ध्यान के समय ध्येय, ध्याता और ध्यान रहते हैं। ध्येय में भी तीन तत्व रहते हैं, शब्द, प्रत्यय और अर्थ। शब्द उसका नाम है, प्रत्यय उसके बारे में ज्ञान है और अर्थ वह वस्तु या विषय स्वयं। पद शब्द है और पदार्थ उस शब्द का वास्तविक स्वरूप, जो पद को अर्थ दे। लड्डू शब्द है, उसका गोल होना, मीठा होना उसके बारे में ज्ञान है और स्वयं ही लड्डू अर्थ है।
ध्यान के समय हम ध्येय के बारे में प्रत्यय की एकतानता करते हैं। समाधि में यही इतनी गहरी हो जाती है कि उस स्थिति में शेष कुछ न होकर मात्र अर्थ ही रह जाता है। तब न ध्येय रहता है, न शब्द, न प्रत्यय, न ध्याता। न इस बात का भान कि ज्ञान हो रहा, न इस बात का भान कि ध्यान हो रहा है, न उस बात का भान कि मैं ध्यान कर रहा हूँ। सब मिलकर अर्थ में लीन हो जाते हैं। यह समझने में तनिक कठिन लगता है क्योंकि हमारी लौकिक समझ ज्ञान के पर्यन्त नहीं जा पाती है।
एक लौकिक उदाहरण लेते हैं। जब हम कोई फिल्म देख रहे होते हैं तो कभी कभी किसी पात्र के साथ स्वयं को इतना जोड़ लेते हैं कि उसके भाव हमारे भाव हो जाते हैं। यदि वह कष्ट में होता है तो हमें कष्ट होने लगता है, यदि वह हँसता है तो हम हँस देते हैं। यह वही समाधि की स्थिति है, न फिल्म, न अभिनेता, न हाल, न कुर्सी, न यह भान कि फिल्म देखी जा रही है। न अभिनेता का नाम, न उसका अन्य ज्ञान। बस उसका अर्थ, उसका भाव प्रस्फुट हो जाता है। संभवतः यही आधार रहा होगा जिस पर कश्मीर के उद्भट विद्वान अभिनवगुप्त ने यह सिद्ध किया कि नाट्यशास्त्र में रस की उत्पत्ति चित्त में ही होती है। जिसके कारण रस उत्पन्न होता है, वे बस उद्दीपन मात्र हैं।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः॥३.३॥ सूत्र का एक एक शब्द समाधि का वर्णन कर रहा है। तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरूपशून्यम् इव समाधिः। तत् अर्थात ध्यान की स्थिति में, अर्थ मात्र निर्भासं अर्थात केवल अर्थ का भान, स्वरूपशून्यं अर्थात न स्वयं का ज्ञान, न वस्तु के स्वरूप का ज्ञान। कहा जाता है कि ईश्वर सत, चित और आनन्द स्वरूप है। यदि हम ईश्वर के आनन्द स्वरूप पर धारणा करते हैं, किसी चित्र के माध्यम से या अर्चविग्रह पर देशबंध करके। आँख बन्द करके ध्यान में उतर जाते हैं। ध्यान की स्थिति में ईश्वर के आनन्द स्वरूप के बारे में जो भी हमारा ज्ञान है, उसी के विचार स्मृतिवृत्ति के माध्यम से चित्त में आने लगेंगे, कोई अन्य वृत्ति नहीं। ध्यान करते करते जब केवल ईश्वरीय आनन्द शेष रह जाये और कुछ न रहे, तब समाधि होती है। उस आनन्द का प्रत्ययात्मक स्वरूप प्रत्यक्षात्मक स्वरूप में बदल जाये, ध्येय के स्वभाव से सब प्रकाशित हो जाते, वह समाधि है।
शब्द नहीं रहा, ज्ञान भी नहीं रहा, बस अर्थ रहा। मुझे ज्ञान हो रहा है, इस बात का ज्ञान भी न रहा, अर्थ के अतिरिक्त कुछ और न रहा, अर्थ मात्र निर्भास रहा। ध्याता और ध्यान का बोध नहीं रहा। ध्येय में शब्द का और उसके ज्ञान का भी ज्ञान न रहा है, सब अर्थ में लीन हो गया।
कई व्याख्या हैं। परमात्मा के आनन्द स्वरूप का ध्यान, अभी तीनों हैं, परमात्मा, आनन्द स्वरूप और ध्यान। जब केवल आनन्द रह जाता है, कुछ और नहीं, तो समाधि है। गवेषणा की दृष्टि से देखें, तो समाधि में खोज समाप्त हो जाती है। ध्यान में गवेषणा चलती रहती है, मन में उसके चित्र बनते रहते हैं, प्रत्ययात्मकता बनी रहती है, यह ऐसा होगा, वैसा होगा, यह आकार होगा इत्यादि। जब वह वस्तु प्रत्यक्ष मिल जाती है तो गवेषणा समाप्त हो गयी, यह स्वरूपशून्य की परिभाषा है। स्वरूपशून्य की दो और परिभाषा भी हैं, ध्याता के स्वरूप से शून्य और ध्यान के स्वरूप से शून्य। व्यास किन्तु प्रत्ययात्मक स्वरूप से शून्य होने की बात करते हैं। क्या था, कैसा था, उन सबसे शून्य हो जाना। जब वस्तु आ जायेगी, प्रत्यक्ष हो जायेगा, तब समाधि है। ध्येय स्वभाव आवेश को समाधि कहते हैं। समाधि पिछले ७ अंगों का प्रतिफल है।
धारणा, ध्यान और समाधि की यात्रा को यदि समग्र रूप से देखें तो यह एक प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष की यात्रा है। धारणा में जो प्रत्यक्ष था वह अन्य वृत्तियों, अन्य प्रत्ययों से आच्छादित था। जब ध्यान के द्वारा अन्य वृत्तियों को हटाया और उसी के बारे में ज्ञानवृत्तियों को समेटा तो शेष सब आच्छादन हट कर वस्तु का परिपूर्ण प्रत्यक्ष हुआ, यह समाधि की स्थिति है।
समाधि की अनुभूतित इस परिभाषा को जानने से, वस्तुओं और उनके ज्ञान के बारे में कुछ तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं। पहला यह कि सारा घटनाक्रम चित्त में हो रहा है और समाधि आने पर अर्थ चित्त में ही प्रस्फुटित होता है। हम इन्द्रियों से वस्तु का प्रत्यक्ष अवश्य करते हैं पर उसकी संरचना और स्वरूप चित्त में ही बनता है। रस आदि भी चित्त में ही उदित होते हैं। देखा जाये तो एक पूरा का पूरा वही संसार बसता है चित्त में भी। यत्मुण्डे तत्ब्रह्माण्डे, इस पर व्याख्या फिर कभी। जो हम जानते नहीं, वह हमारे लिये हैं भी नहीं। उसी वस्तु को बाहर देखने से उसको उन सबसे जोड़कर देखते हैं जो कि उससे मुख्यतः असम्बद्ध हैं। उन्हीं वस्तुओं को धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से देखते हैं तो वह दर्शन सम्यक परिप्रक्ष्य में होता है, संबंध अर्थपूर्ण होता है, सही दृष्टा के परिप्रेक्ष्य में होता है।
दूसरा तथ्य यह कि जानने की सीमा से भी आगे है, होने की सीमा। ज्ञान से विज्ञान की यात्रा। विषय में समाधिस्थ होकर इतना उतर जाते हैं कि उस समय केवल अर्थ रहता है, केवल विषय रहता है, केवल वस्तु रहती है, ज्ञान की इससे परे भला और क्या सीमा होगी?
तीसरा तथ्य यह कि समाधि अन्त नहीं वरन प्रत्यक्ष का प्रारम्भ है, ज्ञान का प्रारम्भ है। समझने की ऐसी प्रक्रिया है जो सघन है, सान्ध्रित है, सम्पूर्ण है। इस प्रक्रिया से स्थूल, सूक्ष्म, आत्म आदि विषयों का परिचय होता है, प्रज्ञा आती है, ज्ञान से समझ और भी प्रकाशित हो जाती है, अस्पष्टता से स्पष्टता आ जाती है। अन्त में जब प्रत्ययात्मकता की परिपक्वता आती है, कुछ और जानना शेष नहीं रहता है, तब परवैराग्य के आने पर ऋतम्भरा प्रज्ञा आती है, सत्य को प्रभासित करने वाली प्रज्ञा।
सही ज्ञान का प्रस्फुटन हमें सही कर्म करने को प्रेरित करता है। योगः कर्मषु कौशलम्। जो अधिक जानता है वह अधिक कुशल भी है।
अगले ब्लाग में संयम की प्रक्रिया।
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