तुलसीदास का माँ समान पालने वाले हनुमान से किया गया संवाद। “पाल्यो हो बाल जो आखर दू, पितु मातु सों मंगल मोद समूलो”, आनन्द-मंगल के मूल दो अक्षरों (राम) से आपने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। अपनी माँ के जन्म देते ही चले जाने और पिता द्वारा उसको अमंगलकारक मानकर त्यागने के बाद राम और राम की भक्ति ने तुलसीदास को पाला। हनुमान तब से उनके साथ माता-पिता के समान बने रहे।


हनुमानबाहुक के माध्यम से तुलसीदास ने भक्ति की परम्परागत श्रेणियों से परे एक नयी श्रेणी स्थापित की है। तुलसीदास अपनी सामाजिक चेतना के कहीं ऊपर चले गये हैं। वह क्षमता कहाँ है मुझमें जो वातजातं द्वारा संरक्षित तुलसीदास को बौद्धिक रूप से समझने का प्रयास भी कर सकूँ। वायु को कौन समेट पाया है? कभी लगता है कि यदि तुलसीदास को ऐसी पीड़ा न होती तो हनुमानबाहुक जैसी कृति नहीं आ पाती। कभी लगता है कि तुलसीदास अपनी व्यक्तिगत नहीं वरन हम सबकी पीड़ा झेल रहे थे। उनका संवाद उनका अपना व्यक्तिगत नहीं वरन हम सबका साझा और सम्मिलित संवाद था।


पीड़ा का उच्चारण गहरा होता है, आर्तनाद आत्मा से होता है। हम जैसे सामान्यजनों को पीड़ा झकझोर जाती है पर वही पीड़ा तुलसीदास से हनुमानबाहुक जैसी दुर्लभ और सबका कल्याण करने वाली कृति लिखवा जाती है। अपने आराध्य के प्रति जो स्नेहिल भाव तुलसीदीस ने सामाजिक मर्यादावश कहीं और व्यक्त नहीं किये गये, वे उस पीड़ा से द्रवित होकर शब्द पा जाते हैं। वे शब्द जो पीड़ा को सम्हाल लेते हैं, वे शब्द जो हाहाकार को रोक लेते हैं, वे शब्द जो सब सह सकने की शक्ति देते हैं।


प्रश्न अधिक हो जाते हैं तो हनुमानबाहुक के शब्दों में उत्तर ढूढ़ने लगता हूँ। हनुमानबाहुक को तनिक और जानेंगे अगले ब्लाग में। 

12.6.21

मिल के साथ आयें हम


मिल के साथ आयें हम,

देश को बचायें हम ।

खो गये जो लब्ध शब्द,

पुनः ढूढ़ लायें हम । 

 

केश हैं खुले हुये, द्रौपदी के आज फिर,

पापियों के वक्ष से रक्त सोख लायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।१।।

 

जंगलों में घूमती, क्यों रहे जनक-सुता,

लांछन लगा रही जो जीभ काट लायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।२।।

 

प्रेम का स्वरूप क्यों, यूँ छिपा छिपा रहे,

ढूढ़ कर स्वयं उसे, हृदय में बसायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।३।।

 

मातृ के स्वरूप को, देख कर हर एक में,

गिर रहे चरित्र-मूल्य, उन्हें फिर उठायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।४।।

 

लाज का जो आवरण, गिर रहा है शीश से,

खुद उठायें, स्वयं ही, हाथ से सजायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।५।।

 

पीछे पीछे रह गयीं, आज सारी नारियाँ,

मार्ग मे हर एक पग, साथ ही बढ़ायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।६।।


रही व्यक्त देवियाँ, शूरता में, ज्ञान में,

हर दिवस यही निनाद जागरण बनायें हम।

मिल के साथ आयें हम ।।७।।

 

पुरुष की है पूर्णता, प्रकृति के उछाह पर,

उठें अर्धविश्व को प्रसन्नतम बनायें हम ।

मिल के साथ आयें हम ।।८।।


10.6.21

हनुमानबाहुक - अभिव्यक्ति


यद्यपि हम एक ही अर्थों में प्रयोग करते हैं पर स्तुति, अर्चना, प्रार्थना और आरती में मूलभूत भिन्नता है। कौन ईश्वर को भज रहा है और किस अभिप्राय से भज रहा है, इस पर निर्भर करता है कि उसका विभाग क्या होगा। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि चार प्रकार के व्यक्ति उन्हें भजते हैं, ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और आर्त। किसकी मनःस्थिति क्या है, वैसे तो शब्दों से स्पष्ट है, पर निहित भावों पर एक चर्चा आवश्यक है।


गुण से गुणी को जोड़ना स्तुति है। स्तु धातु का अर्थ होता है, प्रशंसा। स्तवन या प्रशंसा के द्वारा किसी को सम्मान देना स्तुति कहलाती है। औपचारिक परिवेश में, भय या राग से विलग, गुणों का सम्भाषण स्तुति कहलाता है। जब भाव स्वार्थतिक्त होते हैं या मद प्रबल होता है तब गुणी के गुणों को आवश्यकता से अधिक या कम बतलाना क्रमशः चाटुकारिता या दम्भ कहा जाता है। ग्रन्थ इस प्रकार के संवादों से भरे पड़े हैं, अद्भुत स्तुतियों से। ईश्वर को अपने प्रकार से समझ सकने और व्यक्त करने के उपक्रम में स्तुतियाँ भिन्न हो जाती हैं। इसके मूलतः दो सार्थक उद्देश्य होते हैं। पहला है यथार्थ का यथोचित ज्ञान, जो जैसा है, वैसा व्यक्त करने की सहज प्रवृत्ति। दूसरा है, संवाद को पाठकों और श्रोताओं की ओर लक्ष्य कर समाज में अनुकरणीय गुणों को उद्भाषित करना। यदि किसी स्तुति में ईश्वर को भक्तवत्सल कहा जाता है तो पहला संदेश यह है कि आप भक्ति में प्रवृत्त हों और ईश्वर आपका भला करेगा। दूसरा संदेश आपको अपने अधीनस्थों और आश्रितों के प्रति भला करने का भाव जागृत करना है, यह अनुकरणीयता का पक्ष है।


अर्चना स्तुति से अधिक व्यक्तिगत और अभ्यासयुक्त है। आपका अपने आराध्य से सम्बन्ध उन गुणों से प्रभावित होता है जिन्हें आप अपने अन्दर चाहते हैं या जिन्हें देखकर आपका मन मुदित हो जाता है, अस्तित्व प्रसन्न हो जाता है। अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अपना आराध्य पाना और उससे नित्य का संवाद स्थापित करना अर्चनाकृत भक्ति का प्रमुख बिन्दु है। अभ्यास अपनी स्थिति में बने रखने के लिये आवश्यक है। नित्य अर्चना, विधान पूर्वक पूजा उस स्नेह, सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है जो आप अपने इष्ट को अर्पित करना चाहते हैं। इष्ट शब्द भी यज् धातु से निकला है, यज् धातु में क्त प्रत्यय लगाने से, यज देवपूजने, देव के पूजन के लिये। स्तुति की भाँति ही इसमें कोई वस्तु या वर की चाह नहीं होती है, बस दैनिक संवाद अभीप्सित गुणों तक ही सीमित रहता है। एक विश्वास रहता है कि आपके आराध्य आपके आश्रय हैं। आश्रयता का पथ कठिन है, अहं तजना होता है, पुत्र का माँ के प्रति आश्रयता जैसा। यह साधनापथ देखने में सरल लग सकता है पर पूर्ण समर्पण अत्यन्त कठिन है। सुख में विस्मरण और दुख में दोषारोपण आश्रयता के विध्न हैं। अर्चना में भी गुण से गुणी को जोड़ा जाता है और साथ में आश्रयता का सम्बन्ध भी प्रस्तुत किया जाता है या स्वीकार किया जाता है।


स्तुति और अर्चना मुख्यतः ज्ञानी और जिज्ञासु के स्तर पर होती है। ज्ञानी और जिज्ञासु के बीच संशय और उसके शमन में लगे समय भर का अन्तर है। दोनों की दिशा एक होती है, कालान्तर में एक जिज्ञासु ज्ञानी बनकर स्थापित होता है।


प्रार्थना किसी अर्थ विशेष की चाह के लिये होती है। शब्द से ही स्पष्ट है कि किसी विशेष अर्थ के लिये होती है। वैशेषिक के अनुसार द्रव्य, गुण और कर्म के समुच्चय को अर्थ कहते हैं। यद्यपि यह वैशेषिक की वैज्ञानिक परिभाषा है पर अर्थ का प्रयोग सदा ही भौतिक निरूपण में किया जाता है। अर्थ का धन के रूप में प्रयोग एक अत्यन्त सीमित दृष्टि है, ठीक वैसे ही जैसे काम का रतिकर्म में प्रयोग। काम इच्छा है और अर्थ भौतिक जगत का निरूपण। पदार्थ पद की भौतिक अभिव्यक्ति है। आम पद है, एक शब्द है और आम पदार्थ है, एक रूप, भौतिक वस्तु। हमें कोई वस्तु मिल जाये, हमें कोई गुण विशेष मिल जाये या हमारा कोई कार्य हो जाये, एक प्रार्थना में कोई न कोई भाव प्रमुख रहता है। प्रार्थना अर्थार्थी करता है। एक प्रार्थना में पहले गुण से गुणी का सम्बन्ध स्थापित होता है, फिर गुणी के उस सामर्थ्य का चित्रण होता है जो अभीप्सित है, फिर गुणी का याचक से सम्बन्ध जोड़ा जाता है और अन्त में उस अर्थ में बारे में निवेदन किया जाता है जो प्रार्थना का उद्देश्य है। कार्य सिद्धि या अर्थ प्राप्ति तक ही प्रार्थना की जाती है।


आर्त आरती करता है। आरती आर्त का ही शब्दान्तर है। आर्त, जो कष्ट में है। गुणों की प्राप्ति और अर्थ की कामना में तो थोड़ी प्रतीक्षा की भी जा सकती है, पर जब कष्ट आ जाते हैं तो जीवन असह्य हो जाता है। जब तक उनका निवारण नहीं हो जाता, जीवन असामान्य ही बना रहता है। उस समय तो अपनी योग्यता सिद्ध करने का भी समय नहीं होता है। जब सहसा कुछ आवश्यकता आती है तो व्यक्ति अपनों के पास ही जाता है। भक्त अपने आराध्य की शरणागति होता है। उस समय अहं का कोई स्थान नहीं रहता। संभवतः पीड़ा से अधिक अहं का नाश करने वाला कुछ भी नहीं है। पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त कुछ और संभावना रहती भी नहीं है तब। आर्त की इस अभिव्यक्ति में क्रम लगभग प्रार्थना जैसा ही रहता है पर अर्थ के स्थान पर कष्टनिवारण को प्राथमिकता मिलती है। पहले गुण और गुणी का सम्बन्ध, विशेषकर उन गुणों का जो कष्टनिवारण या आर्त से सम्बन्ध में सहायक होने वाले हैं। इस समय जहाँ एक ओर आराध्य की करुणा, अहैतुकी कृपा, भक्तवत्सलता आदि गुण उभरते हैं और दूसरी ओर आर्त की दयनीयता प्रदर्शित होती है। पहले से पूजा या अर्चना न करने का कारण, भविष्य में नियमित देवस्थान जाने की प्रतिज्ञा, अच्छे गुण अपनाने के आश्वासन, ये सब भी अपनी अभिव्यक्ति पा जाते हैं। गुणी और याचक का सम्बन्ध यथासंभव मधुर रखा जाता है और भूत में हुयी भूलें पूरी तरह से भ्रम की श्रेणी में आती है। अन्त में कष्ट का विवरण और कृपा प्राप्ति की इच्छा। आरती का यह रूप जनसामान्य में बहुतायत में देखने को मिलता है। 


इन चारों में भिन्नता जानना तो आवश्यक है पर आपसी तुलना उचित नहीं है क्योंकि कुछ भी हीन नहीं है। स्तुति, अर्चना, प्रार्थना और आरती, अपने आराध्य के प्रति एक व्यक्ति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। अपने अपने स्तर पर सब उचित है। देखा जाये तो लगभग सब कुछ ही हमको प्रकृति से प्राप्त होता है, जो शुभ शेष रहा, वह सत्संग, गुरु के आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होता है। सफलता, लाभ आदि में श्रम, बुद्धि आदि का महत्व है पर दैवयोग का भी लगभग उतना ही योगदान है। देवों को मान लेने से अपना महत्व कम हो जायेगा, ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग इस पर आपत्ति कर सकते हैं। ब्रह्माण्ड में क्या हमारी स्थिति है और बड़े बड़े राजाओं का क्या अन्त हुआ है, इस पर तनिक सा भी विचार कर लेने से सारे विभ्रम प्रयाण कर जाते हैं। सरल, सुहृद भक्त अपने आराध्य को अपनी समस्या बता कर व्यस्त करने से पहले स्वयं उपाय करता है, जितना संभव हो सके उतना सहता है और असहनीय होने की स्थिति में पुकारता है।


हनुमानबाहुक को आप किस श्रेणी में रखेंगे? तुलसीदास अद्भुत ज्ञानी थे, सत्य का स्वरूप समझने वाले, स्वप्रेरित भक्ति में लीन, अपने आराध्य के नित्य उपासक, अपने आराध्य के शब्द उपासक। भक्ति के अतिरिक्त किसी और अर्थ की कामना भी नहीं थी उनमें, भौतिकता की तो लेश मात्र भी नहीं। बाँह की पीड़ा उन्हें हुयी, सारे उपाय भी उन्होंने किये, जितना संभव हो सका, सहा भी। अन्ततः हनुमानबाहुक के रूप में अभिव्यक्ति हुयी।


हनुमानबाहुक के संवाद में इस प्रश्न के उत्तर निहित हैं। वह विवेचना अगले ब्लाग में।