शरीर व मन से भिन्न आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये शंकराचार्य ने चार अवस्थाओं का आश्रय लिया था। जागृत, स्वप्न, सुसुप्त और तुरीय। तुरीय का अर्थ ही है चौथी। इन चारों अवस्थाओं में जो एक अवस्थित है, वह आत्मा है। न्यायप्रवर्तक गौतम ने कर्मफल की भिन्नता को पूर्वजन्म और आगतजन्म का आधार बनाया और जो इन तीनों जन्मों का संपर्क सूत्र रहे, वह आत्मा है। बड़े बड़े ऋषियों, मुनियों और साधकों को इन सहजसिद्ध तथ्यों को आत्मगत करने में दशकों लग जाते हैं। हमारे विद्यालय के सहपाठियों और विशेषकर छात्रावासियों को यह तत्वज्ञान अत्यन्त बाल्यावस्था में ही हो गया था।
अनुशासन तो स्वतः ही आता है, स्वानुशासन। लादे गये नियमों को लुढ़काना स्वातन्त्र्य का उद्घोष है, अपनी सामर्थ्य का सहज प्रकटीकरण और मानसिकता का उन्मुक्त विकास। यदि नियम न होते तो अवहेलनाओं की भी उतनी आवश्यकता न होती। अनुशासन इतना भी शिथिल न हो कि स्वच्छन्दता निर्बन्ध हो जाये और इतना भी अधिक न हो कि सृजनता घुट जाये। युवा अपना और समाज का भार उठाने में सक्षम बना रहे। युवा को अपने ऊपर और अपनी सामर्थ्य पर विश्वास बना रहे।
नियम हर प्रकार के थे, प्रातः ५ बजे उठने से लेकर १० बजे तक सो जाने के बीच, लगभग हर क्षेत्र में। वैसे आज भी स्वतःस्फूर्त सूबह ५ बजे उठकर रात्रि १० बजे सो जाता हूँ, पर कोई नियम बनाकर यह करवाये, वह बालमन को खटकता था, छात्रावास में लगभग सभी को। उठाये जाने के बाद भी एक नींद मार लेना आत्मिक सुख दे जाता था। छात्रावास से बाहर जाने के लिये लिखित अनुमति लेनी होती थी, टीवी देखने के लिये प्रार्थनापत्र देना होता था, वह भी कार्यक्रम के नाम लिखकर। पढ़ाई की बेला, भोजन का समय, सायं खेल का समय, विशालकक्ष में दिन में दो बार प्रवचन, सब नियमबद्ध। अब लगता है कि वह सब बहुत कुछ ठीक ही तो था, पर उस समय एक उत्कण्ठा सी रहती थी, बिना बताये दीवार फाँदकर भाग जाने की, बाहर कुछ खाकर आने की, मित्रों से बैठकर गपियाने की, भोजनालय के भंडार में रखे फलों और व्यञ्जनों को निकाल कर खाने की, अधिक खेलने की, टीवी पर फिल्म देखने की, क्रिकेट मैच देखने की।
हम बालमनों में एक अलग ही विश्व आकार लेता था। बद्ध वातावरण का ही प्रभाव था कि इस प्रकार की विशेष इच्छायें आकार पाती थीं। १२वीं के बाद जब स्वतन्त्रता मिली तो सब कुछ किया पर शीघ्र ही उकता गये। बन्धन, नियम, अनुशासन ने छात्रावास के बाहर के विश्व के प्रति विशेष आकर्षण भर दिया था, महिमामण्डित सा कर दिया था। इस पर एक सार्थक चर्चा हो सकती है कि कितना अनुशासन पर्याप्त है और कितना नकारात्मक हो जाता है। हो सकता था कि तनिक छूट अन्यथा आकर्षण को पनपने नहीं देती और मन और अधिक एकाग्र होकर पढ़ाई में लगता। बन्धनों में हम सब कितना पढ़ पाते होंगे, यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि पुस्तकें तो खुली रहती थीं पर मन अपने प्रदेशों में विचरण पर निकल जाता था, उन अनजाने प्रदेशों में जिनके प्रति आपका अनदेखा आकर्षण है।नियम या नियमों को एकल या सामूहिक तोड़ने की प्रक्रिया को काण्ड के नाम से परिभाषित किया जा सकता है। कई काण्ड तो ऐसे हुये कि हो गये और किसी को पता तक नहीं चला। कई काण्ड प्रकट होकर प्रसिद्धि पा गये। नियमों को तोड़ना इतना सरल नहीं था कि बस चाह लेने से टूट जाते। दो छात्रावास अधीक्षक, भोजनालय प्रमुख और प्रधानाचार्य परिसर में ही रहते थे। उनके साथ थे उन्हें गतिविधियों की सूचना प्रेषित कर देने वाले सहायकों का समूह। किसी काण्ड को कार्यरूप देने के पहले सबकी उपस्थिति और गतिविधि का पूरा ज्ञान होना आवश्यक होता था। क्या करना है, कैसे करना है, कब करना है, तब इस पर ही निर्धारण होता था। क्यों करना है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि करना है तो करना है।
काण्ड करने वाले कई समूह थे, लगभग हर कक्षा का एक। प्रारम्भिक कक्षाओं में यह प्रवृ्त्ति कम और ऊपर की कक्षाओं में अधिक पायी जाती थी। प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्रावासी सुनकर और देखकर आने वाले वर्षों के लिये अपने को तैयार करते थे। देखा जाये तो सारा दोष बन्धनों को भी देना उचित नहीं था, एक इतिहास और परम्परा विरासत में मिली थी जो कि निभानी थी और आने वाली पीढियों को सौपनी थी।
Very nicely penned down...Great PP
ReplyDeleteआभार रंजन। तुम्हारा अध्याय भी लिखा जा रहा है। पूरे ७ साल आगे या पीछे खड़े रहे हो।
Deleteअग्रेसर के रूप में रंजन मेरे आगे बैठते थे और उनकी एक कमज़ोरी का मुझे पता चला कि उनको गुदगुदी बहुत होती है तो मैं गाहे बगाहे उनको गुदगुदाता रहता था।
Deleteसंभवतः वह तो अभी भी होगी।
Deleteवाह
ReplyDeleteछात्रावास की याद दिला दी
वाह
ReplyDeleteछात्रावास की याद दिला दी
वाह
ReplyDeleteछात्रावास की याद दिला दी
बहुत यादें है, उमड़ रही हैं। सोचा लिख लूँ, कहीं बिसर न जायें।
Deleteप्रवीण नमस्कार
ReplyDeleteछात्रावास में प्रवेश के साथ ही मुझे भोजनालय में बने भोजन में कुछ विशेष रूचि न होने के कारण आधे पेट भोजन पर कुछ दिनों गुजारा करना पड़ा , किन्तु कुछ दिनों पश्चात ही भोजन में रस आने लगा और भर पेट भोजन करने लगा।
इस तरह का भोजन में रस पैदा करने में अहम भूमिका निभाने वाले अपने ही बैच 1988 के भाई प्रदीप मेहता को मैं कभी नहीं भूल सकता।
प्रदीप को भोजनालय प्रमुख बनाया गया तथा गजाधर सिंह जी को भोजनालय इंचार्ज और दोनों ने भोजन के मेन्यू में आमूल चूल परिवर्तन कर हम लोगों को अच्छे भोजन से रुबरु करवाया।
महेन्द्र जैन
कोयंबटूर
9362093740
नन्दजी, भावेजी, गजोधरजी, सबका याद है। प्रदीप ने सच में आमूलचूल परिवर्तन किया था।
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