टीका, हृदय और रीढ़ की हड्डी में पीड़ा का संभावित स्रोत न प्राप्त होने से शेष कारण बाँहों के जोड़ और संबंधित माँसपेशियाँ ही रह गयीं। दोनों में ही खिचाव से नस प्रभावित हो सकती थी।
पाँचवाँ संभावित कारण किसी जोड़ में नस के दबने का था। बाँह और कंधे का जोड़ अभी तक के जीवन में सर्वाधिक चोटग्रस्त और प्रभावित अंग रहा है। दो बार फुटबाल खेलते समय बाँया कंधा उखड़ चुका है, वह पीड़ा असहनीय होती थी। अगले दो तीन दिन तक खेल पाना तब संभव नहीं होता था। कालान्तर में वही जोड़ आईआईटी के तरणताल में गहरे जाते समय उखड़ गया था। जो तैरना जानते हैं वे समझ सकते हैं कि लगभग २० फिट गहराई से ऊपर आने में दोनों हाथों के पूरे प्रयोग से स्वयं को ऊपर की ओर खींचना सा होता है। एक हाथ कर्महीन, असहनीय पीड़ा और थोड़ी सी ही साँस, किसी तरह से एक हाथ से ही सारी शक्ति लगा कर ऊपर आना हुआ। उस अनुभव की वेदना अभी तक याद है। उस घटना को तो वैसे तीस वर्ष होने को आये हैं पर संभावना नकारी नहीं जा सकती है कि पुनः वही जोड़ पीड़ा दे रहा हो। संभव हो कि अपने स्थान से तनिक च्युत हो नस को दबा रहा हो।
छठवाँ संभावित कारण कंधे आदि की माँसपेशियों के खिंचने का था। पिछले ६ माह से नित्य सुबह तीरन्दाजी का अभ्यास कर रहे हैं, लगभग ५० मीटर की दूरी से १०० से अधिक तीर प्रतिदिन। तीरन्दाजी में बाँयीं बाँह से धनुष पकड़ना होता है और दायें से प्रत्यन्चा और तीर। तीर छोड़ने के पहले लक्ष्य पर साधते समय दोनों हाथों पर अधिकतम दबाव आता है, बाँये भाग में दाँये की अपेक्षा कहीं अधिक दवाब आता है। प्रारम्भ में बाँयी बाँह में कभी कभी हल्की सी थकान अनुभव अवश्य हुयी थी पर पिछले २ माह से अभ्यास अच्छा हो चला था। साथ ही टीका लगने के बाद से अभ्यास बन्द भी था। अतः पीड़ा के समय प्रयोग में न आने से इस कारण की संभावना भी कम थी।
सातवाँ संभावित कारण अनुचित भंगिमा में सोने का था। पहली बार यह पीड़ा सोते ही समय हुयी थी अतः इस कारण की संभावना कहीं अधिक थी। कहते हैं कि भोजन के तुरन्त पश्चात बाँयी करवट लेटना चाहिये अन्यथा सीधा पीठ के बल। हाथ भी सहज स्थिति में रहने चाहिये। वैसे तो पूरा पता नहीं चलता पर उठने समय जो स्थिति होती है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सोते समय शरीर सारी भंगिमाओं से होकर निकलता है। कई बार उठते समय कोई बाँह सुन्न सी हो जाती है। पता नहीं कि यह वर्तमान पीड़ा का कारण था पर यह तो निश्चित है कि भविष्य में उचित ढंग से न सोने से स्वास्थ्य संबंधी समस्यायें आ सकती हैं। शरीर की भंगिमा के अतिरिक्त बिस्तर की कठोरता और तकिये की ऊँचाई भी महत्वपूर्ण है। इन दोनों विषयों पर भी अब भविष्य में सावधान रहने का मन बना लिया है।
आठवाँ संभावित कारण अपने श्वान को सुबह और सायं टहलाने का था। हमारे श्वानजी सेंटबर्नाड प्रजाति के हैं और महाकाय हैं। वैसे तो अनुशासन में रहते हैं पर कुछ रुचिकर दिख जाये या गन्ध आये तो सहसा उत्सुक हो जाते हैं। उनका पट्टा बहुधा बाँये हाथ में ही रहता है, कभी वह आगे रहते हैं तो कभी पीछे। आगे तो फिर भी उनके ऊपर दृष्टि रहती है पर पीछे रहते समय यदि उनकी उत्सुकता प्रबल हो चली तो वह सहसा मुड़ जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में कई बार हाथ में झटका पड़ा है। डाँटने पर प्यारा सा मुँह तो बना लेते हैं पर यह प्रवृत्ति छोड़ने को तत्पर नहीं दिखते हैं। टीका लगने के कारण उनको टहलाने का कार्य हमारी बिटिया कर रही थी अतः इसका भी पीड़ा का कारण होने की संभावना कम ही थी।
नवें संभावित कारण पर हमारी बिटिया ने हमारा ध्यान आकर्षित कराया। उनके अनुसार हम पानी बहुत कम पीते हैं और यह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। जिस समय पहली पीड़ा हुयी, उस समय नवदुर्गा का व्रत भी चल रहा था। आहार की मात्रा न्यून थी, अन्नादि भी निषेध था। ऐसी स्थितियों में जल का सेवन अधिक करना चाहिये। लाकडाउन जैसी स्थितियों में घर से बाहर निकलना न के बराबर था और जीवनशैली शिथिल थी। बिटिया को लगता है कि हमने जल का सेवन कम किया जिससे माँसपेशियों में जल की मात्रा कम हुयी और उनमें सिकुड़न हुयी। मुझे जल और माँसपेशियों का यह संबंध ज्ञात नहीं था तो बिटिया ने बताया कि बाडीबिल्डर प्रतियोगिता के पहले पानी पीना बन्द कर देते हैं जिससे उनकी माँसपेशियाँ और सिकुड़ जाती हैं और स्पष्ट होकर उभरती हैं। कभी कभी पानी की अधिक कमी हो जाने से माँसपेशियों में क्रैम्प पड़ जाते हैं और अत्यधिक पीड़ा होती है। यह सुनकर बिटिया पर गर्व हुआ और स्वयं पर संशय। इसका प्रभाव यह पड़ा कि एक बोतल में पानी भर कर हमारी मेज पर रख दिया गया और निर्देश दिया गया कि पानी बीच बीच में पीते रहिये। इसका पीड़ा के निवारण पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। जब प्यास अधिक लगती थी तो पीड़ा भड़कती थी और जब उचित मात्रा में जल पीते थे तो पीड़ा तनिक कम हो जाती थी।
दसवाँ और अन्तिम संभावित कारण आयुर्वेद के सिद्धान्तों पर आधारित था। आयुर्वेद कहता है कि सारी पीड़ाओं का मूल वात का भड़कना है। शरीर को कफ आधार देता है, पित्त ऊर्जा और वात गति। संयमित वात जहाँ एक ओर शरीर की सारी प्रक्रियाओं को संचालित करता है वहीं अनियन्त्रित वात विध्वंस करता है। तन्त्रिकातन्त्र सहित अन्य तन्त्र पाँच प्रकार की वायु के आधार पर विश्लेषित किये गये हैं। पीड़ा अपना स्थान बदल रही थी, गर्दन से लेकर कुहनी तक परिमाण में बदल रही थी। दिन और रात में, २ से ६ के बीच, जिस समय वात का समय होता है, उसी समय पीड़ा प्रारम्भ भी हुयी थी और उसी समय पीड़ा अपने अधिकतम बिन्दु पर पहुँच भी रही थी। शरीर में किसी और कारण से वात बढ़ने पर पीड़ा बढ़ रही थी और इसके विपरीत वातनाशक उपायों से पीड़ा कम हो रही थी।
दसवाँ संभावित कारण अपने आप में प्राथमिक कारण नहीं था। इसमें कई कारणों का संश्लेषण होता हुआ दिख रहा था। पहला कारण वातवर्धक था। टीका लगने से शरीर एण्टीबाडीज बढ़ती हैं। इस प्रक्रिया में पहले तापमान बढ़ता है उसके बाद वात। अधिक पानी पीना और ज्वर उतारते रहना आवश्यक होता है। शरीर में ऐठन होना भी इसी का परिचायक है। इस कार्य के लिये शरीर को अधिक ऊर्जा भी आवश्यक होती है। इसके विपरीत जब नवें संभावित कारण में नवदर्गा के व्रत के समय समुचित जल नहीं पिया और अन्न की अनुपस्थिति में शरीर दुर्बल रहा तो उसकी परिणिति शरीर के अन्य अवयवों को पचा कर हुयी, जिससे वात दोष बढ़ा। बढ़े वात के प्रभाव का स्थान संभवतः वह स्थान रहा जो पाँचवे कारण में वर्णित था, या कंधे का जोड़ जो पहले से ही तनिक दुर्बल या क्षतिग्रस्त था। लोकोक्ति भी है कि जब भी पुरुवाई चलती है, पुरानी चोटों और जोड़ों में पीड़ा वापस आ जाती है। इसके साथ ही अन्य संभावित कारण अपने अनुपात में इस वात वर्धन में अपना योगदान दिये होंगे।
सैद्धान्तिक समझ को हमारे चिकित्सक महोदय के निवारण से बल मिला। कारण का लगभग सही सही ज्ञान अपने आप में पीड़ा कम नहीं करता है। उसके लिये विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है जो भिन्न उपायों को सही क्रम में रख कर उपचार करता है। हमारे चिकित्सक ने क्या औषधियाँ और उपाय बताये और हमने किन दीर्घकालिक उपायों को अपनी जीवनशैली में अपनाया, जानेंगे अगले ब्लाग में।
स्वस्तिकामनाएँ
ReplyDeleteअब स्वास्थ्य सामान्य हो गया है, आभार आपका।
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