दो मित्रों का जन्मदिन था, संदीप और प्रदीप का, दोनों ही छात्रावास के घनिष्ठ और अभिन्न। हम सबके संबंधों के ध्रुव, मनीष कृष्ण सदा ही प्रयासरत रहते हैं कि हम ऐसे अवसरों पर आपस में बात अवश्य करें। हम बहुधा व्यक्तिगत शुभकामनायें देकर किनारा कर लेते हैं, बहुत हुआ तो किसी सार्वजनिक समूह पर एक शुभकामना संदेश डाल देते हैं, फोन पर बात करना तो अतिविशेष हो जाता है। इन सबसे ऊपर उठकर सबको इस बात के लिये मना लेना कि किसी एक नियत समय पर सबको अपने सारे कार्य छोड़कर स्क्रीन के सामने बैठना है।
बस इतना ही पर्याप्त था। एक दूसरे के सामने आते ही संवाद प्रवाहमयी हो गया, पूर्व की स्मृतियाँ उमड़ने लगी, न केवल उमड़ीं वरन सबको डुबा ले गयीं। अपने अपने घरों में हम इतने ठहाके लगा कर हँस रहे थे कि परिवार के अन्य सदस्य आकर और झाँककर स्क्रीन में ताक रहे थे कि कौन सा चमत्कार हो गया। सामान्यतः अति गम्भीर रहने वाला प्रौढ़ मानुष कैसे अपने बचपन में कूद गया। डेढ़ घंटे कब बीते, पता ही नहीं चला। श्रीमतीजी ने कहा कि महीनों से आपको इतना प्रसन्न कभी नहीं देखा है।
इन सबके बीच मनीष बस यह सब होते देख रहे थे और कुछ ऐसी बातें छेड़ दे रहे थे जिनकी स्मृतियाँ हम सबको गुदगुदा जातीं। यद्यपि मनीष छात्रावास के नहीं थे पर विद्यालय के पास रहने के कारण उनके संज्ञान में सब गतिविधियाँ रहीं। उद्दण्डता की अनन्त कथाओं में सहभागी और सहयोगी न होते हुये भी उससे उपजे आनन्द के सहभोगी बने हुये थे। सृष्टा के सृष्टिसुख के ऊपर उभरता दृष्टा का दृष्टिसुख।
गूगल की बैण्डविथ उतनी नहीं थी जितना हम उसमें ठेलने को आतुर थे। बीच बीच में वार्तालाप अस्पष्ट हो जाता। पूरा प्रकरण न सुन पाने पर भी रस पूरे से अधिक आ रहा था। एक वाक्य ही कूटबद्ध सा सारी घटना को आँखों में लहरा जाता। महेन्द्र के घर से मिठाईयों का आना और जितने समय में माता पिता को बाहर छोड़कर लौटना हो, मिठाईयाँ का पाचन प्रक्रिया का अंग हो जाना। देर रात पिक्चर देखने के प्रयास मात्र में पकड़े जाना। मेस से कुछ नहीं तो प्याज और आलू निकाल कर भूनना। ऐसी ही न जाने कितनी घटनायें एक के बाद याद आती गयीं। गम्भीर काण्ड अपनी आंशिक उपस्थिति से याद किये गये। अत्यन्त गम्भीर महाकाण्ड कूट भाषा में संप्रेषित हुये, बस इसलिये कि कहीं वे स्मृतियों से बिसर न जायें। एक भय हम सबको यह भी था कि कहीं उन काण्डों के पूर्ण उद्घाटन से अभिभावक और बच्चे अनुशासन के एक ही स्तर पर न आ जायें।
संदीप छात्रावास में अमिताभ की फिल्मों के ध्वजावाहक थे। कुछ दिनों पूर्व पुस्तक समीक्षा के समय प्रशिक्षुओं से एक प्रश्न मैंने पूछा था कि उपन्यास या उपन्यास पर बनी फिल्मों में सामान्यतः किसमें अधिक आनन्द आता है। अभिव्यक्ति की विमाओं के आधार पर उत्तर फिल्म होना चाहिये किन्तु मेरे सहित बहुत से प्रशिक्षुओं को मुख्यतः उपन्यास में अधिक आनन्द आता है। पर इन दोनों से भी अधिक आनन्द तब आता था जब संदीप “कालिया” जैसी किसी फिल्म की स्टोरी हम सबको सुनाया करते थे। पार्श्व संगीत, अभिनय, फाइटिंग आदि सभी कलात्मकता संदीप स्वयं ही करने में सक्षम हुआ करते थे। स्पष्टता महाभारत का वृत्तान्त बताते संजय जैसी, एकाग्रता पक्षी की आँख देखते अर्जुन जैसी और अभिनय आदि में स्वयं अमिताभ उतर आते थे उनकी वाणी और अंगों में।
हम सबमें एक अद्भुत सा उत्साह रहता था हर छुट्टी के बाद कि कम से कम २-३ अमिताभ की फिल्में निपट ही जायेंगी। हम फिल्मों के भूखों के लिये अपराह्न के वे कालखण्ड रसामृत जैसा आनन्द देते थे। उसके बाद वह सारी फिल्में देखीं पर अभी तक वह आनन्द नहीं आया जो संदीप के अथक, प्रगाढ़ और तन्मय वृत्तान्तों में आता था।
किसी भी प्रमुख काण्ड में पंकज उत्प्रेरक, प्रदीप पार्श्व निर्देशक और हम सब कार्यकर्ता का दायित्व निभाते थे। यदि फँस जायें तो दण्ड पाने के लिये निरीह मित्रों का एक पूरा समूह रहता था। इस बात के प्रमाण कई ऐसे काण्ड हैं जिसमें ३३ साल बीतने के बाद भी सूत्रधार का स्पष्टता से पता नहीं चला।
शेष अगली बार….
अदभुत झलकियां बचपन की यादों को तरोताजा करने वाली
ReplyDeleteप्रवीण तुस्सी ग्रेट हो
Very nice
ReplyDeleteअद्भुत🙏
ReplyDeleteअद्भुत यादों की अभिव्यक्ति 👏👏
ReplyDeleteBahut sundar vratant
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