निर्णय प्रक्रिया में विकल्पों का चयन और उनका विश्लेषण करने के लिये समय और श्रम की आवश्यकता होती है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप कितने विकल्पों पर विचार करना चाहते हैं तथा प्रत्येक विकल्प पर कितनी गहराई तक जाना चाहते हैं। अभी तो कार्य प्रारम्भ ही नहीं हुआ है, किस विकल्प के क्रियान्वयन में कितना समय, श्रम, धन, सम्पर्क, जन आदि लगेगा, कितनी हानि या लाभ होगा, इसके विस्तारपूर्ण विश्लेषण हेतु भी समय और श्रम चाहिये।
जब पर्याप्त समय नहीं हो तब यथासंभव श्रम करके तथा संबंधित तथ्य जुटा कर उपलब्ध सूचना के आधार पर निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है। तब दो प्रकार से निर्णय को और सुदृढ़ किया जा सकता है या उसकी गुणवत्ता परखी जा सकती है। पहला किसी आप्त के अनुभव का आधार और दूसरा किसी स्वीकार्य सिद्धान्त का आधार। जिन आप्तजनों या सिद्धान्तों को आप मानते हैं, जिनका अनुपालन आपका अभ्यास बन चुका है, उनको हर निर्णय प्रक्रिया में प्रयुक्त करना आपको सहज ही स्वीकार्य होता है। अनुभवी आप्तजन यदि उन परिस्थितियों से परिचित हैं तो वह आपको विश्लेषण में सहयोग कर सकते हैं। अन्ततः निर्णय और उससे उत्पन्न निष्कर्षों का उत्तरदायित्व आपका ही है। पर्याप्त समय होने पर ये ही सहायक तत्व निर्णय प्रक्रिया को भिन्न प्रकार से देखने का अवसर देते हैं पर कम समय होने पर ये दोनों और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, विश्लेषण के आधार हो जाते हैं।
जब समय पर्याप्त हो तो सब विकल्पों का श्रमपूर्वक विश्लेषण होना चाहिये। प्रक्रिया में अन्त तक न जाना एक बड़ा कारण है गुणवत्ताहीन निर्णयों का। यह तीन प्रकार से होता है, पहला विश्लेषण का श्रम न करने की प्रवृत्ति, दूसरा अतिआत्मविश्वास और तीसरा निर्णय लेकर फल पा जाने की शीघ्रता। यही सब गड्डमड्ड कर देती है। श्रम न करने की प्रवृत्ति हमें या तो सभी संभव विकल्पों को एकत्र करने की प्रेरणा नहीं देती है या किसी एक विकल्प के विश्लेषण में शीघ्र उकता जाने को उकसाती है। अतिआत्मविश्वास से तार्किक प्रक्रिया प्रभावित होती है और बहुधा जो पहला विचार आता है उसे ही मेधा का उपहार मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। फल शीघ्र पाने का अधैर्य निर्णय को तात्कालिक कर स्तरहीन कर देता है।
कभी कभी निर्णय प्रक्रिया प्रारम्भ करने के पहले ही एक निर्णयविशेष के प्रति हमारा झुकाव होता है। हो सकता है कि एक निर्णय में आगत फल के प्रति राग हो या दूसरे निर्णय में आगत फल के प्रति द्वेष। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है किसी निर्णय के क्रियान्वयन का बड़ा सरल या कठिन लगना।
अब पूर्ण निश्चिन्त होने के लिये निर्णय प्रक्रिया को कितना विलम्बित किया जाये? उत्तर है कि जितना संभव हो सके। इस पर लगभग ४ वर्ष पहले एक लेख लिखा था। काल करे सो आज कर का पूरा विपरीत। इस प्राप्त समय में या तो और विकल्प मिल जाते हैं या विकल्पविशेष के विश्लेषण के लिये अतिरिक्त तथ्य मिल जाते हैं या सभी पक्षों पर समुचित चिन्तन हो जाता है। पूर्वलिखित लेख में लेखक ने विलम्बन को सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया था। पर बिना अनुभव के अन्तिमतम समय तक प्रतीक्षा करना बड़ा ही साहसिक होता है, पता नहीं कि कब झपकी, आलस्य या प्रमाद हुआ और निर्णय लेने का समय ही निकल गया।
फल की अनिश्चितता, फल की कठिनता, निर्णय प्रक्रिया की जटिलता, निर्णय प्रक्रिया में समय का अभाव तथा निर्णय प्रक्रिया के उपरिलिखित अन्य दोष, ये सब मिलकर हमें उस प्रकार का निर्णय लेने को प्रवृत्त करते हैं जो बहुधा सभी विकल्पों में सरलतम होता है। या कहें कि हमारा मन जटिलता, अनिश्चितता और श्रम से भयग्रस्त रहता है और सरलतम चुन बैठता है। अब इसे मन की ही कलात्मकता कहेंगे कि वह सरलतम को ही श्रेष्ठतम सिद्ध कर देने में सक्षम है।
लगभग ऐसा ही कुछ १३वीं शताब्दी के सिद्धान्त “ओकम रेजर” के नाम से प्रसिद्ध है। यह आश्चर्य ही है कि यह सिद्धान्त विज्ञान में मान्य है। ओकम महाशय किसी अद्भुत घटना के दो संभावित व्याख्यों में सरलतम को सही मानते थे। उनकी या विज्ञान की समस्या यह थी कि जटिल व्याख्यों को सिद्ध करना बड़ा कठिन या दुष्कर कार्य है। ठीक उसी प्रकार से जिस तरह हमारे लिये जटिल निर्णय करना।
अगले ब्लाग में एक और वैज्ञानिक सिद्धान्त और उचित निर्णय की आवश्यकता और अनिवार्यता।
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