छात्रावास में किसी को एक दूसरे के बारे में यह ज्ञात नहीं था कि कौन धनाड्य परिवार से है, कौन मध्यमवर्गीय है और कौन आर्थिक कठिनाईयों के बीच पढ़ने भेजा गया है। सबका एक जैसा रहन सहन था, विद्यालय का वेष, छात्रावास में सीमित कपड़े, धन रखने की मनाही, खाने का सामान रखने की मनाही, घड़ी आदि उपकरणों पर रोक और ऐसे ही एकरूपता के नियम। वैसे भी बचपन में ये बातें विचार का अंग नहीं होती हैं।
जिसके पास कुछ खाने का रहता था, वही छात्रावास में सबसे धनी समझा जाता था। यद्यपि सबके घर से सबके लिये आता था और हम सब मित्र उसे यथासंभव बाँटते भी थे, पर कईयों में अपने लिये बचा लेने की या कुछ आया भी है, यह न बताने की प्रवृत्ति होती थी। सामान रखने के लिये एक बक्सा होता था और अल्मारी में एक भाग। अल्मारी क्योंकि दिन में कई बार खुलती थी और कई बार साझा रहती थी, उसमें खाने का समान छिपाने की संभावना नगण्य थी। ऐसा धन केवल बक्से में ही रखा जा सकता था जो कि दीवार और तख्त के बीच में रखा रहता था। खाने के सामान में नैसर्गिक सुगन्ध सी रहती है, उसको बाहर न आने देने के लिये या तो एक और डब्बे में या थैलों में लपेट कर वह सामान रखा जाता था। बक्से में ताला लगा रहता था और चाभी स्वामी के पास या तकिया के नीचे।
जब एक कमरे में ९ मित्र रहते हों तो एकान्त कहाँ मिल पाता है। घर से पूरा आया हुआ एक दिन में खाया भी नहीं जा सकता है। कई बार तो अपने मित्रों के लिये भेजा गया हिस्सा भी स्वयं ही खा जाने के लिये लोभ बना रहता था, ऐसी स्थिति में तो कई सप्ताह वह खाने का सामान चलता था। कई बार कम अवसर मिलने के कारण या कई दिनों तक रस लेकर खाने के क्रम में खाने के सामान में थोड़ी महक आ जाती थी। ऐसी स्थिति में या तो रहस्य का उद्घाटन हो जाता था या मित्रों में स्वतः ही बाँटकर पुण्य और यश ले लिया जाता था। यदि खाने के सामान में विकार नहीं आया है तो वह कब तक चलाया जायेगा, यह तथ्य तो विधि को भी पता नहीं रहता था।
घर से आया हुआ सामान चुपके चुपके खाने के लिये बस तीन ही समय मिलते थे। पहला जिस समय कक्षायें चल रही हों। हमारा विद्यालय नीचे के तल में था और छात्रावास प्रथम तल में था। विद्यालय आने के बाद समाप्ति तक छात्रावास जाने की अनुमति नहीं थी और बहुधा कक्षप्रमुख का दायित्व रहता था कि ताला लगाया जाये। यदि कभी ताला नहीं लगाया गया या चाभी मिल गयी तो भी सीढियों के पास प्रधानाचार्यजी का कार्यालय या भोजनालय होने के कारण इस प्रयास में पकड़े जाने की संभावना बनी रहती थी। फिर भी कुछ योद्धा कक्ष में जाकर खा आते थे।
दूसरा समय मिलता था सुबह पाँच बजे के पहले, जब सब सो रहे होते थे। बिना मंजन के कुछ खाना उतना रुचिकर नहीं होता है और ब्रह्ममुहूर्त में इतनी भूख भी नहीं लगती है। इस पर भी कुछ छात्र “आज करे सो अब” के सिद्धान्त का पालन करते हुये इसी शुभकार्य से दिन का प्रारम्भ करते थे। तीसरा समय मिलता था, रात को दस बजे के बाद, जिस समय लाइट बन्द कर दी जाती थी। यह समय मनोविज्ञान की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त था क्योंकि रात के समय ही घर की सबसे अधिक याद आती थी और जब घर की याद आये तो दुख कम करने के लिये घर से आये पकवान खाने से अच्छा और क्या उपाय हो सकता है।
दूसरे और तीसरे समय में एक विशेष सावधानी की आवश्यकता होती थी। बिस्तर से उठना, चाभी से ताला खोलना, डब्बा या थैला खोलना, सामान निकालना, वहीं बैठे बैठे खाना, तब सब एक एक करके बन्द करना, तब कक्ष के बाहर जाकर पानी पीकर आना और पुनः चद्दर या रजाई ओढ़कर सो जाना। देखने में यह बड़ा स्पष्ट सा क्रम लगता है पर इसमें तीन परिस्थितियाँ इसे विश्व का जटिलतम कार्य बना देती हैं। पहला तो आपको यह निश्चिन्त होना होता है कि कक्ष में सभी मित्र सो चुके हैं। देखा जाये तो यह सर्वाधिक कठिन कार्य है, धैर्य की सीमा। चद्दर ओढ़े जगते रहना और प्रतीक्षा करना कि सब सो गये हैं, इसके लिये ध्यान से भी अधिक एकाग्रता चाहिये। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है, विशेषकर बगल वालों से कि वे आपको सोने का बहाना करते हुये पकड़ न लें। कई बार तो ऐसा हुआ ही होगा कि प्रतीक्षा में स्वयं ही निद्रा आ गयी होगी, शिकारी ही शिकार हो गया हो मानो।
दूसरी स्थिति है कि आपको उपरोक्त सारे कार्य अँधेरे में करने होते हैं। आपका मानसिक अभ्यास इस स्तर का होना चाहिये कि आप सबकी स्थिति की कल्पना आँख बन्द करके कर लें। आपके हाथ इतने अभ्यस्त होने चाहिये कि अँधेरे में ताले में चाभी डाल सकें, डब्बा खोल सकें। पैर बिना किसी से टकराये कक्ष के बाहर जा सके औऱ पानी पीकर बिना किसी को पता लगे वापस आ जाये। तीसरी स्थिति यह कि आपको यह सारा कार्य बिना किसी ध्वनि के करना है, कुशलता की पराकष्ठा है यह, अभ्यास का चरम है यह।
कई बार ऐसा हुआ ही होगा कि किसी पड़ोसी का पता चल गया होगा। ऐसी स्थिति में उससे समझौता करने की कला। बड़े बड़े देश यदि सीख लें तो यह विश्वशान्ति का हेतु बन सकता है। यदि समझौता हो गया तो आने वाली रात दोनों के द्वारा मिलकर प्रतीक्षा करने का क्रम। सर्वाधिक विनोदपूर्ण घटना अनुराग ने बतायी। एक मित्र ने इस तरह खाते हुये रात में देख लिया। समझौता करने के स्थान पर अगले दिन चाभी पार करके पूरा का पूरा खाने का सामान ही पार कर दिया। इस बात की केवल कल्पना ही की जा सकती है कि किसी का पूरा धन लुट गया हो और वह असहाय हो किसी से कह भी नहीं सकता, परिवाद भी नहीं कर सकता कि उसके साथ क्या हुआ? यदि करे तो कुटाई उसकी भी होती कि नियमों का उल्लंघन कैसे किया?
एक स्पष्टीकरण। घटनाओं से मेरा संबंध केवल दृष्टा का है, चुपके से खाने वाले और उसको उतने ही चुपके से पार करने वाले, दोनों ही मेरे मित्र हैं।
एक दृष्टा के रूप मे अद्भुत दृष्टांत को इतने समय बाद भी अमूमन एवं भावुक प्रस्तुतीकरण।
ReplyDeleteअभी यह भले ही विनोदपूर्ण लगती हो उस समय चेहरे पर भावनाओं के ज्वा्र उठते थे। देख के ही लग जाता है कि कुछ छिपाने का प्रयत्न हो रहा है।
Deleteवैसे घर के खाने के सामान का सही मूल्यांकन होस्टल और होटल मे रहने पर ही हो पाता है।
ReplyDeleteसच है।
Deleteसर अनुभव की परकाष्ठा है,यह सब।हमने जिया है इसे,किसी का घी ताले वाले अल्युमिनियम केन में है, केन को धूप में गर्म कर पिघला कर निकाल लेना।एक मुश्त धन पार कर लेने पर उसे सार्वजनिक करना ही होता था।यह भी हुआ है, कि सेठ एक तरफ बाकी लोग दूसरी तरफ हो गए।जैसे ही सेठ रात्रिक्रिया कर सोए बाकी लोग उठ कर धन शेष कर गये,कुछ ऐसे भी वीर थे जो बक्से में तो क्या जमीन के अंदर तक के निधि को सूंघ सकने के दावा करते।मजा तो तब आता जब सेठ के धन को अगली सुबह सेठ के सामने ही ठिकाने लगाए जाते उस वक्त उनका चेहरा देखने लायक होता था।
ReplyDeleteजिसका खाना होता था, उसे महक भी आती थी तो वह मन को समझा देता था कि कुछ नहीं हो रहा है। कोई ३-४ दिन छिप छिप कर खाये और किसी को पता न चले, बड़ा कठिन है यह।
Deleteप्रणाम भैया, भुक्तभोगी हूँ।। कक्ष क्रमांक 14 (कोने वाला) में रविवार को प्रायः समझौते होते रहते थे,आवागमन का क्रम भी चलता था ।।
ReplyDeleteबचपन की यादों को आपने शब्दो से इस तरह बयान किया है कि जैसे यह कल की ही बात है।।
लिखते समय मुझे भी लग रहा था कि जैसे सामने घटित हो रहा है। छोटा सा भाव है पर हृदय में गहरा बसा है।
Deleteछात्रावास के जीवन को जीवन्त कर दिया प्रवीण तुमने।
ReplyDeleteमुझे तो कभी कभी घर से आए हुए पकवानों का भोग भी लगाने का अवसर नहीं मिला।पिता जी को जब तक गेट तक छोड़ने जाता यहां सब सफाचट,,
महेन्द्र जैन
कोयंबटूर
9362093740
सच महेन्द्र, आपके यहाँ से आता भी बहुत था।
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