संभावित कारणों के विश्लेषण के बाद निवारण का कार्य चिकित्सीय परामर्श से ही होना था। स्वयं उपचार कर पाने की न तो योग्यता थी और न ही समय। दो सप्ताह की आंशिक प्रयोगधर्मिता के बाद भी पीड़ा बनी हुयी थी, न केवल बनी हुयी थी अपितु बढ़ गयी थी। स्वास्थ्य को लेकर लघु प्रयोग सब ही करते रहते हैं, कभी कुछ बदल कर देखा, कुछ नया लेकर देखा, कुछ दिनचर्या बदली, कुछ रुचियों को तिलांजलि दी। अब प्रयोगों का समय नहीं रहा था, तात्कालिकता प्रबल हो चुकी थी।
बहुधा मन यह कामना करता है कि चिकित्सक के यहाँ न जाना पड़े, लघुविकार स्वतः ही ठीक हो जायें, न जाने के पहले सारे उपाय कर लेता है, आपको भी समझाता है, अनावश्यक समझ कर टालने का प्रयत्न करता है। कभी कभी यह भय भी रहता है कि छोटे से और स्वतः ठीक होने वाले विकार के लिये चिकित्सक भारीभरकम उपचार बता देगा। न केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टि से वरन आर्थिक दृष्टि से भी भारी रहेगा। इस कारण से जहाँ तक खींचा जा सकता है, चिकित्सक के यहाँ जाना टाला जाता है। कई बार ऐसे निर्णय, दीर्घसूत्रता या आलस्य हानिकारक हो जाता है। बिलासपुर में एक बार छोटी सी फुंसी को स्वतः ही ठीक होने देने की वीरता के अभिमान में पता ही नहीं चला कि कब उसमे संक्रमण हो गया, निष्कर्ष अत्यधिक पीड़ा और स्वयं के प्रमाद पर क्रोध।
इस घटनाक्रम में पीड़ा सहने के बाद भी कुछ दिनों का आलस्य हो गया। करोनाजनित असामान्य परिस्थितियों के कारण इस दीर्घसूत्रता को और बल मिला। जब कठोर चेतावनी मिली तब निढाल होकर चिकित्सक भाई से परामर्श लिया। समर्पण की इस स्थिति में मन स्वीकार कर लेता है कि जो भी बताया जायेगा, शब्दशः पालन किया जायेगा, चाहे जितने भी टेस्ट हो, चाहे जितनी भी औषधि हों। एक प्रवृत्ति जो कई वर्षों में दृढ़ होती गयी है कि ऐलोपैथिक औषधियाँ जितनी कम लेनी पड़ें उतना ही अच्छा। पता नहीं क्या कारण रहा पर वर्षों से प्राकृतिक विधि से शरीर प्रफुल्लित रहा और अधिक समस्यायें उत्पन्न नहीं की। एक स्वस्थ जीवनशैली रहे, व्यायाम और प्राणायाम किया जाये और भोजनादि में आयुर्वेद का सिद्धान्त पिरोया हो तो शरीर पुष्ट और मन सन्तुष्ट रहता है। पीड़ा के अतिरिक्त, वर्तमान परिस्थिति एक और विशेष कारण से सामान्य नहीं रही अतः समर्पण कर बैठे।
प्राकृतिक रूप से स्वतः स्वस्थ होने में एक तत्व जो सदा ही उपयोगी रहा है, वह है समुचित निद्रा। समुचित निद्रा हो जाये तो विकार क्षीण हो ही जाता है। छोटे मोटे कष्ट हों तो प्रथम अवसर मिलते ही सो जाते हैं, उठने के बाद या तो कष्ट चला जाता है या सहनीय हो जाता है। लघुविकार कालान्तर में बढ़कर बड़े न हो जायें, उसमें भी समुचित निद्रा संकेत के रूप में कार्य करती है। यदि आपको भरपूर निद्रा आ रही है तो शरीर स्वस्थ है। असहजता, तनाव, चिन्ता, विकार आदि रोगों के प्रथम लक्षण सबसे पहले निद्रा पर दुष्प्रभाव डालते हैं। समुचित निद्रा का मानक वह स्फूर्ति है जो उठने के बाद आती है, वह इस बात का द्योतक है कि शरीर के सब तन्त्र सुचारु रूप से चल रहे हैं। अधिक निद्रा आलस्य और कम निद्रा थकान लाती है। यदि समुचित व्यायाम, भोजन, चिन्तन और मानसिक प्रसन्नता नहीं होगी, समुचित नींद आना संभव ही नहीं है। यह सिद्धान्त मेरे लिये समग्रता से कार्य करता है।
बाँह की पीड़ा ने मेरे इस ब्रह्मास्त्र को मुझसे छीन लिया था। रात्रि में ७ घंटे के स्थान पर ४ घंटे से अधिक की नींद नहीं हो पा रही थी, वह भी कम से कम ३ भागों में। निद्रा की कमी को दिन में पूरा करने का प्रयास किया, पीड़ानिवारक जेल लगाकर निद्रा में कुछ मिनट बढ़ाये, सिकाई के लिये हीटिंगपैड लगाकर सोये, पर कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और दो तीन दिन में ही शरीर अस्तव्यस्त होने लगा। जब पीड़ानिवारक औषधि लेकर सोने का प्रयास किया तो उठने पर भारी और मन्द अनुभव हुआ, लगा कि सुधार होने के स्थान पर कष्ट बढ़ता ही जा रहा है।
निद्रा ही नहीं, अन्य कार्य भी बन्द हो गये। टहलना बन्द क्योंकि झूलती बाँह के साथ पीड़ा भी लहराती थी। सूर्यनमस्कार और तीरन्दाजी भी बन्द। यहाँ तक कि प्राणायाम भी इसलिये बन्द हो गया क्यांकि साँस लेने में फेफड़े फूलने से पीड़ा गहरा जाती थी। स्नान करते समय शरीर मलने में कष्ट, साबुन लगना बन्द, किसी तरह शावर का पानी शरीर में डालकर बाहर आ जाते थे। जो गतिविधियाँ जीवन में महत्व भी नहीं रखती थीं और स्वतः होती रहती थीं, वे सब भी करने में महत प्रयास करने पड़ रहे थे। सो पाने के लिये तकियों को बाँह पर पड़ने वाले दबाव को कम करने के प्रयास में व्यवस्थित सजाना पड़ता था। ऐसे ही एक दिन सजाते समय श्रीमतीजी बोलीं कि इतना तो राजा अपने सिंहासन भी नहीं सजाते हैं। उस दिन लगा कि थक हार कर बिस्तर पर निढाल गिरते ही नींद आने का सुख विश्व का सबसे बड़ा सुख है।
लेटने से अधिक बैठने में और बैठने से अधिक स्थिर खड़े रहने में सहज लग रहा था। मन जितना हो सकता था, अस्थिर था। कोई सार्थक कार्य करने योग्य मन की न तो सामर्थ्य थी और न इच्छा। पीड़ा से मन का ध्यान हटाने के लिये कुछ वेबसीरीज भी देखी पर अन्ततः पीड़ा ही प्रधान रही। कहीं पढ़ा था कि पीड़ा तो मानसिक होती है, मन में ही अनुभव होती है, यदि मन अभ्यास कर ले तो अनुभव नहीं होगी। प्रयास किया और अपनी मूढ़ता पर ढंग से हँसा भी। पीड़ा जैसा सत्य का प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं होता है, पूर्ण ध्यास्थ हो मन वहीं लगा रहता है।
पाँच दिन की औषधि और संलग्न प्रताड़ना के बाद देव प्रसन्न हुये और पीड़ा तनिक सहनीय हुयी। प्राणायाम प्रारम्भ कर दिया है, प्रातः थोड़ा टहलना भी हो जाता है, सम्यक रूप से बिना करवटों से सो रहा हूँ, भोजन संतुलित ले रहा हूँ, नींद की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ रही है, साथ में लेखन भी कर पा रहा हूँ। ईश्वर शीघ्र ही दिनचर्या के शेष अंगों को भी मुझसे जोड़ देंगे, यही प्रार्थना है।
पीड़ा के समय मन क्या संवाद करता है, क्या आर्त स्वर फूटते हैं, सुधार के क्या शपथ धरी जाती हैं, जानेगे पीड़ा के उच्चारण में, अगले ब्लाग में।
ईश्वर आपकी प्रार्थना स्वीकार करें।
ReplyDeleteपीड़ा के समय व्यक्ति सुधारशील हो जाता है।
Deleteआपका लेख बड़ा ही उपयोगी लग रहा है, क्योंकि इस तरह की पीड़ा अक्सर बर्दाश्त के बाहर होती है,पठनीय लेखन ।
ReplyDeleteजी, आभार आपका।
Deleteप्राकृतिक रूप से स्वतः स्वस्थ होने में एक तत्व जो सदा ही उपयोगी रहा है, वह है समुचित निद्रा। समुचित निद्रा हो जाये तो विकार क्षीण हो ही जाता है। छोटे मोटे कष्ट हों तो प्रथम अवसर मिलते ही सो जाते हैं, उठने के बाद या तो कष्ट चला जाता है या सहनीय हो जाता है।
ReplyDeleteसही कहा आपने पर नींद भी तभी आती है जब शरीर स्वस्थ हो...।
सुन्दर पठनीय लेख।
जी सुधाजी, यह स्वास्थ्य का संकेत भी है और उपचार भी।
Deleteसार्थक लेख👍👍👍
ReplyDeleteआभार आपका।
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