पूरा संशय छात्रावासियों पर हुआ, स्वाभाविक ही था। वाह्य विश्व को देख पाने और उसमें समय बिता पाने की जितनी ललक हम छात्रावासियों में थी उतनी नियमित विद्यालय आने वाले मित्रों में नहीं थी। उनके बारे में तो यह धारणा थी कि उनके अभिभावक उन्हें सप्ताह में एक बार तो बाहर घुमाने और महीने में एक बार फिल्म दिखाने तो अवश्य ले जाते होंगे। परतें हटी तो आश्चर्य हुआ, मुख्यतः नियमित विद्यालय आने वाले ही इस काण्ड में अग्रणी थे। छात्रावासियों को भी बड़ा उपेक्षित लगा कि काण्ड में उनकी भूमिका नहीं थी। दूसरा भ्रम इस बात का भी टूटा कि काण्ड कक्षा में अंकतालिका में नीचे रहने वाले ही करते हैं। भाग लेने वालों में लगभग आधे कक्षा में प्रथम दस स्थानों में आने वाले थे, मेधावी छात्र थे।
जैसे जैसे नाम उद्धघाटित हुये, विद्यालय का धर्मसंकट बढ़ गया। कठिन दण्ड मेधावी छात्रों के मनोबल को प्रभावित कर सकता था क्योंकि २ महीने बाद बोर्ड की परीक्षायें थी, १२वें की। इन संलिप्त छात्रों से एक उत्कृष्ट परिणाम की आशा थी। अन्ततः उच्च आदर्शों की अपेक्षा का संक्षिप्त संभाषण देकर उनको छोड़ दिया गया। जिनके द्वारा विद्यालय के परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, वे सब भी अपने तेजस्वी मित्रों के आभामण्डल में सुरक्षित रहे, संरक्षित रहे। सारी मित्रमण्डली के लिये आज भी अमरुदों का खाना मन और स्मृति में कड़वाहट के भाव नहीं लाता है। छात्रावासियों का काण्डकर्ताओं के रूप में एकाधिकार टूटा, उद्दण्डता सर्वव्यापी हो चली। अनदेखे और अनजाने के बारे में टीस हर एक में है क्योंकि छात्रावास की तरह मन के बद्ध परिसर से सब ही बाहर आने के लिये लालायित रहते हैं।
सागर मंथन व्यर्थ नहीं जाता है, आशंका का विष मिला तो रत्नों के रूप में कई शिक्षायें भी मिलीं। नियम भी परिस्थितियों के प्रभाव में प्रयुक्त होते हैं। निर्णय बहुधा निष्कर्ष पर आधारित होते हैं, प्रक्रिया यदि निष्कर्ष में बाधक हो तो वह त्याज्य है। एक क्षेत्र में किया हुआ परिश्रम दूसरे क्षेत्र में भी काम आता है, कर्मफल की जटिलताओं को समझाता हुआ एक और उदाहरण। गुण अवगुणों को ढकने में सक्षम होते हैं। भविष्य में काम आने वाले एक महान बोध को भी हमारा बाल मन हृदयांगम कर गया कि “समरथ को नहिं दोष गोसाईं”। यदि दोषारोपण से बचना है तो समर्थ होना पड़ेगा। साथ ही सबको यह प्रेरणा भी मिली कि उद्दण्डता में दण्ड न पाने की योग्यता तो पढ़कर ही आती है, अन्यथा नहीं।
मुम्बईया फिल्मों की तरह इस घटना का अन्त अत्यन्त सुखद था, आँखों में आनन्द के आँसू लाने वाला। उस वर्ष हमारे विद्यालय से प्रदेश की १२वें की बोर्ड परीक्षाओं में प्रथम १५ स्थानों में ७ स्थान आये। इसमें ५ वे थे जो २ महीने पहले कटरी काण्ड का नेतृत्व कर रहे थे। हमारे विद्यालय के लिये या किसी भी विद्यालय के लिये एक साथ इतने स्थान ला पाना एक कीर्तिमान था। श्रेष्ठता के मानक के रूप में हमारे विद्यालय की प्रसिद्धि अपने चरम पर थी। प्रधानाचार्यजी भी अपने आराध्य को धन्यवाद दे रहे होंगे कि जिनकी प्रेरणा से अनुशासनबद्धता के अडिग सिद्धान्त को तनिक व्यवहारिकता मिली, दार्शनिकता मिली। सारे मित्रों में एक अद्भुत उत्साह था, सफलता की संजीवनी जीवन की दिशा बदल देती है, प्रेरणा मूर्तमान हो गले लिपटा लेती है, तटस्थ रहना असंभव हो जाता है तब, संभावना भविष्य के शतद्वार खोल देती है। अनुजों के लिये अग्रजों का यह प्रदर्शन उत्प्रेरण की पराकाष्ठा थी, सबको श्रेष्ठता अपनी अपनी परिधि में दिखने लगी थी? “क्या असंभव, आज शिव मैं” जैसे भाव न जाने कितने हृदयों में हिलोरें ले रहे थे।
हमारा यह प्रदर्शन इस तथ्य का साक्षी था कि हम मित्रों ने केवल मिलकर काण्ड ही नहीं किये। हम सब साथ साथ बढ़े, पढ़े, लड़े, एक दूसरे को देखकर सीखे, प्रतियोगी हुये, उपयोगी हुये। यूट्यूब में भरे हुये और हर तीसरी पुस्तक में बिछे हुये प्रेरित करने और आत्मविश्वास बढ़ाने के सिद्धान्त मुझे दो तीन अच्छे मित्रों के सामने तुच्छ लगते हैं। वर्षों के आरोह में यदि कोई एक अन्वित कारण रहा जिसने व्यक्तित्व को ऊर्जामयी बनाये रखा है तो वह मित्रों का सतत सम्पर्क ही है। कुछ दिन पूर्व अपने पुत्र को बता रहा था कि विद्यालय के प्रबन्धन, अध्यापकों की योग्यता, समुचित पाठ्यक्रम, खेलकूद की सुविधायें, विद्यालय की उत्कृष्टता के इन सब कारकों में जिस एक बात को अभिभावक समझ नहीं पाते हैं कि उनके बच्चों को सहपाठी कैसे मिलने वाले हैं? जो जीवन भर के लिये प्रभावित करने वाले हैं, वे मित्र कैसे मिलने वाले हैं? सफल और असफल विद्यालयों में यह एक बहुत बड़ा कारक है कि छात्र किस तरह एक दूसरे को संप्रेरित करते हैं।
हर प्रकार के काण्डों में उत्साहित रहने के बाद भी बहुत अधिक उद्दण्ड होने या बिगड़ने की संभावना नहीं थी। इसके कई कारण थे। उद्दण्डता के जिस स्तर पर स्वच्छन्ता और शौर्य का प्रकटीकरण हो जाता था, उससे अधिक की आवश्यकता नहीं थी। यद्यपि छात्रावास से भागकर जाते थे पर जेब में उतने पैसे नहीं रहते थे कि अन्यथा व्यय कर सकें, कचौड़ी खायी या अधिकतम हुआ तो मिठाई भी ले ली।मित्र यदि काण्डों में आपके साथ रहते थे तो आप पर दृष्टि भी बनाये रखते थे कि आप कहीं सीमा तोड़कर भटकी पगडंडियों में तो नहीं उतर गये हैं। आत्महन्ता और विध्वंसी मानसिकता पर पूर्णविराम थोप देने वालों में वही मित्र अग्रणी रहते थे। उत्पात रहा पर सीमा में रहा, निष्प्रयोज्य भटके पर मित्रों के साथ सायं घर लौट ही आये। सबकी साझी मध्यमवर्गीय संवेदनशीलता एक दिग्दर्शिका बनी रही।
विद्यालय के बाद सब अपने भविष्य की संरचना में जुट गये। ऐसा भी नहीं हुआ कि सभी को सुपथ मिला हो। एक प्रिय मित्र ने कई वर्षों बाद बताया कि विद्यालय के तुरन्त बाद यदि वह सप्रयास अपने मित्रों के सम्पर्क में बना रहता तो उसके लिये भविष्य कुछ और होता, तनिक और खुला होता। आज शान्तमना हो सोचता हूँ कि कैसे मित्र हाथ पकड़े पकड़े यहाँ तक ले आये।