छात्रावास की दिनचर्या, ७ वर्ष तक एक सी ही रही, कोई विशेष बदलाव नहीं, बस ऋतुओं के अनुसार थोड़ा आगे पीछे। जैसे कोई पाठ बार बार पढ़ने से याद हो जाता है उसी प्रकार बार बार लगे रहने से शरीर और मन में पूरी तरह से रच बस गयी थी यह दिनचर्या। एक कार्य समाप्त होते ही दूसरा प्रारम्भ, साँस लेने का भी विराम नहीं, कोई समय रिक्त नहीं, थका देने वाली दिनचर्या। व्यस्तता इसलिये डाली जाती थी कि न समय रहे और न ऊर्जा, अन्य कार्यों के लिये, अन्यथा कार्यों में न उन्मुख होने देने वाली दिनचर्या।
प्रातः ५ बजे उठाया जाना, ५३० बजे पर विशालकक्ष पहुँचना, वहाँ पर उपस्थिति और थोड़ा प्रवचन, स्नानादि कर ७ बजे तक पुनः विशालकक्ष, पूजा और योग, अंकुरित चने या दलिया का स्वल्पाहार, ७३० बजे से स्वाध्याय, ९३० बजे अल्पाहार, विद्यालय, दोपहर में ३५ मिनट का भोजनावकाश, सायं ५ बजे अल्पाहार, ५३० बजे से खेलकूद, ७ बजे पूजा और प्रवचन, सायं ७३० बजे से स्वाध्याय, ९३० बजे रात्रि का भोजन, १० बजे शयन। क्रियाओं और गतिविधियों से ठूँस कर भरा हुआ दिन। एक दिन में ४ घंटे का स्वाध्याय, १.३० घंटे का खेलकूद, ७ घंटे की नींद, ५ बार खानपान, ३ बार छात्रावास में और एक बार विद्यालय में सदाचार वेला। क्या नहीं था इस दिनचर्या में, विकास के सारे उपादान उपस्थित थे इस दिनचर्या में। यदि फिर भी कोई महामानव बन कर न निकल पाये तो सारा दोष उसी का है।
मैं तो स्वयं अभिभूत हूँ, कभी दिनचर्या को तो कभी स्वयं को देखता हूँ। बड़ा गर्व हो रहा है कि कुछ कर पाये या न कर पाये पर लगे तो रहे। एक प्रमाणपत्र तो इस बात का मिलना चाहिये कि अमुक छात्रावासी ने उपरिलिखित दिनचर्या निभाने का महती प्रयत्न ७ वर्ष तक किया है और हम इनके उज्जवल भविष्य की संभावना की कामना करते हैं। आईएसओ ९००० की तरह का प्रमाणपत्र, प्रक्रिया की गुणवत्ता को वर्णित करता हुआ।
आगामी जीवन में इसी का प्रभाव रहा होगा कि कोई भी परीक्षा हो, कोई भी नया कार्य हो, कोई भी बड़ा कार्य हो, एक बड़ी ठँसी ठँसी सी समयसारिणी तुरन्त ही बन जाती थी। २०-२० मिनट के अन्तर पर एक एक अध्याय समाप्त करने की विस्तृत रूपरेखा। आधी सफलता तो समयसारिणी बनाते ही मिल जाती थी और कार्य समाप्त होने पर शेष पर विशेष ध्यान जाता नहीं था। किसी भी महान कार्य के लिये गतिविधियों का खाँचा बनाना हो तो छात्रावासियों का कोई जोड़ नहीं है। अज्ञेय के शब्दों में कहा जाये तो “मैंने आहुति बन कर देखा, यह प्रेमयज्ञ की ज्वाला है” बस प्रेमयज्ञ के स्थान पर कर्मयज्ञ या दिनचर्या डाला जा सकता है।
लक्ष्य इतने ऊँचे कर लेने चाहिये कि उसके न होने पर हीन भावना न आये। जब पहले से ज्ञात है कि मार्ग कठिन है तो लक्ष्य तक न पहुँच पाने का दुख नहीं होता है, जब दुख नहीं तो हीन भावना भी नहीं। सभ्य समाज ने सफलता के मानक तो बनाये हैं, असफलता के नहीं। आप कितने असफल हुये, इसके विस्तार में कोई कहाँ जाता है? असफल हो गये, क्या विवाद और विषाद मिटाने के लिये यह तथ्य अपने आप में पर्याप्त नहीं है? और जब असफलता के मानक नहीं तो प्रतियोगिता कैसी? तुलना सांसारिक दुखों का मूल है, असफलों के बीच कैसी तुलना?
जीवन का आनन्द तभी आता है जब मार्ग कठिन हो। सरल प्रश्नपत्र में अंको का अंतर अधिक नहीं रहता है, मेधावी और अकर्मठ छात्र के बीच का अन्तर अधिक नहीं हो पाता है। कठिन प्रश्नपत्र में अंकों का अन्तर अधिक होता है, मेधावी स्पष्ट रूप से आगे खड़ा दिखायी पड़ता है। अकर्मठ छात्र अनुत्तीर्ण भी हो जाता है। पर जब प्रश्नपत्र कठिनतम हो जाये तो सभी अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
छात्रावास की कठिनतम दिनचर्या में हम सभी अनुत्तीर्ण थे, कोई एक पक्ष में तो कोई दूसरे पक्ष में। उदाहरणार्थ देखें तो कोई सुबह उठने के बाद झपकी ले लेता था तो कोई बीच प्रवचन में, कोई स्वाध्याय के समय मेज के ऊपर सो लेता था तो कोई खेल के समय। हमारे लिये मित्रचर्या दिनचर्या से अधिक उपयोगी और प्यारी थी। अन्यथा प्रयास करके और दिनचर्या का शब्दशः पालन करके हम अपने मित्रों को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते थे, उनके अन्दर हीन भावना नहीं उत्पन्न होने देना चाहते थे। आप आदर्शों के मानक स्थापित करते और पालन के उपदेश आपके मित्रों को मिलते। ऐसे आदर्श भला किस काम के जो मित्रों को कष्ट दे।
दिनचर्या पालन के लिये कोई पुरस्कार नहीं था, आपका नाम किसी स्वर्णाक्षरों में नहीं लिखा जाना था। अनुपालन न होने की दशा में दण्ड, डाँट, सार्वजनिक उपहास, प्रवचन ही प्राप्त होने थे। ये उपहार हम सबको पर्याप्त मात्रा में मिल चुके थे और हम सब समत्व को प्राप्त हो चुके थे। सबने दिनचर्या की दार्शनिकता को समझ कर यथायोग्य तत्व ग्रहण कर लिया था। दिनचर्या के साथ साथ हमारी मित्रचर्या और मनचर्या पूरे ७ वर्ष प्रसन्नता से रहीं।