अतृप्ति के मूल में तुलना है। सामान्य से विशेष होने की इच्छा अतृप्ति का कारण बनती है। प्रयत्नों की चेष्टा प्रक्रिया बन जाती है और हम व्यस्त हो जाते हैं। आश्चर्य तब होता है जब विशेष प्राप्त हो जाने के बाद यह रहस्योद्घाटन होता है कि यह विशेष तो उतना विशेष नहीं था। समय और ऊर्जा व्यर्थ हो जाने का दुख होता है, यदि कुछ प्राप्य रहता है तो यह ढाढ़स कि जो चाहा था, पा लिया। क्या चाहा, क्यों चाहा, ये प्रश्न आत्म के लिये अनसुने हो जाते हैं। यह तो बहुत बाद में समझ आया किस अवस्था में किसे विशेष मानना चाहिये। तुलसीदास को जब उस विशेष की समझ याद दिलायी गयी तो रामचरितमानस सा अद्भुत ग्रन्थ लिखा जा सका। हम छात्रावासियों को इसी विशेष को समझाने का प्रयास और हमें अपने ही विशेष मानकर उनको पाने की उत्सुकता, इन्हीं दो धरातलों के मिलने की प्रतीक्षा क्षितिजवत हो गयी, छायायें लम्बी हो गयीं, सूर्य उदास सा स्वयं ही अस्त हो चला, हर दिन।
स्वातन्त्र्य के लिये हम सबके मन में एक छटपटाहट थी और वह ऐसी ही तुलना पर आधारित थी। इस तुलना में विशेष की प्राप्ति के लिये मन नहीं अकुलाता था वरन सामान्य की प्राप्ति को आत्म उद्धत होता था। जब अधिकांश के पास “वह” हो तो “वह” विशेष नहीं रह जाता है। जब सामान्य भी हाथ में न हो तो मन की पीड़ा वंचितों सी होती है। हम छात्रावासियों की दशा कुछ ऐसी ही थी। अनुराग से इस पक्ष पर विस्तृत चर्चा हुयी तब कहीं जाकर वर्षों के बाद उलझे कारण सुलझ कर सामने आ सके, हम अपने व्यवहार का कारण समझ सके।
हमारी कक्षा में विद्यालयवासियों की संख्या कहीं अधिक थी। हमारी दृष्टि में उनके पास पर्याप्त स्वतन्त्रता थी। वे ही हमारे नित्य के सम्पर्क बिन्दु थे, वही समाचारों के वाहक थे, कहाँ क्या चल रहा है? जब भी कक्षाओं के बीच में बातचीत चलती थी, उनके द्वारा ही पता चलता था कि कौन सी फिल्म कहाँ लगी है? कई लोग देख भी आते थे और कथानक भी सुनाते थे। यह अनुभव भी कि वापस घर जाते समय कितने आनन्द उठाते हुये भिन्न जगहों पर स्वादिष्ट पकवान खाते थे। इसके बाद भी जो आनन्द शेष रह जाता होगा वह घर पहुँचकर माँ के हाथ का भोजन कर और स्नेह पाकर मिल जाता होगा। हमारे विद्यालय के मित्रों ने एक अतरंगी सा विश्व बना रखा था बाहर का, अपने अनुपात से कहीं बड़ा, कहीं अधिक मनोहर।
सारा आनन्द केवल विद्यालयवासियों के भाग में था, ऐसा नहीं था। उनको भी लगता होगा कि छात्रावासी अधिक आनन्द में रह रहे हैं। न कोई पढ़ने के लिये पूछने वाला, न कोई विलम्ब से घर आने के लिये डाँटने वाला, मित्रों के साथ चौबीस घंटों का साथ, दिन भर गपियाने का आनन्द, एक उत्सवीय जीवन। मुझे तो कभी विचार नहीं आया पर मनीष ने बताया कि छात्रावासियों की आत्मीयता, एकता, उत्श्रृंखलता और प्रतियोगी परिवेश उनको सदा से ही प्रभावित करता रहा है।
हमारे इस दिवा स्वप्न का सरल समाधान तो यह था कि सप्ताह में एक दिन बाहर जाकर हम वह संसार देख आते और उसका यथार्थ समझ आते या कुछ ऐसा होता कि छात्रावासी और विद्यालयवासी माह में २-३ दिन एक दूसरे के स्थान पर रह लेते। इतने सरल उपायों के स्थान पर हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाया गया, बड़े स्वप्न देखने की प्रेरणा पकड़ायी गयी, बालसमझ के मानस में आदर्शों को ढेला गया। ये सब भी आवश्यक थे, पर समय आने पर। पतंजलि योगसूत्र में कहते भी हैं कि क्रम बदलने से कार्य बदल जाता है। समय के पहले और आवश्यकता से अधिक खाकर अपच हो गयी, जठराग्नि के अभाव में कुछ पचा ही नहीं पाये। जानने और करने की उद्भट आंकाक्षा जगती तो यही सब बुद्धिविकास और जीवनोत्थान के पोषकतत्व हो जाते। अपने विशेषों में उलझे हम विशेष की सार्थकता समझ ही नहीं पाये। साधना में मन कहाँ रमेगा जब मन स्वयं ही सुख साधन जुटाने निकल पड़ा हो। हमें तो सुख की हर परिकल्पना में बाहर के दृश्य सुहाते थे।
इस मनोदशा का परिणाम यह होता था कि किसी प्रकार बाहर जाकर यदि कल्लू की चाट भी खा आये तो लगता था कि जगत जीतकर लौटे हैं। इसी से प्रेरित थी, किसी भी सायं को या अवकाश के दिन बाहर जाने की उत्कण्ठा। बाहर जाने की अनुमति लेनी होती थी जो कि साधारणतया नहीं मिलती थी। कारण बताने होते थे जाने के। कोई कितने कारण उत्पन्न करेगा अपनी बुद्धि से और कैसे संतुष्ट करेगा छात्रावास अधीक्षक को उसकी आवश्यकता के बारे में? बाल कटाने के लिये माह में एक बार और वह भी निश्चित नहीं, कह दें कि बाल ठीक लग रहे हैं। अनुमति मिले भी तो, वह भी एक घंटे की। सप्ताहों के देखे सपने कहाँ भला एक घंटे में आकार पा पाते हैं? दूसरा कारण था आवश्यक सामान लाने का, कोई पुस्तक या कलम या साबुन। उसमें भी एक घंटे से अधिक नहीं, पास में ही सरस्वती पुस्तक भण्डार था। मित्र से कोई प्रश्न पूछने के लिये? यह बहुत ही दुर्बल कारण था।
सत्य बताना संभव नहीं था। कहीं खाने जा रहे हैं या फिल्म देखने जा रहे हैं, ये कारण अनुमति मिलने में आधारहीन थे, अर्थहीन थे। भोजन छात्रावास में मिलता ही था और छात्र जीवन में फिल्म से दूर रहना चाहिये, इससे मानसिक प्रदूषण होता है, इति। किसी और कारण से अनुमति लेकर कुछ और कर आने के कई प्रयास हुये भी और पकड़े भी गये। आवश्यक सामान लाने और कार्य निपटाने का समय पूर्वाह्न में होता था, उस समय न कल्लू की चाट का ठेला लगता था और न हीं फिल्म का कोई शो ही प्रारम्भ होता था। वैसे भी एक घंटे की अनुमति लेकर तीन घंटे में वापस आना संशय को उत्पन्न कर देता। इस बाध्यता के कारण कुछ छात्रावासियों ने नियमित फिल्म के पहले चलने वाली छोटी अवधि की अंग्रेजी फिल्में ही निपटा डालीं।
बाहर का विश्व कुछ तो विद्यालय के मित्रों ने बड़ा बना दिया था, शेष अनुशासन के कठिन नियमों ने। रुद्ध जल सदा ही अवरोध से टकराकर पार पाना चाहता है और जब तक राह नहीं बना लेता उसे आगे की कोई समझ नहीं रहती। हमारी भी वही स्थिति रही, ऊर्जा और समय बस इसी पर व्यर्थ होते रहे। आज उन्हीं घटनाओं का विचार विनोद उत्पन्न कर देता है पर उस समय हम इन्हीं क्रियाओं में गम्भीरतम थे।
हमारी चिन्तन प्रक्रिया भले ही न समझी जा सकी हो पर हमारे बुद्धिबल की थाह पायी जा चुकी थी। हमारी चालें और बाध्यतायें स्पष्ट हो चली थीं। तू डाल डाल, मैं पात पात, यह मुहावरा जीवन्त हो चला था।
Great memories sir 👏👏
ReplyDeleteGreat memories sir 👏👏
ReplyDeleteडॉक्टर राज तिलक के कारण मुझे भी कल्लू के खसते तथा मैंगो शेक का रसास्वादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ReplyDeleteइस रहस्य का उदघाटन अगले episode में
महेन्द्र जैन
कोयंबटूर
9362093740