अभी कुछ दिन पहले एक व्याख्यान दे रहा था, वर्तमान परिदृश्य में खान पान में आये बदलाव के संबंध में। विषय बड़ा ही रोचक था और उससे भी रोचक उस पर परिचर्चा हुयी। किस प्रकार बाहर जाकर खाने की बाध्यता समाप्त होती जा रही है, खाद्य सीधे घर पहुँच रहा है, एप्प के माध्यम से। धीरे धीरे भीड़भाड़ वाले, मँहगे या अधिक किराये वाले स्थानों से खानपान व्यवसाय छोटे स्थानों पर और कालान्तर में ग्राहकों के और पास सरक जायेगा। मँहगे बर्तन और सहायकों का भी व्यय बचेगा, लाभ भी अधिक मिलेगा, उत्पाद की लागत कम आयेगी, प्रतियोगिता बढ़ेगी। एप्प बनाने वालों के लिये खानपान संबंधी प्राथमिकताओं और रुचियों का जो सूचना भण्डार आयेगा वह भविष्य में किसी भी व्यवसाय को स्थापित करने और स्थापित व्यवसायों को और भी प्रभावी बनाने में अत्यन्त सहायक होगा।
खानपान व्यवसाय व्यक्ति पर केन्द्रित होता जा रहा है, व्यक्ति की रूचियों के अनुसार उत्पादन में सक्षम। रूचियाँ केवल स्वाद पर ही केन्द्रित नहीं हैं वरन स्वास्थ्य पर भी विशेष ध्यान रखा जा रहा है। जागरूक उपभोक्ता बिना उर्वरक या बिना कीटनाशक के खाद्यान्नों को वरीयता दे रहे हैं, भले ही उसके लिये व्यय अधिक करना पड़ता हो। पहली बार इस तरह की सब्जियाँ बंगलुरु में खायीं थी जब एक शुभचिन्तक मना करने के बाद भी एक टोकरी दे गये थे। स्वाद और स्वास्थ्य, दोनों ही दृष्टि से उत्तम।
आयुर्वेद भी हर व्यक्ति को उसकी प्रकृति के अनुसार ही भोजन करने को कहता है। यद्यपि भारतीय रसोई में स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त मसाले आयुर्वेदिक औषधियाँ हैं, वर्तमान पीढ़ी उसे अपनी पाककला में प्रयुक्त करना भूल चुकी है। देखा जाये तो परिवार के हर सदस्य का स्वास्थ्य एक विशेष प्रकार का भोजन करने से ही संवर्धित होगा। सबके लिये एक सा भोजन तो तभी हो जब सबकी प्रकृति एक सी हो और भोजन उस प्रकृति के अनुसार ही बना हो। मैं एक ऐसा भविष्य देखता हूँ जिसमें आयुर्वेद की वृहद स्वीकार्यता उद्यमियों को एक ऐसा तन्त्र बनाने के लिये प्रेरित करेगी जिसमें सबको एप्प के माध्यम से उसके स्वाद, स्वास्थ्य और प्रकृति के अनुसार भोजन पहुँचाया जा सके। साथ ही साथ परिवार भी इस प्रकार की रसोई चलायेंगे जिसमें इन सबका ध्यान रखा जा सके।
इस परिप्रेक्ष्य में तब सामूहिक भोजन व्यवस्था का स्वरूप कैसा हो? जहाँ एक साथ सैकड़ों का भोजन बन रहा हो उसमें किस प्रकार के व्यंजन हों, किस प्रकार के अवयव हों, आधारभूत खाद्य हों या विशेष का संमिश्रण हो, पहले से पका हो या तात्कालिक पकाया जाये?
रेलवे में ड्राइवर, गार्ड, टिकट स्टाफ जब भी अपनी ट्रेन लेकर दूसरे स्टेशन पर जाते हैं तो वे जहाँ विश्राम करने के लिये रुकते हैं उसे रनिंग रूम कहा जाता है। वहाँ पर भोजन की व्यवस्था रहती है। पहले के समय में सभी अपना राशन, मसाले, तेल आदि लेकर जाते थे और वहाँ के रसोईये को दे देते थे। साथ ही निर्देशित भी करते थे कि कैसा भोजन बनाना है, किन विशेष बातों का ध्यान रखना है। कुछ कर्मचारी तो अपने सामने बनवाते थे। धीरे धीरे ट्रेनें बढ़ीं, अधिक रसोईये लगने लगे, क्रम आने में समय लगने लगा। जो कर्मचारी घर से राशन नहीं ला पाते थे, रनिंग रूम आकर बाहर के हाट में लेने जाते थे। कुछ तरकारी आदि ताजा लेने जाते थे। कुछ मिलाकर बहुत चहल पहल रहती थी। इन कार्यक्रमों में जो विश्राम वाला पक्ष होता था और जिसके ऊपर संरक्षा निर्भर करती थी, वह उपेक्षित रह जाता था। विश्लेषण किये गये और अब एक ही तरह का खाना बनाकर रखा जाता है। साथ में पुरानी व्यवस्था भी चलने दी गयी। लगभग ८५ प्रतिशत से अधिक कर्मचारी नयी व्यवस्था में रम गये हैं।
निरीक्षणों के समय यह चर्चा बहुत बार आयी है कि किस तरह का भोजन हो, क्या हो उस भोजन में, सादा रखें या गरिष्ठ रखें? जो भोजन बनायें या परोसें, उनको किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाये। रेलवे में यह पक्ष सीधा सीधा संरक्षा से जुड़ा माना जाता है। किसी को भोजन करके विश्राम करना है, किसी को भोजन करके ट्रेन चलानी है। वैसे तो कर्मचारी इस बात का स्वयं ही विशेष ध्यान रखते हैं पर भोजन भरपेट नहीं किया जा सकता है क्योंकि उससे झपकी आने की संभावना है। भोजन अधिक मसाले वाला या तेल वाला भी नहीं दिया जा सकता है क्योंकि वह भी मानवीय दक्षता को प्रभावित करता है।
रेलवे के रनिंग कर्मचारियों को तो वापस आने पर परिवार के साथ बैठकर घर का भोजन मिल जाता है, छात्रावास में तो उसी भोजनालय का भोजन बार बार खाना होता है। अपने विद्यालय के छात्रावास का, आईआईटी का, रेलवे के प्रशिक्षण संस्थानों का, रेलवे के रनिंग रूमों का, रेलवे कैन्टीनों का, टिफिन सेवा का, नियमित होटलों का, सबका भोजन कभी न कभी किया है। कोई भोजन ऐसा लगा ही नहीं कि जिसमें मन रम जाये, कुछ भोजन खाये जा सके कुछ निभाये जा सके, कुछ न खाये जा सके और न निभाये जा सके। जब कभी भी उनको स्वादिष्ट बनाने के प्रयास किये गये, वे जीभ में और शरीर में और भी कड़वाहट घोल गये।
हाँ, भोजन सर्वाधिक सुग्राह्य तब लगा जब प्रशिक्षण के समय सायं को तैराकी करके या बैडमिण्टन खेलकर या दौड़कर शरीर को इतना थका दिया कि भोजन का स्वाद जानने की सुध ही नहीं रही। जब क्षुधा जागती है, सब अच्छा लगने लगता है। छात्रावास में रहकर पढ़ने वाले तो स्वयं को खेल में थका भी नहीं सकते हैं, यदि ऐसा करेंगे तो पढ़ेंगे कब। मोबाइल पीढ़ी के लिये तो यही छात्रावास और भी कठिन समय देंगे, बाहर जाकर खेलने की अभिरुचि जो सुप्तप्राय है।
लंगर और अक्षयपात्र का प्रसाद कई बार प्राप्त किया है। सादा आहार भी कितना अच्छा लगता है, खिचड़ी भी कितना तृप्ति दे जाती है, पर हर दिन ईश्वर की कृपा कहाँ मिलती है? एप्प से आने वाला भोजन स्वाद बदलने के लिये तो अच्छा है पर नियमित लेना न पेट के लिये अच्छा है और न जेब के लिये। ले दे कर घर के खाने पर पूर्ण निर्भरता है और यह बात श्रीमतीजी को भलीभाँति ज्ञात भी है।
ले दे कर तुम कहना क्या चाह रहे हो स्पष्ट करो कि श्रीमती जी को क्या भलीभांति ज्ञात है।
ReplyDeleteवैसे एक कहावत है जैसा अन्न वैसा मन
जैन धर्म में शुद्ध सात्विक तथा शाकाहारी भोजन को बहुत महत्व दिया गया है । भोजन बनाते समय आपके क्या भाव हैं यह भी भोजन के गुणधर्म में एक अहम भूमिका निभाते हैं।
उपवास तथा व्रत का भी बड़ा महत्व है अपनी प्राचीन संस्कृति में और सूर्यास्त पूर्व भोजन करने की परम्परा में भी आश्चर्यजनक वैज्ञानिक तथ्य निहित हैं।
महेन्द्र जैन
कोयंबटूर
9362093740
यही कि हम कहीं बाहर नहीं खा सकते। निर्भरता जब इस प्रकार से व्यक्त हो जाये तो बहुत सकुचा कर रहना पड़ता है।सच कहा है, सूर्यास्त के पहले खाना बहुत ही वैज्ञानिक है।
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