अशोक ने बताया कि वह कक्षा ३ में थे, लगभग ९ वर्ष के होंगे। उस समय सुहाग फिल्म आयी थी, अमिताभ और शशिकपूर वाली। दोपहर का समय था, घर में माँ सो रही थी, पिताजी बैंक में थे। खलासी लाइन से विवेक टाकीज में वह साइकिल से पहुँच गये। उस समय इतनी लम्बाई नहीं हुयी थी कि साइकिल गद्दी पर बैठकर चला पाते, बस कैंची चलाकर मुहल्ले की गलियाँ नाप आते थे। टिकट लेने पहुँचे और जेब से कुछ सिक्के निकाले। ये सिक्के उन्होने अपनी गुल्लक में जोड़े थे, कई महीनों की बचत थी, कई महीनों का त्याग था उसमें, जलेबी और समोसे का त्याग था। हाथ ऊपर तक उठाकर भी काउन्टर तक नहीं पहुँच पा रहे थे, पीछे से किसी सहृदय ने उठाया और उनका मुख काउन्टर के समक्ष कर दिया। पैसे दिये, टिकट लिया, अन्दर गये और पूरी फिल्म देखकर घर आ गये, ऐसे कि जैसे कुछ हुआ ही न हो।
अशोक के जीवन में यदि कोई तत्व सदा ही प्रचुर मात्रा में रहा है तो वह है आत्मविश्वास। कभी अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर सशंकित नहीं पाया है उनको। कभी कभी यह आत्मविश्वास इतना उभर कर आ जाता है कि शेष वातावरण उसमें छिप जाता है। विद्यालय में उनकी छवि ऊर्जायुक्त, क्षणिकमना, नित्यउद्धत और उत्फुल्लहृदय मित्र की थी। कोई दैवीय कारण रहा होगा कि उनसे बहुत पटती थी, पढ़ाई के अतिरिक्त सभी कार्यों में। कई घटनायें हैं पर जिस भौकाल से जाकर उन्होंने फिल्म निपटायी होगी वह बड़ा ही दर्शनीय रहा होगा। पूरे कालखण्ड में किसी ने उनसे कुछ बोला नहीं, कोई प्रश्न पूछा नहीं, कहीं रोका नहीं और यहाँ तक कि टिकट लेने में उठाकर सहायता भी की। पिता का हाथ पकड़े या माँ से पीछे छिपे ढुलुर मुलुर बच्चे अपने समकक्ष को जब इस प्रकार वयस्क विश्व में देखते होंगे तो बिना प्रभावित हुये तो न रह पाते होंगे।
कार्य सम्पादित करने की जो भी विशिष्ट शैली रही हो, अशोक का फिल्मों के प्रति प्रेम अगाध रहा है। कदाचित ही कोई चर्चित फिल्म उन्होंने छोड़ी होगी। फिल्मों से जुड़े इतने संस्मरण हैं उनके पास जिन्हें संकलित करके एक फिल्म बनायी जा सकती है। जिस उत्श्रृंखलता और उन्मुक्तता से कानपुर में फिल्में देखी जाती हैं और उन्हें जीवन में उतारा जाता है, वह अद्वितीय है। अशोक बताते हैं कि जिस समय ब्रज टाकीज में तेजाब फिल्म आयी थी, “एक दो तीन चार” वाले गाने के पहले वहाँ के प्रबन्धक पुलिस को बुला लेते थे क्योंकि झींक के नाचने में लड़कों को ध्यान नहीं रहता था कि उनसे क्या क्या टूट रहा है? कानपुर के इसी वातावरण का सारक्रम था उनका फिल्मप्रेम। उनके साथ घटित ३ घटनायें संभवतः इस प्रभाव को समझा सकने में पर्याप्त होंगी।
“मैंने प्यार किया” निशात में लगी थी, १२ से ३ का शो। अशोक के मित्र टिकट लेने के लिये पंक्ति में खड़े, दो टिकट ले पाने की सफलता को अपनी शैली में व्यक्त कर रहे थे, कनपुरिया उत्साह में। चर्चित महिला सीओ ब्लैक में टिकट बेचने के विरुद्ध अभियान और भीड़ नियन्त्रण में वहाँ उपस्थित थीं। कईयों के साथ उनको भी धरा गया और यूपी पुलिस द्वारा व्यवस्थित और सीओ द्वारा व्यक्तिगत कुटाई हुयी। मित्र का मुँह सूज गया था, पीड़ा अधिक हो रही थी, फिल्म देखने की न मुखभंगिमा थी और न ही मानसिक स्थिति। अशोक पशोपेश में, एक आतुर युवा युगल दिखते हैं, मित्र का दयनीय मुखमंडल भी भुना लेते हैं, दो सौ में टिकट बेच देते हैं। अत्यधिक पीड़ा के चिकित्सीय उपचार के स्थान पर फिल्मी उपचार, सोमरस पिलाया जाता है। घर जाने की स्थिति नहीं, बाहर ही विश्राम।
मन में एक बार फिल्म की कीड़ा बिना फिल्म देखे कहाँ शान्त होता है। रात्रि को ९ से १२ वाला शो निश्चित हुआ, “जमाईराजा”, हीरपैलेस में। रात में पुलिस वैसे ही टाकीजों में घूम आती है। इनके मित्र का सबसे अलग मुख और उससे निकलती सोमरस की सुगन्ध, श्रीमन फिर धरे गये। ईश्वर की कृपा ही थी कि सिपाही ने समझा कर छोड़ दिया। मध्यान्तर होता है, दीर्घशंका हेतु भागते हैं, वहाँ पर पहले से ही एक व्यक्ति अन्दर बैठा था। ऐसे दबाव में सारा विश्व शत्रुवत लगता है। क्रोधावेश में द्वार भड़भड़ाते हैं, सशब्द। द्वार खुलता है और अन्दर से क्रोध में एक और सीओ निकलते हैं, पुनः विधिवत कुटाई। फिल्म का ज्वर अगले तीन माह शान्त रहता है।
फिल्म “प्रेमदीवाने” चर्चित गाना, “ए बी सी डी….पी पी पी पी पिया…“। दोनों मित्र पूरे स्वर में, तान में और आरोह में गाते चले आ रहे थे। शंकर भगवान का प्रसाद चढ़ा हो या होली का समय हो, स्वर को और शरीर को एक विशेष शक्ति मिल जाती है, गान और नृत्य स्वतः प्रस्फुटित होने लगते हैं। ध्यान नहीं दिया पर पीछे पीछे पुलिस की जीप धीरे धीरे अनुसरण करती आ रही थी। जब न रहा गया, तो इनको रोका गया। एक ही डण्डे में मित्र का आधा नशा उतर गया था। पुलिस ने अशोक को भी गाने को कहा। भय में पद्य गद्य बन जाता है और श्रृंगार निर्वेद। गीत किसी तरह बाँच दिया। दरोगा ने पूछा कि पी से कुछ और भी होता है। इनका मस्तिष्क कौंधा, कहा “पुलिस”। पूछा और कुछ, “हाँ वह पुलिस पिये लोगों को ठीक करती है”। दरोगाजी मुस्करा दिये, जान लिये कि अशोक पूरी चेतना में हैं, जाने दिया।
२०-२२ मित्र फिल्म देखकर लौट रहे थे, “कर्मयोद्धा” ९ से १२ का शो, दीप सिनेमा में। हमीरपुर की ओर से आने वाली एक बस रुकती है, एक वृद्ध अपनी बिटिया के साथ उतरते हैं और रिक्शा में बैठकर चलते हैं। कोई अपनी रौ में उसी फिल्म का ताजा ताजा सुना गाना गाने लगता है, “हाय ये लड़कियाँ”। समूह में कईयों ने रोका भी पर उत्श्रंखलता संक्रमित होने लगती है, वातावरण अशोभनीय हो जाता है। सहसा कुछ दूर पर जाकर रिक्शा रुकता है, वृद्ध उतरते हैं, संभवतः बुन्देलखण्ड के होंगे, कुर्ता उठाकर रिवाल्वर निकालते हैं और भीड़ पर तान देते हैं। स्तब्धता, पूरी फिल्म हवा में उड़ जाती है। शोले की तरह कहा कि ६ गोलियाँ हैं, ६ तो जायेंगे ही। उनका मन भरा नहीं, कहा सब मुर्गा बन जाओ, सड़क पर तुरन्त २२ मुर्गे खड़े थे। कुछ मिनट बाद जाते समय कहा कि इसकी रेन्ज ३०० मीटर है, जो खड़ा हुआ, वही जायेगा। इसके बाद रिक्शे में बैठकर चल दिये। अगले ५ मिनट कोई हिला नहीं, कोई उठा नहीं, सब चुपचाप घर चले गये, एक माह तक कोई किसी से कुछ बोला नहीं, फिल्म देखना तो बहुत दूर की बात थी।
अशोक के लिये फिल्में सदा ही मनोरंजन का स्फूर्त साधन रही है। कभी उनको फिल्मों से बड़ी बड़ी प्रेरणा मिलती है, कभी मन का तम घुल जाता है, कभी निर्बद्ध आनन्द की विषयवस्तु। कोई भी पुरानी हो या नयी, समय रहता है तो वह देखने बैठ जाते हैं। उनके पुत्र आजकल उन्हें नये साधनों से परिचित करा रहे हैं। अशोक बताते हैं कि फिल्मों से क्या नहीं ग्रहण करना है, यह सबको समझ आता है। आप बच्चे नहीं हैं कि बिन जाने ही प्रभावित हो जायेंगे। अशोक का जीवन्त व्यक्तित्व फिल्मों की जीवन्तता से बहुधा अनुनादित होता रहता है।
वहीं दूसरी ओर आलोक का बौद्धिक कारण रहा है, फिल्मों के प्रति आकर्षण का। अगले ब्लाग में।
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