राम के बारे में जितना पढ़ा, रामचरितमानस के माध्यम से ही पढ़ा। जितनी बार पढ़ा, राम उतने ही रमते गये मन में। हर उस संबंध में रम गये जो उन्होंने निभाया। समझ नहीं आता कि तुलसी ने राम को प्रसारित किया कि राम ने तुलसी को या हनुमान ने दोनों को?
जितनी बार भी राम का चरित्र पढ़ा है जीवन में, आँखें नम हुयी हैं। कल मेरे राम को अपना आश्रय मिल गया, कृतज्ञतावश पुनः अश्रु बह चले। धार्मिक उन्माद के इस कालखण्ड में भी सदैव ही मेरे राम मुझे दिखते रहे हैं, त्याग में, मर्यादा में, शालीनता में, चारित्रिक मूल्यों में। दो माह पूर्व देख आया था उनको, दृश्य देखकर हृदय बैठ गया था। आज राम को वहाँ आश्रय मिला जिसके लिये मेरे राम स्वर्णमयी लंका छोड़ आये। उल्लास के आँसू है। जिनका भी तनिक योगदान है, मेरे राम को आश्रय दिलाने में, सबको मेरी अश्रुपूरित अंजलि, शब्द भाव न व्यक्त कर पायें संभवतः।
बार बार पढ़ा राम को, बार बार जाना राम को, सीमित मन से जितना संभव हुआ। हर बार पिछली बार से अधिक रोया मन। अथाह धैर्य, अथाह प्रेम, अथाह औदार्य, अथाह आर्जवता। भला कौन सहता है इतना? कौन अपने मानक स्वयं इतने कठिन बनाता है जीवन में? कौन बैठकर शबरी के जूठे बेर प्रेमपूर्वक खाता है? कौन अपने भाईयों को इतना चाहता है? कौन कहता है धरती से कि भरत जब इस पथ आये तो उसे न चुभना क्योंकि जब उसे पता चलेगा कि राम को यही कष्ट हुआ होगा तो वह सह न पायेगा। कौन भाई भला अपने भाई को इस स्तर तक समझ भी पाता होगा? कौन सा मानक हो उनके लिये जो सबके मानक हों।
रामचरितमानस पढ़ने में कई बार आँखें गीली संभवतः इसीलिये होती हैं। राम पर तो चाह कर भी किसी को क्रोध नहीं आ सकता। मेरे राम तो प्रारम्भ से अन्त तक औरों के हित के लिये स्वयं के द्वारा सताये हुये रहे। सदैव दुख सहने को तैयार। अब इस सहनशीलता पर बताईये क्रोध आये कि नयन आर्द्र हो जायें?
राम में रमना अब किसी प्रतीक की प्रतीक्षा में नहीं रहता हैं मेरे लिये। रामचरितमानस में उतरते ही आँसुओं के स्रोत सक्रिय हो जाते हैं। इतना वृहद चरित्र हृदय में उतारने में डर केवल इस बात का लगता है कि कहीं मेरी क्षुद्रता अपना अहम न खो दे।
राम पर संवाद जितना भी होता है उसमें एक पक्ष उन्हें सर्वजन की तरह निर्णय न लेने लिये उलाहना देता है वहीं दूसरा पक्ष उनकी महानता, उनके त्याग से उन्हें परिभाषित करता है। एक कहता है कि क्यों हो गये इतने लौह हृदय? मानवीय भावों को क्यों नहीं प्रदर्शित किया, क्यों तोड़ी उनकी सीमायें? दूसरा पक्ष उनको महानता की चौखट में जड़कर आराध्य बना देता है। कितना सहा है उस आराध्य ने, हर पग पर, पर पथ पर, आज तक, अब तक। इतनी आराधना के बाद भी असमर्थ रहे उनके आराधक, ५०० वर्ष का वनवास। बैठी सगुन मनावत माता जैसा भाव लेकर आज आस प्रस्फुटित हुयी है। महानता धारण करना कठिनतम है, फिर भी संयमित रहे मेरे राम, मर्यादा में, आज तक।
कभी चाहा कि कृष्ण की तरह व्यवहारिक हो जाऊँ, शठे शाठ्यम् समाचरेत सीख लूँ। गुरुचरणदास की डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड पढ़ी। सज्जनता के दंश को समझा। कृष्ण का चरित्र आकर्षक लगता है, आश्चर्य होता है कि कैसे बुद्धिबल पर पूरा महाभारत जीतने की क्षमता थी उनमें। शत्रुओं को उनके स्तर पर जाकर निपटाया। समय आया तो रण छोड़कर भाग भी गये। मेरे राम तो अपने आदर्शों से हिले ही नहीं, रण छोड़ा ही नहीं, अपने ऊपर ही सब ले लिया, अद्भुत स्थैर्य था उनमें। मैं तो चाह कर भी कृष्ण सा नहीं हो पाया, हर बार लगा कि अपने राम से तनिक सा भी छल न हो जाये।
रोम रमो हे राम, तुम्हारी जय हो।
जन मन के अभिराम, तुम्हारी जय हो।
रोम रमो हे राम, तुम्हारी जय हो।
ReplyDeleteजन मन के अभिराम, तुम्हारी जय हो।
... जय श्रीराम
काफी लंबे समय के बाद आपको पढ़कर बेहद सुखद अनुभूति हुई।
जन्मदिन की बधाई सहित अनंत शुभकामनाएं
जय श्रीराम!कहा गया है- रामचरीत जे सुनत आघाही,रस विशेष जाना निन्ह नाही। अर्थात इस अथाह सागर में जितना गोते लगाएं उतना कम है, फिर भी मानव उन आदर्शों को जीवन में नही अपनाता और यदि अपनाता है तो वह स्वयं के साथ साथ दूसरों को भी लाभन्वित करता है।
ReplyDeleteमैंने सीखा कि जो जीवन रस,राग,सुगंध तथा आत्मतृप्ति-आत्मानन्द रामायण में है,वो कहीं नहीं।
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