27.4.21

मित्र - २९(फिल्म और समग्रता)

आलोक बताते हैं कि उनके जीवन में फिल्म, संगीत और यात्रायें, ये तीन ही प्रमुख तत्व हैं। शेष सब या तो इनके बीच के रिक्त समय को भरने के लिये हैं या इनके लिये धन, साधन और संसाधन जुटाने के लिये हैं।

यह वक्तव्य आलोक के फिल्म अनुराग को सशक्तता और स्पष्टता से व्यक्त करता है। इस परिप्रेक्ष्य में छात्रावासीय जीवन में उनके फिल्म देखने हेतु किये गये एकनिष्ठ प्रयत्न उत्पात की श्रेणी में नहीं आयेंगे। जीवन उद्देश्य को निभाने का आग्रह तो सत्कर्मों की श्रेणी में आता है। हम कभी समझ ही न पाये कि जिस मित्र के साथ फिल्म देखकर हम अपने साहस और जीवटता जैसे गुणों का बखान कर रहे थे, वह तो छात्रावास की कहानी में चरित्र अभिनेताओं जैसा प्रदर्शन था। फिल्म देखने के पूरे प्रकरणों के मुख्य पात्र तो आलोक थे। हम ही नहीं वरन आचार्यजी भी उस समय नहीं सोच पाये होंगे कि मन में गहरे बसे जीवट भाव दण्डात्मक प्रावधानों से नहीं जाते हैं। देर से ही सही हम सबने यह तथ्य स्वीकार कर लिया है। यहाँ तक कि छात्रावास जीवन में आलोक के फिल्म प्रयत्नों के धुर विरोधी रहे आचार्यजी भी ने इसे मान दिया है और वर्तमान में आलोक के निमन्त्रण पर दो फिल्में भी देखी हैं।


आलोक सरल, बौद्धिक और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व हैं। उनसे कुछ निकलवा पाने के लिये बहुत कुरेदना पड़ा है, पर जो पक्ष निकल कर आया है वह पठनीय और मननीय है। पाठकों की सुविधा के लिये मैं उसका भावार्थ कह देता हूँ।


फिल्में मेरा धर्म थीं, हैं और रहेंगी। सब यहीं छोड़कर, आज और अभी से कहीं दूर, कल्पना की उड़ानों में, रूमानी विश्व में, फिल्मों की प्रशान्त काव्यत्मकता में, बस डूब सा जाता हूँ। फिल्मों के नायक तो मुझे प्रिय हैं पर उससे से भी अधिक प्रिय है कहानियों के माध्यम से चारों ओर उभारे उनके चरित्र, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अपनी पुरातन गाथाओं में कहानियाँ और चरित्र गुँथे हुये से हैं। मेरे लिये यह समझना बहुत ही कठिन था कि एक ओर मैं ऐतिहासिक पात्रों को तो चाहूँ पर फिल्मों के पात्रों से घृणा करूँ। वह भी मात्र उनमें निहित कामुकता, विमोहन, पुरुषत्व या वीरता के कारण? मेरे लिये पुरुरवा की उर्वशी भी उतनी ही विमोहक है जितनी मास्टरजी की श्रीदेवी, कामायनी का मनु उतना ही पुरुषत्व धरे है जितना गुलामी का मिथुन।


कहानी कहानी है, कथानक कथानक है। किसी भी शैलीविशेष की फिल्म में आरोह और अन्त की रोचकता एक सी ही होती है। तब हमसे यह क्यों कहा जाता है कि इस शैली की फिल्म देखो और उस तरह की नहीं? कहें तो इस प्रकार भेद के लिये प्रेरित करना अपने आप में एक भेदपूर्ण व्यवहार है। यह अन्यथा प्रयास एक युवा मन को अच्छी कहानी, उसकी प्रस्तुति आदि जैसे तत्वों को समझ पाने से वंचित कर देता है। साड़ी, सूट, सलवार या स्कर्ट, कौन क्या पहने है उस आधार पर भेदपूर्ण आक्षेप लगाना सुन्दरता में दोष देखने जैसा है।


मेरे जीवन में फिल्म, संगीत और यात्रायें, ये तीन ही प्रमुख तत्व हैं। शेष सब या तो इनके बीच के रिक्त समय को भरने के लिये हैं या इनके लिये धन, साधन और संसाधन जुटाने के लिये हैं।


मुझे इस बात का गर्व है कि विद्यालय और मेरे अभिभावकों ने मुझे एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के रूप में विकसित किया है। मुझे इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि कोई मेरे कार्यक्षेत्र या प्राथमिकताओं के बारे में क्या सोचता है? इनके साथ फिल्मों ने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया है।


अहा…यह मेरे विचार थे। कुरेदने के लिये आभार


अत्यन्त सशक्त अभिव्यक्ति, आलोक को शेष छात्रावासियों से अलग पंक्ति में खड़ा करती हुयी, अभिनवगुप्त के रस सिद्धान्त को विशिष्ट प्रायोगिकता देती हुयी। फिल्मों को लेकर छात्रावास में विद्रोह स्वरूप से लेकर मोह स्वरूप तक की इन्द्रधनुषीय प्रवृत्तियाँ व्याप्त थीं। वहीं दूसरी ओर आचार्यों के मनस्थलों में फिल्मों के संबंध में अनुशासनीय दृढ़ता से लेकर चारित्रिक शिथिलता की धारणायें बनी हुयी थीं। इन्हीं दोनों विमाओं में उत्पात और दण्ड के न जाने कितने चक्र चले थे और संभवतः अभी भी चल रहे होंगे।


यह एक अनवरत कथा है, सबके अपने सामयिक और तात्कालिक पक्ष हैं। निष्कर्ष निकाल कर कथा के आनन्द में व्यवधान लाने का न कोई विचार है और न ही कोई शीघ्रता। अगले ब्लाग में अन्य रणक्षेत्रों पर संघर्ष की स्मृतियाँ।

No comments:

Post a Comment