निभाने थे दायित्व, सर पर खड़े हो,
हर पल मुझे क्यों धिक्कारते हो ।
कटुता की बेड़ी में मुझको जकड़ कर,
संशय की कारा में क्यों डालते हो ।।१।।
विवादों के घेरे में जीवन खड़ा कर,
विषादों के रथ पर चला जा रहा हूँ ।
है निष्फल अभी पूछना प्रश्न मुझसे,
हूँ निष्क्रिय, स्वयं से छिपा जा रहा हूँ ।।२।।
रहे अन्य कारण, विवशता प्रखर थी
नहीं कर सका, जो संजोया हृदय ने।
बड़ी चाह, ऊर्जा प्रयासों में ढाली,
नहीं स्वप्न वैसा पिरोया समय ने ।।३।।
नहीं आज वैसा जो चाहा कभी था,
नहीं आज मन में अथक तीक्ष्णता है।
प्रस्तर बड़े और जूझी विकट पर,
धारा विपथगा, अपरिचित कथा है ।।४।।
रहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,
खड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।
पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,
मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले ।।५।।
आज सबकी मनः स्थिति ऐसी ही हो चली है ।
ReplyDeleteहमेशा की तरह खूबसूरत गेय रचना ।
हृदय की व्यथा उकेरती उत्तम रचना।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका।
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार 24 मई 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।संगीता स्वरूप
बहुत आभार आपका।
Deleteपरिस्थिति के अनुरूप मनोदशा का यथार्थ चित्रण।
ReplyDeleteसराहनीय कृति।
सादर।
धन्यवाद श्वेताजी
Deleteहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,
ReplyDeleteखड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।
पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,
मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले ।---बहुत गहरी रचना।
आभार संदीपजी
Deleteवर्तमान परिस्थितियों को हू-ब-हू उकेर दिया आने तो प्रवीण जी, बहुत खूब कहा कि- "रहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,
ReplyDeleteखड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।
पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,
मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले" ---वाह
बहुत आभार आपका
Deleteविवादों के घेरे में जीवन खड़ा कर,
ReplyDeleteविषादों के रथ पर चला जा रहा हूँ ।
है निष्फल अभी पूछना प्रश्न मुझसे,
हूँ निष्क्रिय, स्वयं से छिपा जा रहा हूँ ।
निष्क्रियता की अपनी मनःस्थिति का प्रतिबिंब इन पंक्तियों में पाया। उलझन से बाहर निकलने की छटपटाहट का सजीव चित्रण।
अकर्मण्यता छिपने को विवश करती है।
Deleteएक सक्रिय व्यक्ति जब विवशतावश अनेक संशय और शंकाओं के साथ जीने लगता है तो उसकी यही मनोदशा होती है |अनगिन परेशानियों से जूझते लोगों ने नहीं सोचा था कभी इस तरह से जीना और समय के इस विद्रूप चेहरे से साक्षात्कार करना | बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteरेणुजी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद। आपके ब्लाग क्षितिज और मीमांसा पढ़े, सुखद बौद्धिक अनुभूति हुयी। फीड में डाल लिये हैं, पढ़ने को मिलते रहेंगे।
Deleteनहीं आज वैसा जो चाहा कभी था,
ReplyDeleteनहीं आज मन में अथक तीक्ष्णता है।
प्रस्तर बड़े और जूझी विकट पर,
धारा विपथगा, अपरिचित कथा है ।।४।।