13.1.21

लक्ष्य और निर्णय

निर्णय प्रक्रिया बड़ी जटिल है, देखने में सरल लगती है। लगभग एक से परिवेश में भिन्न निर्णय जीवन की दिशा और दशा भिन्न कर देते हैं। जीवन को निर्णयों का एक पंक्तिबद्ध क्रम कहा जा सकता है।

कितना अच्छा होता कि जीवन में विकल्प होते। समुचित विकल्प टटोलने में लगा समय और श्रम बच जाता। कभी कभी तो श्रेय और हेय विकल्पों का अन्तर उतना नहीं होता है, जितना महत्वपूर्ण मानकर हम समय और श्रम झोंक देते हैं। विकल्पों के फल में यदि अन्तर अधिक और स्पष्ट हो तो निर्णय प्रक्रिया सरल और सार्थक होती, पर उन्नीस-बीस का अन्तर हो या उस प्रतिशत को अन्यथा महिमामण्डित करने की प्रवृत्ति हो तो कुछ भी स्वीकार्य हो जाता है।कुछ भीका आविष्कार संभवतः ऐसे ही सिद्ध मनीषियों ने किया होगा जिन्होने निर्णय प्रक्रिया के फलतत्व का मर्म जान लिया हो। श्रीमतीजी केक्या बनाऊँपूछने परकुछ भीका उत्तर ऐसे ही सिद्ध तत्वों का सार समेटे है, जैसे खाना अच्छा ही बनेगा, प्रशंसा करना ही है, आदि आदि। यदि सोचकर कुछ बता भी दिया जाये तो उसे अपने क्षेत्र में अनावश्यक व्यवधान मानकर समुचित प्रत्युत्तर मिलना निश्चित हो जाता है।


यदि विकल्प कई हों और आपको सर्वोत्तम विकल्प चुनना तो कार्य अत्यधिक दुष्कर हो जाता है। अद्वैत का नेति नेति करना तब ठीक रहता जब सर्वोत्तम ज्ञात हो। जब यह पता ही हो कि श्रेयस्कर क्या है, तब दो विकल्पों के बीच कोई एक गुण लेकर तुलना की जाती है। माँ के साथ विवाहपूर्व और श्रीमतीजी के साथ शेष जीवन यह प्रक्रिया बड़े निकट से देखी है। साड़ियों की दुकान में इतनी प्रयोगिक यात्राओं के बाद यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि साड़ियाँ चुनने में समय तो लगता ही है। यदि आपको नहीं लगता है तो आप सुघटित निर्णय प्रक्रिया से अनभिज्ञ हैं। पहले तो मूल्य की ऊपरी सीमा बता दी जाती है, तब २०-३० साड़ियाँ देखने के बाद - अच्छी साड़ियाँ मानक के रूप में किनारे रखी जाती हैं। तत्पश्चात सारी दुकान का तुलनात्मक अध्ययन होता है, मानक से कोई अच्छी साड़ी उसके स्थान पर मानक की कोटि में जाती है। यह क्रम तब तक चलता है जब तक दुकानवाला थक जाये, आपके हाथ जोड़ ले और आपको समुचित छूट का विश्वास दे दे।


जीवन के निर्णयों में बहुधा इतना समय हाथ में होना संभव नहीं होता है। शीघ्र निर्णय लेने में सारे विकल्प दृष्टिगत करने का और प्राप्त विकल्पों के समुचित अध्ययन करने का दोष जाता है। इससे निर्णय प्रक्रिया की गुणवत्ता हीन हो जाती है। दूसरी ओर निर्णय प्रक्रिया में संभावित सारे विकल्पों का समुचित अध्ययन करने में ही लगे रहें तो संभवतः निर्णय अपनी उपादेयता खो बैठें। ऐसे दीर्घसूत्रियों को कभी कभी इस मानसिकता का लाभ मिल जाता है। कभी तो समस्या स्वतः हल हो जाती है या कभी समाधान स्वतः प्रकट हो जाता है या कभी समस्या अपनी तीक्ष्णता खो बैठती है। जब कृष्ण कहते हैं कितान्स्तितिक्षस्व भारत”, कि हे अर्जुन सहन करो तो उनका भी यही कुछ भाव रहता होगा। दुख का परिमाण और प्रतिकूलता की तात्कालिकता काल में घुल जाते हैं।


निर्णय लेने का एक सम्यक समय होता है, अति शीघ्र, अति विलम्ब, कहीं मध्य पर। कितने मध्य पर हो, वह भी निर्णय का विषय हो जाता है। इतना समय कि जिसमें विकल्पों का विषयगत विश्लेषण भी हो जाये और निर्णय की उपादेयता बनी रहे।


अब मान लीजिये कि आपने इतना शोध करके एक निर्णय ले लिया। अब इस तथ्य का निर्णय कैसे होगा कि कौन सा निर्णय सर्वश्रेष्ठ था। एक निर्णय की सामर्थ्य उससे प्राप्त फल से होती है। अब एक निर्णय ही तो नहीं है जो फल का कारक हो। अन्य बहुत से कारक होते हैं। अच्छे निर्णय की विफलता और हेय निर्णय की सफलता क्रमशः क्रिकेट में एक बहुत अच्छे कैच और फील्डर की अनुपस्थिति जैसा ही है। मात्र एक निर्णय आपकी निर्णय प्रक्रिया की विश्वसनीयता को सिद्ध नहीं कर सकता है।


एक के बाद एक कई निर्णय, कुछ अच्छे, कुछ विफल, आकलन बहुधा जटिल हो जाता है। यह जटिलता केवल जीवन की भिन्नता को निर्णय प्रक्रिया से सम्बद्ध कर देती है वरन निर्णय लेने के प्रयासों को नकारात्मकता से प्रभावित करती है।


अगले ब्लाग में देखेगे कि किस प्रकार यह जटिलता हमारी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है? साथ ही दो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धान्त।

2 comments:

  1. आपके ब्लॉग की विशेषता है कि ये पूर्णतया मौलिक होते है, शुद्ध हिन्दी में और उर्दू फारसी का समावेश नहीं होता है। सदैव की भांति अप्रतिम लेख सर🙏

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  2. आपके ब्लॉग की विशेषता है कि ये पूर्णतया मौलिक होते है, शुद्ध हिन्दी में और उर्दू फारसी का समावेश नहीं होता है। सदैव की भांति अप्रतिम लेख सर🙏

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