9.2.21

मित्र - ७(विद्यालय और व्यवस्था)

किसी भी छात्र के लिये दस वर्ष की अवस्था में अपने घर से दूर छात्रावास में रह कर पढ़ना कुछ स्वाभाविक प्रश्न उठाता है। ऐसा नहीं था कि मेरा घर किसी गाँव या कस्बे में हो, हमीरपुर जिला मुख्यालय है। ऐसा भी नहीं था कि सरस्वती शिशु मन्दिर में प्राप्त प्रारम्भिक शिक्षा में कोई न्यूनता रही हो। यदि ऐसा होता तो दीनदयाल विद्यालय की प्रवेश परीक्षा में मेरा ५वाँ स्थान नहीं आता। अपने छात्रों के प्रति आचार्यों का समर्पण अद्वितीय था। हर माह में एक बार घर आकर छात्र के सभी विषयों का आकलन, अन्य पक्षों पर चर्चा, अभिभावकों से स्पष्ट अपेक्षा और भविष्य का मार्गदर्शन, कौन सा विद्यालय करता था या करता है? यह तब हमें बड़ी सामान्य सी बात लगती थी पर जिस तरह के अभिभावक सम्मेलन अपने बच्चों के लिये हमने किये हैं, उसके बाद से हमारी धारणा बदल गयी। विस्तार, गहराई, विश्लेषण और आत्मीयता, इन सभी क्षेत्रों में हमारे आचार्यों का कोई सानी नहीं था। एक भय सा रहता था उस दिन कि किन उद्दण्डताओं को बताया जायेगा, किन प्रश्नों को दिखाया जायेगा, अभिभावकों से और किन तथ्यों को जाना जायेगा। दोनों छोर, आचार्य और अभिभावक, एक साथ, युगपत, न अधिक खिंचाव, न अधिक ढिलाई।


प्रारम्भिक शिक्षा में विकल्प अधिक नहीं थे। सरकारी प्राइमरी विद्यालय थे, २-३ अन्य निजी विद्यालय और सरस्वती शिशु मन्दिर। अन्य विद्यालय न पाठ्यक्रम में, न अनुशासन में और न ही आचार्यों के समर्पण में सरस्वती शिशु मन्दिर के सामने कहीं ठहरते थे। मुझे यह तथ्य ज्ञात नहीं है कि आचार्यों का चयन कैसे किया जाता था पर जो भी चयन की प्रक्रिया थी, उन आचार्यों के कारण ही विद्यालय का एक नाम था। विद्यालय भवन के नाम पर कुछ भी न होने बाद भी स्तरीय शिक्षा देने में सक्षम था मेरा विद्यालय। एक तथ्य जिस पर गर्व रहा और पीड़ा भी कि कैसे इतने कम वेतन में भी आचार्यों ने कभी अपने मानक ढीले नहीं पड़ने दिये। सभी आचार्यों के नाम और उनके विषय आज भी स्मृति में हैं, आदर और कृतज्ञता सहित।


माध्यमिक शिक्षा के नाम पर हमीरपुर में दो विकल्प थे, जीआईसी और विद्यामन्दिर। मेरे कई मित्र और बान्धव इन्हीं विद्यालयों में पढ़े हैं और अपने प्रयासों से आगे तक भी गये हैं। जीआईसी सरकारी विद्यालय था जो बहुत समय तक अपनी गुणवत्ता बनाये रखने में सक्षम रहा। विद्यामन्दिर एक स्थानीय संस्था द्वारा संचालित था और दो तीन समर्पित अध्यापकों के रहने तक ही ठीक रहा। कालान्तर में दोनों विद्यालय अध्यापकों की अनमयस्कता, छात्रों की अनुशासनहीनता और ट्यूशन उद्योग की भेंट चढ़ गये।


स्थानीय शिक्षा के इस परिदृश्य में कानपुर स्थित दीनदयाल विद्यालय एक स्पष्ट हस्ताक्षर था। इसकी प्रसिद्धि और माँग बहुत अधिक थी और इसमें प्रवेश परीक्षा होती थी। छात्रावास संबद्ध होने के कारण यह बाहर से आने वाले छात्रों के लिये सुविधाजनक था। उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त बिहार और मध्यप्रदेश के भी छात्र अधिक संख्या में यहाँ के छात्रावास में आकर रहे हैं। इस विद्यालय के बारे में जानकारी आचार्यों के माध्यम से ही हुयी थी। विद्यालय के बारे में उनका आकलन और मेरे लिये उनकी संस्तुति, दोनों ही सटीक थे। बाहर के छात्रों के लिये ही नहीं वरन कानपुर के स्थानीय मित्रों के लिये भी दीनदयाल विद्यालय आशा की किरण था। सबके अपने व्यक्तिगत कारण तो भिन्न होंगे पर अपनी स्थापना के कुछ ही वर्षों में विद्यालय के द्वारा अपना एक विशिष्ट स्थान बना लेना सबका साझा कारण था।


मेरे लिये अच्छे मित्रों का होना, इसका आधारभूत कारण विद्यालय का अच्छा होना था। ७ वर्षों तक मित्र अपनी बौद्धिक गुणवत्ता बनाये रखे, इसका आधारभूत कारण विद्यालय का उस कालखण्ड में अच्छा बने रहना था। बोर्ड की और प्रतियोगी परीक्षाओं में मित्रों ने अद्भुत परिणाम दिये, इसका आधारभूत कारण विद्यालय का सतत अच्छा करते रहना था। मित्रों में अनुशासन बना रहा, भटकन सीमाबद्ध रही, इसका आधारभूत कारण विद्यालय का अपने अच्छेपन को सयत्न बचाये रखना था। आज भी हम मित्र सद्भाव और उत्साहपूर्वक जुड़े हुये हैं, इसका आधारभूत कारण भी विद्यालय का उस अच्छाई को पल्लवित व पोषित करना था।


बीते कई दशकों में मैंने व्यवस्थाओं को ढहते हुये देखा है। कोई एक कारण ही दीमक की तरह पूरे तन्त्र को चपट जाता है। क्या कारण रहा कि जिस प्रवाह में अन्य शिक्षातन्त्र ठहर न पाये, हमारा विद्यालय स्थिर खड़ा रहा? वह क्या बात रही जो सामान्य दृष्टि से नहीं दिखी। यदि दिख जाती तो उसे अन्य विद्यालय अपने में उतार कर श्रेष्ठ बन सकते थे। एक सुदृढ़ तत्व जो अभिभावकों और आचार्यों में समान रूप से विद्यमान था, वह था भारतीय परंपरा और मूल्यों के प्रति स्नेह। मन में भले ही यह चाह रही हो कि बच्चा अच्छी अंग्रेजी बोल ले पर पाश्चात्य सभ्यता की पद्धतियों के प्रति एक उपेक्षा का भाव बना रहा। यह विकल्प रहा तो कान्वेन्ट में भेजने का कोई अर्थ नहीं लगा अभिभावकों को। आचार्यों का विषयगत ज्ञान अन्य विद्यालयों की तुलना में भले ही अधिक न हो पर उनकी निष्ठा और संप्रेषण शत प्रतिशत थे। एक वृहद विचार की परिणिति का आकार लेता रहा विद्यालय का दिशाक्रम।


हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि सफल प्रयोगों के बाद भी उनका पल्लवन, पोषण और द्विगुणन नहीं हो पाता है। शिक्षा व्यवस्था की सफलता का मानक तो यही होगा कि वह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े, समाज, नगर या परिवार के बालक को उसकी क्षमता के आधार पर अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दे। मेरे दोनों विद्यालयों ने मेरे लिये और मेरे मित्रों के लिये यह किया, एक दो वर्ष नही, कई दशकों तक। वह कौन सा मूल तत्व था जो अन्य स्थानों में या अन्य तन्त्रों में स्थापित नहीं किया जा सका? यदि ऐसा ही रहा तो सफल प्रयोग अपनी सफलता पर आत्ममुग्ध हो अपना जीवन जी लेंगे और कालान्तर में उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह पायेगी। क्यों नहीं ऐसा हो पाया कि बिना प्रवेश परीक्षा के सभी आवेदक छात्रों को विद्यालय में प्रवेश मिला हो? क्यों नहीं ऐसा हुआ कि बाहर से आने वाले किसी भी छात्र के लिये छात्रावास मना नहीं किया गया हो? क्यों नहीं हर नगर में एक दीनदयाल विद्यालय या हर गाँव में एक सरस्वती शिशु मन्दिर खुल पाया हो?


उत्तर अब भी प्रतीक्षारत हैं।

4 comments:

  1. सटीक विश्लेषण

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  2. बहुत सुंदर आलेख, मेरी विवेचना इसके अलोक में यह है कि सभी विश्वविधालय ऑक्सफोर्ड नहीं हो सकता उसकी प्रकार दीनदयाल विद्यालय कोई दूसरा नहीं हो सकता है, इसका कारण केवल येक अवधारणा है , यह संस्थान को बनाने वालों ने अपने आप को तिरोहित कर अपना स्थान नीव के पत्थर में संजोए रखा है ना कि अपने आपको विद्यालय भवन के गुंबद पर स्थापित किया है, और हमलोगों के अंदर भी यही मूल्य निरूपित हो गए है, इसलिए वर्तमान समय में हम शास्वत है अन्यथा कितने धूम केतु आए और कहाँ तिरोहित हो गए पता नहीं चला.

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  3. बहुत सुंदर आलेख, मेरी विवेचना इसके अलोक में यह है कि सभी विश्वविधालय ऑक्सफोर्ड नहीं हो सकता उसकी प्रकार दीनदयाल विद्यालय कोई दूसरा नहीं हो सकता है, इसका कारण केवल येक अवधारणा है , यह संस्थान को बनाने वालों ने अपने आप को तिरोहित कर अपना स्थान नीव के पत्थर में संजोए रखा है ना कि अपने आपको विद्यालय भवन के गुंबद पर स्थापित किया है, और हमलोगों के अंदर भी यही मूल्य निरूपित हो गए है, इसलिए वर्तमान समय में हम शास्वत है अन्यथा कितने धूम केतु आए और कहाँ तिरोहित हो गए पता नहीं चला.

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    1. पूरी तरह सहमत हूँ आपसे। जिन्होंने वह स्थापित किया और सफलतापूर्वक चलाया, उनसे उससे अधिक की अपेक्षा संभवतः उचित नहीं है। पर एक स्थापित सफल प्रयोग को अनुकरण करने में हम एक व्यवस्था के रूप में पिछड़ गये।

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