22.5.21

दायित्वबोध

 

निभाने थे दायित्व, सर पर खड़े हो,

हर पल मुझे क्यों धिक्कारते हो ।

कटुता की बेड़ी में मुझको जकड़ कर,

संशय की कारा में क्यों डालते हो ।।१।।

 

विवादों के घेरे में जीवन खड़ा कर,

विषादों के रथ पर चला जा रहा हूँ ।

है निष्फल अभी पूछना प्रश्न मुझसे,

हूँ निष्क्रिय, स्वयं से छिपा जा रहा हूँ ।।२।।


रहे अन्य कारण, विवशता प्रखर थी

नहीं कर सका, जो संजोया हृदय ने।

बड़ी चाह, ऊर्जा प्रयासों में ढाली,

नहीं स्वप्न वैसा पिरोया समय ने ।।३।।


नहीं आज वैसा जो चाहा कभी था,

नहीं आज मन में अथक तीक्ष्णता है।

प्रस्तर बड़े और जूझी विकट पर,

धारा विपथगा, अपरिचित कथा है ।।४।।


रहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,

खड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।

पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,

मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले ।।५।।


16 comments:

  1. आज सबकी मनः स्थिति ऐसी ही हो चली है ।
    हमेशा की तरह खूबसूरत गेय रचना ।

    ReplyDelete
  2. हृदय की व्यथा उकेरती उत्तम रचना।

    ReplyDelete
  3. आपकी लिखी  रचना  सोमवार  24 मई  2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

    ReplyDelete
  4. परिस्थिति के अनुरूप मनोदशा का यथार्थ चित्रण।
    सराहनीय कृति।
    सादर।

    ReplyDelete
  5. हूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,

    खड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।

    पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,

    मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले ।---बहुत गहरी रचना।

    ReplyDelete
  6. वर्तमान पर‍िस्‍थ‍ित‍ियों को हू-ब-हू उकेर द‍िया आने तो प्रवीण जी, बहुत खूब कहा क‍ि- "रहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,

    खड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।

    पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,

    मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले" ---वाह

    ReplyDelete
  7. विवादों के घेरे में जीवन खड़ा कर,
    विषादों के रथ पर चला जा रहा हूँ ।
    है निष्फल अभी पूछना प्रश्न मुझसे,
    हूँ निष्क्रिय, स्वयं से छिपा जा रहा हूँ ।
    निष्क्रियता की अपनी मनःस्थिति का प्रतिबिंब इन पंक्तियों में पाया। उलझन से बाहर निकलने की छटपटाहट का सजीव चित्रण।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अकर्मण्यता छिपने को विवश करती है।

      Delete
  8. एक सक्रिय व्यक्ति जब विवशतावश अनेक संशय और शंकाओं के साथ जीने लगता है तो उसकी यही मनोदशा होती है |अनगिन परेशानियों से जूझते लोगों ने नहीं सोचा था कभी इस तरह से जीना और समय के इस विद्रूप चेहरे से साक्षात्कार करना | बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई |

    ReplyDelete
    Replies
    1. रेणुजी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद। आपके ब्लाग क्षितिज और मीमांसा पढ़े, सुखद बौद्धिक अनुभूति हुयी। फीड में डाल लिये हैं, पढ़ने को मिलते रहेंगे।

      Delete
  9. नहीं आज वैसा जो चाहा कभी था,
    नहीं आज मन में अथक तीक्ष्णता है।
    प्रस्तर बड़े और जूझी विकट पर,
    धारा विपथगा, अपरिचित कथा है ।।४।।

    ReplyDelete