अभी कुछ दिन पहले प्रातः टहलते समय ठंड लग गयी। शीत के प्रभाव से उदर विकार हुआ और एक दिन घर पर ही विश्राम करना पड़ा, अगले दिन सब सामान्य हो गया। कुछ मित्रों के फोन आये थे जिनका उत्तर नहीं दे पाया था। एक मित्र अशोक को वापस फोन कर अन्य बातों के साथ अस्वस्थता का कारण बताया तो बोले कि प्रवीण भाई आप बहुत कोमल हो, तनिक में ठंड लग जाती है और तनिक में पेट अस्त व्यस्त हो जाता है। अशोक पुणे में रहते हैं, स्वयं अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं और वातावरण को भी जीवन्त रखते हैं। यद्यपि मित्रों का अधिकार होता है आपके हित अहित में हस्तक्षेप करने का पर इस ‘कोमल’ वाले निर्णय पर मन विद्रोह कर बैठा।
ठंड के क्षेत्र में पुणे और लखनऊ की कोई तुलना ही नहीं है। जब हम जैकेट और कनटोपा पहन बतिया रहे होते हैं तो अशोक टीशर्ट में पंखा चलाकर बैठे होते हैं। ऐसी कँपकपाती सुबह में तो कोई “कठोर” एक इंच भी शरीर खुला छोड़ देगा तो ठंड खा जायेगा। अब फरवरी में ठंड उतरने के समय इतनी ठंड बढ़ जाये तो भूल हो जाना स्वाभाविक ही है। पर ठंड का पेट पर इतना त्वरित प्रभाव पड़ जाये तब तो पेट संवेदनशील कहा जायेगा। वार्ता में केवल इस तथ्य को अपने निर्णय का आधार बनाये अशोक से जब एक प्रश्न पूछा तो संभवतः उनका दृष्टिकोण कुछ कोमल हुआ।
प्रश्न सरल था कि आप कितने वर्ष घर का भोजन नहीं किये हो? अशोक कानपुर में नियमित घर से विद्यालय आते थे और जब कानपुर से पुणे जाकर कार्य प्रारम्भ किया तो एक वर्ष में उनका विवाह हो गया। उस एक वर्ष में भी कई सप्ताहान्त उन्होने अपने संबंधियों के घर भोजन किया था। अब जिन्हें जीवन भर घर के भोजन का सुख मिला हो उनका उदर स्थिर होना स्वाभाविक ही है। १७ वर्ष बाहर का भोजन करते रहने से मेरे उदर में कई दुर्बलतायें उत्पन्न हो गयीं। बाहर का खा कर स्वाद तो भूला ही, उदर की जठराग्नि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अब शरीर पर कोई भी विकार आये, पहला प्रभाव उदर पर पड़ता है।
घर का भोजन स्वादिष्ट होता है, पौष्टिक होता है और शरीर व मन को स्फूर्त रखता है। कितना भी ध्यान रखा जाये, भोजनालय के यह तीनों पक्ष पंगु होते हैं। सब्जी व अन्न खरीदने में धन बचाने की प्रवृत्ति, भोजन बनाते समय स्वच्छता का आग्रह न होना और भोजन बनाने वालों की मनःस्थिति, इन तीनों कारणों से भोजनालय के भोजन की गुणवत्ता कभी उत्कृष्ट नहीं हो पाती। जिस भावना में भोजन बनता है वह भावना अपना प्रभाव डालती है। जिस समर्पण से भोजन बनाने की पूरी प्रक्रिया की जाती है, उसी स्तर का स्वाद, पौष्टिकता और स्फूर्ति शरीर में आती है।
मेरे विद्यालय के छात्रावास में स्थितियाँ इतनी निराशापूर्ण नहीं थीं। इन क्षेत्रों पर सबका विशेष ध्यान रहता था। जो भी भोजनालय प्रमुख नियुक्त होते थे, उनका यह प्रयास रहता था कि भोजन उत्तम दिया जाये। स्वयं सुबह सब्जी लेने जाना, अन्नादि को सुरक्षित व स्वच्छ वातावरण में रखना, पकाने के स्थान की सफाई करवाना, भोजन बनते समय स्वयं उपस्थित रहना और अपने सामने ही वितरण कराना। इन सबमें किसी ढील की संभावना नहीं थी क्योंकि प्रधानाचार्यजी भी वही भोजन करते थे। इन सब कार्यों में स्वयं लगे रहने के बाद भी भोजनालय के भोजन में वह बात नहीं आ पाती थी जो घर के खाने में आती है।
आईआईटी में भोजन का स्तर विद्यालय के स्तर से कहीं कम था। एक छात्रावास में ३०० से भी अधिक का भोजन बनाने में न स्वाद आता था और न ही पौष्टिकता। एक कैन्टीन होती थी जो कि बहुत चलती थी, माह के प्रारम्भ में नगद से और माह के अन्त में उधार से। उन्ही दोनों स्थानों पर भोजन बदल बदल कर अच्छा खाने का भ्रम पालते रहते थे हम सब।
इस बीच में दो कालखण्ड बड़े कष्टकर बीते जब कोई भोजनालय भी नहीं था। पहला १२वीं के बाद एक वर्ष आईआईटी की तैयारी घर से बाहर रहकर की थी। अनियमित भोजन, कई बार होटल में, कई बार स्वयं बनाने का प्रयत्न। उस समय तो अपने छात्रावास के भोजनालय की स्मृतियाँ सुखद लगने लगी थीं। दूसरा रहा आईआईटी के बाद जब बंगलुरु में नौकरी करने गये। उसका वृत्तान्त फिर कभी पर वहाँ पर भोजन को लेकर जो अनुभव हुये उसकी तुलना में विगत सब कुछ अच्छा लगने लगा।
भोजन के संबंध में १७ वर्ष का कठिन छात्रावासीय अनुभव डीएनए का अभिन्न अंग बन गया है। छात्रावासियों के लिये तो भोजन के संबंध में न तो कठोर हृदय होता है और न ही कठोर उदर।
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