महाभारत की कथा में अर्जुन द्वारा पक्षी की आँख ही दिखने की स्मृति जीवन में कई बार आई है। बाल्यकाल में पढ़ाई करते समय बहुधा मन भटकता था, कभी फुटबाल में तो कभी उपन्यास में, कभी घुमक्कड़ी में तो कभी घर में बन रहे माँ के व्यञ्जनों में। हर बार मन को डाँटा और याद किया अर्जुन के उत्तर को।
छात्रावास में अर्जुन और अधिक प्रेरक रहे। घर में परिवार की दृष्टि से बिंधे पंख वैसे ही नहीं फड़फड़ाते हैं। मित्रों के घर जाने के लिये आज्ञा का उद्योग, परिवार की दिनचर्या में बँधा भटकाव, संभावनायें चाह कर भी शिथिल पड़ जाती थीं। छात्रावास में उन्मुक्त मित्रमण्डली, समय की पूर्ण उपलब्धता और मानसिक स्वातन्त्र्य। लक्ष्यच्युत हो जाना सरल होता है इस परिवेश में। आँख के अतिरिक्त सब कुछ देखने का विकल्प बना रहा। उन वृत्तियों से बाहर निकल पाने में अर्जुन की कथा सहाय्य रही। एक विद्यार्थी पुस्तकों से जितना सीख सकता है, वह सीखता ही है, पर विकल्पों के इस मकड़जाल को जी लेना और उसे सफल पार कर जाना जितना सिखा जाता है, वह अद्वितीय है।
याद है कि जब गणित के कठिन प्रश्न विषय की सम्पूर्ण समझ प्रयुक्त करने के बाद भी नहीं सुलझते थे, एक पग भी नहीं, दिशा ही नहीं समझ आती थी कि कैसे प्रारम्भ करना है? उस समय लगता था कि कम से कम अर्जुन को लक्ष्य दिख तो रहा है, यहाँ तो लक्ष्य दिख ही नहीं रहा है, प्रश्न के हल की दिशा ही अनुपस्थित है। लक्ष्य तब बदल जाता था, प्रश्न पर लगे रहना ही लक्ष्य हो जाता था।
युवामन को बस यह पता लग जाये कि करना क्या है तो जीवन कितना सरल हो जाये। एक के बाद एक लक्ष्य पता चलते रहें तो सारी ऊर्जा संचित कर युवा उस दिशा में बढ़ता रहे। सिद्धान्त सरल लगता है पर मेरे जीवन में ऐसा नहीं रहा, गणित के उन प्रश्नों की तरह। जितना प्रश्न हल करके नहीं सीखा उससे कहीं अधिक उस असफल प्रयासों में सीखा जो उत्तर की दिशा से कोसों दूर थे। आईआईटी की तैयारी करते समय ब्रिलियण्ट टुटोरियल की वाईजी फाइल ली थी। गणित का पहला प्रश्न ही १५ दिन लील गया। जूझना नहीं आता यदि प्रश्न का हल पता चल जाता। उत्तर का त्वरित ज्ञान, लक्ष्य का सिमटना, समय की बचत आदि उस अनुभव से वंचित कर जाते, उस समझ से वंचित कर जाते जो अलक्षित भटकाव में प्राप्त हुये।
कहने को तो अर्जुन का कथन हर बार जीवन में प्रयुक्त रहा, पर पक्षी की आँख क्या हो, उस पर चिन्तन चलता रहा, उस पर जीवन बढ़ता रहा।
प्रारम्भिक जीवन में लक्ष्य तो बहुधा ज्ञात ही रहे, कभी इंगित, कभी प्रेरित, कभी स्वनिष्पादित। यथासंभव संधान भी होता रहा। शान्त मन से कभी उन विकल्पों पर भी विचार हुआ, जो छोड़ दिये गये। लगा कि जीवन कुछ अधिक भिन्न नहीं होता यदि वे विकल्प चुने जाते।
जीवन में उत्तरोत्तर लक्ष्य निर्धारित करने का उत्तरदायित्व आप पर ही आ जाता है। मानक क्या हों जब सबका जीवन विशेष हो, भिन्न हो। कौन किस पर कैसे मानक अधिरोपित करेगा? स्वयं ही निर्धारित करने होते हैं अपने लक्ष्य और उन लक्ष्यों को अर्जुन की तरह देखकर निष्पादित करने का क्रम। एक के बाद एक, लक्ष्य प्राप्तकर विस्मृत हो जाते हैं। कठिन लक्ष्य प्राप्ति में प्रतीक्षा में अपनी तीक्ष्णता खो सरल कर दिये जाते हैं। क्रम चलता रहता है, जो प्राप्त रहा और जो न पाया, दोनों में ही मन आपको समझा लेता है कि संभवतः यही ठीक था।
द्रोण कहें कि आँख पर मारना है तो हम भी अर्जुन की तरह आँख ही देखें। यहाँ तो हम ही द्रोण, हम ही अर्जुन, अघोषित लक्ष्य, जहाँ तीर लगा उसी को आँख बता देने में सक्षम भी हम और विडम्बना यह कि निर्णायक भी हम।
लक्ष्य, अनुमान, परिमाण, संधान और निर्णय का सतत क्रम।
साल भर के बाद आपने कुछ लिखा है। आशा है इस दरम्यान सभी कुशल रहा है।
ReplyDeleteजी, सब सकुशल है। बस, पढ़ना अधिक हुआ २०२० में।
ReplyDeleteबहुत दिनों। के बाद आपका ब्लॉग परिलक्षित हुआ है सर। पूर्व के लेखों के समान उत्कृष्ट परिमार्जित एवम् झकझोरने वाला👍
ReplyDeleteबहुत दिनों। के बाद आपका ब्लॉग परिलक्षित हुआ है सर। पूर्व के लेखों के समान उत्कृष्ट परिमार्जित एवम् झकझोरने वाला👍
ReplyDeleteबहुत दिनों। के बाद आपका ब्लॉग परिलक्षित हुआ है सर। पूर्व के लेखों के समान उत्कृष्ट परिमार्जित एवम् झकझोरने वाला👍
ReplyDeleteलक्ष्य और विकल्प पर बहुत ही ईमानदार व अनुभवजन्य विश्लेषण... जिससे हम अपने जीवन में रूबरू होते हैं|🙏
ReplyDelete-हरीश मिश्र
ReplyDeleteप्रणाम सर।आपका लेख बहुत ही मार्गदर्शन और प्रेणास्रोत हैं।आपके आचार विचार बहुत ही महत्वाकांक्षी हैं।
ReplyDeleteअर्थपूर्ण प्रासंगिक चित्रण
ReplyDeleteMamashree, bahut sundar aur vicharprerak lekh!
ReplyDeleteहमेशा ही की तरह, एकदम सटीक... एक एक शब्द बस तीर की माफ़िक बिल्कुल लक्ष्य को बींधता हुआ। आशा है कि अब कुछ अधिक निरंतरता के साथ आपके आलेख पढ़ने को मिलेंगे।
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